ग़ज़ल
किसी की आँख का तारा रहा हूँ ।
जमाने में बहुत प्यारा रहा हूँ ।
जमीरों का नही शौदा किया था
ज़रा हालात का मारा रहा हूँ ।
बुझाना चाहता था प्यास सबकी
मगर सागर जरा खारा रहा हूँ ।
दुआए आप की पूरी सभी हो ।
फ़लक से टूटता तारा रहा हूँ ।
बहा कर ले गई रिश्ते सभी जो
नदी की तेज वो धारा रहा हूँ ।
हमारे तेवरों की बात सुन लो
कभी मैं सुर्ख अंगारा रहा हूँ ।
जिसे तुम “धर्म “अपना मानते हो
जमाने भर में आवारा रहा हूँ ।
— धर्म पाण्डेय