जय जवान-जय किसान!!!
जहाँ तक मेरी याददाश्त का प्रश्न है, पह शुरू से ही वह भारतीय नारी की तरह अबला रही है। किन्तु आज किसानों को सरेआम आत्महत्या करते देख मुझे अपने विद्यार्थी जीवन के कक्षा आठवीं की स्मृतियाँ गुदगुदा रही है जब ‘भारतीय किसान’ पर निबंध लिखकर मैंने अपनी कलम का लोहा मनवा लिया था और एक हजार रूपये का राज्यस्तरीय पुरस्कार जीत लिया था। उस समय इस गरीब देश के किसान की आर्थिक दशा का तो पता नहीं किन्तु किसानों के कारण मेरी अर्थ व्यवस्था में सुधार हो गया था। विद्यालय और मोहल्ले में मेरी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गए थे। आम के आम और गुठलियों के दाम वाली कहावत पहली बार सूद समेत मेरी समझ में आयी थी।
माता-पिता को मुझमें देश के भावी कृषि मंत्री की झलक दिखाई देने लगी थी। पिता जी दिनभर में कम से कम दर्जन भर बार ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला गीत टेप रिकाॅर्ड पर सुन लिया करते थे। मुझे याद है पुरस्कार जीतने के बाद लगातार चुनाव जीते हुए नेता की तरह मैंने पंद्रह दिनों तक लाल बहादुर शास्त्री जी की फोटो पर मालाएँ चढ़ाई थी। याने आलम ये था कि कोई मुझे नमस्कार भी करता तो मेरी बाल बद्धि जवाब में ‘जय जवान-जय किसान’ कहलवा देती। समय के साथ मेरी शिक्षा और अनुभव बढ़ा। तब समझ में आया कि भारतीय अर्थ व्यवस्था भले ही कृषि पर अवलंबित हो किन्तु किसानों की अर्थ व्यवस्था सदा डाँवाडोल रहती हैं इस देश में। देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ बनाने वाले किसान की हमेशा ‘अरथी’ ही उठती रही है।
साहित्य का छात्र और प्रेमचंद जी की कहानियों की दीवानगी से एक शिक्षा और मिली कि भविष्य में सब बनना लेकिन किसान नहीं बनेगें। वरना तुम्हारी दशा भी होरीराम, हलकू और गया जैसी हो जाएगी! ‘पंच परमेश्वर’ भी तुम्हारे भाग्य का फैसला नहीं कर पाएँगे! रही सही कसर उस समय ‘मदर इंडिया’ फिल्म के राजकुमार की दशा ने पूरी कर दी। (वैसे भी अपनी औकात नहीं थी। एक प्रायमरी मास्टर की किराये के मकान में रहने वाला भला ऐसी हिम्मत कहाँ कर सकता था। नंगा नहाये क्या और निचोंडे़ क्या?) एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि किसान, कृषि का विषस है या अर्थशास्त्र का? आरंभ से ही पढ़ता-सुनता-कहता आया कि भारत कृषि प्रधान देश है क्योकि हमारी अर्थ व्यवस्था का आधार कृषि है। आज मुझे लगता है कि सच में हमारी अर्थ व्यवस्था का आधार कृषि है क्योंकि भारत में किसान आत्महत्या करते हैं।
अब किसान राजनीति का विषय हो गए हैं। किसान भले ही भूख और कर्ज़ से दबकर मर जाता है किन्तु उसकी चिता से बने अंगारे अंगारों पर देखिए कैसे राजनीति की रूमाली-तंदूरी रोटियाँ और नाॅन सेंकी जा रही हैं। ऐसी रोटियाँ तो फाइव स्टार होटलों में दुर्लभ है साहब! कृषि के बारे में मेरी जानकारी भी एक आम भारतीय की तरह ही है। वर्ष में दो बार फसलें बोई जाती हैं। जिन्हें रबी और खरीफ की फसल कहा जाता है। खरीफ की फसल कभी अधिक बरसात तो कभी सूखे और कभी बाढ़ से नष्ट हो जाती हैं। रबी की फसल को ओले और पाला तथा बेमौसम की वर्षा बर्बाद कर देती है। इसके बाद किसानों की कमर टूट जाती है जिसे सरकार को मुआवजा देकर जोड़ने की कोशिश करती है। मुआवजे से किसान को लगता है कि उसकी गर्दन ताकतवर हो गयी है इसलिए वह रस्सी के फंदे पर लटक कर देखता है कि गर्दन मज़बूत या मुआवजा की रस्सी? उसका अनुमान गलत निकलता है। रस्सी अधिक मज़बूत निकलती है। गर्दन फंदे में डालने के बाद किसान का भार सह लेती है। कमबख़्त सरकारी वादों की तरह टूटती नहीं। बेचारा किसान! न वर्षा का सही अनुमान लगा पाता है और ना रस्सी का!!लटका रह जाता है। सब कहते हैं एक और किसान ने आत्महत्या कर ली।
एक पुरानी कहावत है ‘मरा हुआ हाथी सवा लाख का होता है।’ मैंन उसी तर्ज़ पर एक आधुनिक कहावत गढ़ी-‘आत्महत्या करने वाला किसाना लाखों का होता है।’ पसंद आए तो दाद दीजिएगा। हमारे पूर्वज कहा करते थे- ‘उत्तम कृषि मध्यम बान अधम चाकरी भीख निदान।’ अब परिभाषा बदल गयी है-‘उत्तम भीख मध्यम बान अधम चाकरी कृषि निदान।’ आज कृषि करनेवाला किसान सरेआम फाँसी झूल रहा है। व्यापारी लोग आयकर की चोरी कर अपनी तिजोरी और अधिकारियों की ज़ेब भर रहे हैं। किसानों से वोटों की भीख माँगकर जीते हुए नेता हवाई यात्राएँ कर विदेशों के दौरे कर रहे हैं। सब ‘अर्थ की माया है’ या ‘अर्थ ही माया है’ कुछ समझ नहीं आता। कृषि कर्म सच में साहसिक काम है। शास्त्री जी ने क्या सोच कर यह नारा दिया था-‘जय जवान-जय किसान’ यह तो वे ही जानते होेंगे। किंतु आज हालात बदल गये हैं जवान देश की सीमाओं से ज़्यादा सीमाओं के भीतर शहीद हो रहे हैं और किसान सरेआम फाँसी पर झूल रहा है!!!!
— शरद सुनेरी