भारत में कत्लखाना : आर्थिक और राजनैतिक सन्दर्भ
बात तो वहां से शुरू होती है जब एक कत्लखाने के विरोध में रेल, सडक सभी जाम मिलते हैं और अपनी गाडी भी घंटों जाम में फंसी होती है, तब सोचने को विवश होना पड़ता है कि आखिर कत्लखाने की फिलोसफी क्या है ?
हमारे भारतीय शब्दकोश में और वर्तमान परिपेक्ष्य में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित शब्द है कसाई, कातिल यानी क्रूरतम निर्दयी व्यक्ति या जीव | पशु तो सिर्फ अपनी क्षुधा तृप्ति हेतु या अपनी रक्षा के निमित्त ही हिंसक होता है पर, आदमी को जीभ के स्वाद और अर्थलोलुपता के कारण हिंसक और कातिल होते हुए देखा जा सकता है | जब लोलुपता अपनी सीमायें लांघती है या लोभ में अवरोध उत्पन्न होता है, तब क्रोध बाँध तोडकर दानवता ऐष्णाओं के चादर तले याचना, बलात लूटना, भयातुर करना, जैसे लक्षण स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं |
ऐसे कातिलपना और कत्लखाने के इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसकी शुरुआत अंग्रेज अधिकारी लेन्सडाउन को १७६० ई० में तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्ञी द्वारा लिखे पत्र, मैक्वाले के उस अवधारणा को प्रतिपादित किया गया प्रतीत होता है , जिसमें भारत के आर्थिक उन्नति का आधार कृषि और उसमें उपयोगी गौवंश को ठहराया गया, के आधार पर पहला कत्लखाना कलकत्ते में उसी अवधारणा के आलोक में खोला गया | जिसमें प्रतिदिन ३०-३५ हजार जानवरों का कत्ल किया जाता रहा |इस सन्दर्भ में एक तथ्य और काबिले गौर है कि सभी कत्लखाने वहां खोले गये जहाँ -२ अंग्रेजों के सैनिक छावनी स्थित थे, ताकि उन सैनिकों को स्वादिष्ट भोजन के रूप में गौ मांस निर्विघ्न रूप से प्राप्त होता रहे |
आज वर्तमान में सरकारी आंकड़ों के अनुसार सरकारी मान्यताप्राप्त ३६०० कत्लखाने देश भर में चल रहे हैं और गैर-मान्यता प्राप्त तो अलग हैं | एक अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार ७२००० मीट्रिक टन मांस का निर्यात पश्चिमी देशों को किया जा रहा है | उन जानवरों के हड्डियों का उपयोग टूथ पेस्टों में, खून का प्रसाधन – सामग्रियों में और चर्बियों का उपयोग कृत्रिम घी आदि बनाने में धडल्ले से किया जा रहा है | यह कथनी भी शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी कि – “आम के आम और गुठली के भी दाम |” इससे अधिक और आर्थिक लाभ हो भी क्या सकता है ? जहां खून का एक कतरा भी कीमत देकर जाता हो |
गुलाम भारत की बात तो समझी जा सकती है, पर आजाद देश में ऐसी क्रूरतम व्यवस्था समझ से परे दिखती है | उस पे तुर्रा यह कि ऐसे उद्योग को बतौर सरकारी अनुदान एक करोड़ रूपये तक और बिना व्याज के ऋण उपलब्ध कराना किस मानसिकता की और इंगित करता है | इसलिए भी ऐसे उद्योगों में भारी वृद्धि हो रही हो | बेशक, अपरिहार्य बदबू और वायु प्रदूषण से आम जनता का जीना भी दूभर क्यों न होता हो |
ऐसा ही हाल लगभग देश में चीनी उद्योग का भी है जिसमें वायु प्रदूषण से आम जनता त्रस्त है | इतना ही नहीं जिस सल्फर (गंधक) का उपयोग दिवाली और सब्बेबारात में पटाखे और फुलझड़ियों या अत्याधुनिक घातक हथियार बम आदि बनाने में उपयोग किया जाता है, उसका उपयोग चीनी उद्योग में खुलेआम हो रहा है, जो मनुष्य शरीर के लिए कितना घातक हो सकता है इसका उदाहरण मधुमेह जैसे बढ़ते रोगियों की संख्या से स्पष्ट है | इस उद्योग को भी बढावा एक सरकारी नीति के तहत दिया जा रहा है |
ऐसे सारे उद्योगों में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से देश के नीति नियन्ता चाहे किसी भी राजनैतिक दल से हों, जुड़े हैं जिसकी सुरक्षा हेतु शान्ति व्यवस्था के नाम पर प्रशासन तन्त्र अनवरत प्रयासरत रहता है क्योंकि मामला नेताजी से जुड़ा होता है | ऐसे ही एक उद्योग के विरुद्ध बिहार के अररिया जिलान्तर्गत पोठिया में ही नहीं बल्कि पूरे देश में रेल-सडक यातायात को जन-आन्दोलन ने ठप्प किया जा रहा है, तो प्रशासन के हाथ-पाँव फूल जाते हैं | जो उस कत्लखाने की सुरक्षा में जी-जान से प्रयासरत होते हैं |
इस अर्थ लोलुपता की आग में बढती जनसंख्या के तहत वृद्धाश्रमों के वृद्धों की भी हत्याकर व्यापारिक आधार नहीं बनाया जा सकता है ? वैसे तो मनुष्य शरीर के अंगों का जैसे – किडनी, रक्त, आँख आदि का व्यापार तो खुलेआम और छुपेरुस्तम बदस्तूर देश में चल ही रहा है और सत्ता का संरक्षण भी अंग-प्रत्यारोपण के नाम पर प्राप्त ही है | आशंकाएं प्रबल सी दिखती है जब ऐसे कत्लखानों में मानव और मानवता सरेआम कटती रहेंगी और सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों की रोटियाँ भी सिंकती रहेंगी | क्या यही लोकतंत्र है जहाँ लोक कुछ भी नहीं बस आर्थिक लोलुपता ही सर्वश्रेष्ठ है ?
अब समय आ गया है फिर से जनमानस को विवेकपूर्वक विचार करते हुए, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, अलगाववाद और मानवता विरोधी नीतियों के विरुद्ध एकजुट होने का |
— श्याम “स्नेही”