ग़ज़ल
ज़रा सी बात में पूरी कहानी ढूँढ लेती है,
मुहब्बत हो या नफरत इक निशानी ढूँढ लेती है
नज़र कमजोर हो जाए चाहे जितनी बुजुर्गों की,
नए किस्सों में पर बातें पुरानी ढूँढ लेती है
सहलाती है सर मेरा अक्सर रात को आकर,
माँ अँधेरे में भी मेरी पेशानी ढूँढ लेती है
करता है चिरागों की हिफाज़त आँधियों से वो,
मज़लूमों को रहमत आसमानी ढूँढ लेती है
शिद्दत से करो कोशिश तो नामुमकिन नहीं कुछ भी,
चीर कर पत्थरों को प्यास पानी ढूँढ लेती है
— भरत मल्होत्रा।