संस्मरण

मेरी कहानी 72

बहादर को मिलने की तमन्ना लिए मैं रात को सो गया। दुसरे दिन मैं और डैडी जी ने बस पकड़ी और टाऊन जा पुहंचे। कुछ दूर हमें पैदल चलना पड़ा और हम जा पुहंचे सेंट जॉर्ज्ज़  चर्च के नज़दीक जो बस डैपो के नज़दीक होता था ,इस बस डैपो का नाम होता था क्लीवलैंड रोड डैपो (अब यह डैपो बहुत सालों से बंद हो गिया है) और कुछ सालों बाद यहां ही मैंने कई साल काम किया था। इस चर्च के नज़दीक ही सेंट जॉर्ज्ज़ परेड से एक बस चलती थी नंबर 90 . इस चर्च की जगह में अब बहुत बड़ी फ़ूड सुपर मार्किट सेन्ज़बरी बनी  हुई है. यह बस पकड़ के हम WEST BROMWICH जा पुहंचे ,वहां से हम ने 74 नंबर बस पकड़ी और बर्मिंघम सौहो रोड पर जा पुहंचे। यह एरीआ अब मिनी इंडिया बना हुआ है क्योंकि यहां कोई गोरा मुश्किल से दिखाई पड़ता है और इस रोड के नाम पर ही पंजाबी का एक मशहूर गाना बना हुआ है ,” सौहो रोड उते तैनू लभदा  फिराँ नी मैं कन  विच मुंदराँ पा के ” लेकिन उस वक्त इंडियन कम दिखाई पड़ते थे और गोरे  ज़्यादा होते थे । कुछ दूर जा कर एक रोड थी जिस का नाम था THORNHILL ROAD . इस रोड में जा कर एक घर के दरवाज़े पर डैडी ने दस्तक दी।

कुछ देर बाद बहादर के चाचा जी ने दरवाज़ा खोला। डैडी जी और बहादर के चाचा जी केसर सिंह ने एक दूसरे से हाथ मिलाये। मैंने बहादर के चाचा जी को बहुत वर्षों बाद देखा था ,तब वोह इंडिया में सर पर पगड़ी रखते थे और अब क्लीन शेव थे। हम अंदर चले गए। वोह दोनों दोस्त आपस में बातें करने लगे और केसर सिंह ने मुझे कहा क़ि बहादर ऊपर बैड रूम में है। सीडीआं चढ़ कर मैं ऊपर गिया और एक कमरे के आधे खुले दरवाज़े को कुछ धकेला और अंदर चले गिया। मैंने देखा बहादर बैड पर एक कँवल ओढ़े बैठा था। जैसे ही उसने मुझे देखा , उसका चेहरा खिल गिया , उस का वोह चेहरा अभी तक मुझे याद है। मुझे देखते  ही बोला, ” कसम से गुरमेल तू तो बहुत स्मार्ट लगता है ” . मैं भी मुस्करा उठा और उस के साथ ही बैड पर बैठ गिया। हम ने बहुत बातें कीं, हमारी बातें खत्म होने को नहीं हो रही थीं। डैडी जी और बहादर के चाचा जी नीचे बैठे छोटी छोटी ग्लासिओं में विस्की पी रहे था। हम भी नीचे आ गए थे। यह मकान काफी बड़ा था और इस में और लोग भी रहते थे। यहां मैं यह भी बता दूँ कि बहादर का छोटा भाई हरमिंदर पहले से ही यहां अपने चाचा केसर सिंह के पास रहता था लेकिन उस दिन वोह घर पर नहीं था। कितनी देर हम यहां रहे याद नहीं लेकिन हम ने एक दूसरे को आगे से मिलने का प्रोग्राम बना लिया था।

बहादर और मैं बचपन से  इकठे ही खेले और इकठे ही स्कूल कालज की पढ़ाई की और एक हफ्ते के वक्फे से हम इंगलैंड भी इकठे ही आये थे । यह सफर इतना लम्बा है कि इस उम्र में अब विछुड़ जाना नामुमकिन है। अगर मैं पीछे की ओर झाँक कर देखूं तो यह सफर बहुत ही सुहावना रहा है और अभी भी हमारी जीवन गाड़ी उसी पटरी पर चल रही है और साथ ही इस गाड़ी के नए यात्री। अगर हम दोनों इस गाड़ी के ड्राइवर हैं तो मेरी अर्धांग्नी कुलवंत और बहादर की अर्धांग्नी कमल इस गाड़ी के इंजिन में कोयले डाल कर चलता रखने का काम कर रही हैं। बचपन से ले कर आज तक इतने  दोस्त थे कि सभी एक एक करके  किसी न किसी स्टेशन पर उत्तर गए लेकिन हम बराबर जोर शोर से आगे बड़ रहे हैं. पुराने दोस्त अब बहुत कम  मिलते हैं ,अगर मिलते भी हैं तो उन की आदतें बहुत बदल चुक्की हैं , यह शायद उम्र के बढ़ने से या परिवार के बड़ जाने के कारण हो। समय के साथ  सभी के पारिवारिक मसले भी इस बदलाव का कारण बन जाते हैं लेकिन मैं फखर से कह सकता हूँ कि मैं और बहादर बिलकुल नहीं बदले। जैसे हम जवानी के दिनों में थे तैसे ही अब हैं , इस का कारण है हमारी अर्धांग्निआं जो बिलकुल हमारे जैसी हैं। जब बच्चे छोटे थे तो शायद ही कोई वीकैंड होगा जब हम ना मिले हों। उन दिनों हम ने इतनी मस्ती की कि लिखने के लिए भी बहुत वकत चाहिए। अब मैं तो बाहर जा नहीं सकता लेकिन बहादर और कमल कभी कभी हम से मिल जाते हैं और जब मिलते हैं तो मन का सारा गुबार निकाल लेते हैं। मेरा विचार है कि दोस्ती की कोई परिभाषा नहीं होती ,यह तो बस होती है और इस पर कोई बात नहीं की जाती। मेरा यह भी विचार है कि दोस्त तो एक ही बहुत होता है और जिस का कोई यह एक होता है वोह भागयशाली होता है।

बहादर को मिल के हम ने बस पकड़ ली और वुल्वरहैम्पटन आ गए। अब मैं इंग्लैण्ड की गाड़ी में बैठ गिया था और  सफर शुरू हो गिया था। डैडी जी तो रोज़ काम पर चले जाते और जसवंत भी चले जाता ,इन दोनों की मॉर्निंग शिफ्ट होती थी , सुबह जाते और शाम को घर आते लेकिन गियानी जी की तीन शिफ्तें होने के कारण दो शिफ्टों में दिन के वक्त उन के साथ बातें करने का अवसर मिलता रहता था जिस का मुझे बहुत फायदा हुआ। एक तो मेरा वक्त काट जाता ,दूसरे क्योंकि वोह कुछ ना कुछ पड़ते रहते थे ,इस लिए मेरी भी अखबार रसाले बगैरा  पड़ने में रूचि बड़ गई। कभी कभी मैं वैस्ट पार्क में चले जाता ,यहां इंडियन  पाकिस्तानी लोग बहुत मिलते जो मेरी तरह बेकार होते थे ख़ास कर शनिवार और रविवार को तो मेला लगा रहता था। इस पार्क में नए नए दोस्त बनने लगे। यह पार्क उस वक्त भी बहुत सुन्दर थी और अब भी है लेकिन फर्क यह है कि तब पार्क लोगों से भरी होती थी लेकिन अब वोह बात नहीं रही। अब या तो औरतें और मरद पार्क के गिर्द तेज चलने के लिए जाते हैं या कुछ फूलों को देख कर मन खुश करने के लिए जाते हैं। उस समय तो पूल में लोग बोटिंग करने भी जाया करते थे जो अब नहीं  है। उस समय हर रविवार को पार्क के सेंटर में बने बैंड स्टैंड पर गोरों का बैंड ग्रुप बैंड बजाया करता था और लोग सामने कुर्सिओं पर बैठे मयूजिक का लुतफ उठाया करते थे। पार्क में एक कैफे होता था जो हर वक्त लोगों से भरा होता था। यह कैफे अभी भी है लेकिन अब वोह बात नहीं रही। जगह जगह आइस क्रीम की गाड़ीआं होती थी जिन पर आइस क्रीम लेने वालों की बड़ी बड़ी लाइनें लगी होती थी।

इस पार्क में मेरे बहुत दोस्त बन गए थे और आपस में मशवरा करके सोमवार से शुकरवार तक इकठे हो कर काम ढूंढने जाया  करते थे। हम ट्रेनों में बैठ कर  दूर दूर तक चले जाते और फैक्ट्रियों के गेट पर खड़े सकिोर्टिगार्ड से काम के बारे में पूछते रहते लेकिन काम कहीं भी मिलता नहीं था। कभी कभी सोचता हूँ कि हम काम ढूंढने ऐसे इलाकों में इतनी दूर गए यहां ज़िंदगी में दुबारा कभी भी जाने का इतफ़ाक नहीं हुआ। हंसी भी आती है कि हम बातें करते रहते थे कि गोरे से अंग्रेज़ी किस तरह मुंह टेहड़ा बना कर अंग्रेज़ी बोलनी थी और इस पर हम हंस पड़ते थे। अब बहादर भी बस पकड़ कर मुझे मिलने आ जाता और हम दूर दूर तक चले जाते। एक दफा हम एक छोटे से टाऊन  ओकन गेट चले गए और चाए पीने एक कैफे में चले गए। अंग्रेज़ों के खानों का हमें कोई गियान नहीं था। काउंटर पर लिखा था हौट डौग्ज़  अवेलेबल। बहादर बोला ,” यार यह हौट  डौग किया होगा ?”. मेरे मुंह से निकल गिया “गर्म कुत्ते” . इस पर हम जोर जोर से हंसने लगे और कैफे के गोरे हमारी तरफ देखने लगे। इन कैफे में जाने से हमें अंग्रेज़ों के तरह तरह के सैंडविच को जानने का अवसर मिल गिया था।

एक दफा हम दोनों वुल्वरहैम्पटन इन डोर मार्किट में गए। वहां एक दूकान थी जिस पर केक बिस्किट और ब्रैड बगैरा मिलते थे। एक काफी बड़ा केक था जिस पर लिखा था दो शिलिंग। दरअसल वोह केक दो शिलिंग का एक पाउंड था। हम ने गोरी को कहा ,that cake please. हम ने सोचा था कि इतना बड़ा केक दो शिलिंग का तो बहुत सस्ता था . गोरी ने हमें पुछा ,”whole of it ?”. हम ने कहा ,”yes”. असल में हम दोनों को उन की अंग्रेजी समझ नहीं आई और वोह गोरी केक को स्केल पर तोलने लगी और केक 18 शिलिंग का हुआ .हम को गोरों की अंग्रेजी इतनी आती नहीं  थी ,हम यह भी कहने की जुर्रत नहीं  कर सके कि हम ने केक नहीं लेना था  और हम को सारा केक लेना पड़ा जिस को हम एक हफ्ता खाते रहे . इस बात को याद करके  हम अक्सर हँसते रहते थे . कभी मैं बर्मिंघम चले जाता .इम्प्लोयेमेंट एक्सचेंज से हमें चार पाऊंड हफ्ते के मिलने शुरू हो गए थे . किओंकि चार पाऊंड की कीमत उस वक्त बहुत हुआ करती थी ,इस लिए हम इन पैसों से हफ्ता भर मज़े करते रहते . बर्मिंघम में इंडियन सिनिमे काफी हुआ करते थे जिस में हम फिलम देखने चले जाते थे .

मेरे डैडी जी ने कई लोगों को मेरे लिए काम के बारे में  पूछ रखा था। एक दिन एक आदमी हमारे घर आया और डैडी को बोला ,”साधू सिआं ! मेरी फैक्ट्री में एक वेकेंसी है और गोरे फोरमैन को दस पाउंड देने पड़ेंगे ,अगर तुम चाहते हो तो फोरमैन से बात करूँ “. डैडी ने जौब के लिए उस को बोल दिया कि वोह जौब  हासल करवा दे। कुछ दिनों बाद वोह फिर आया और बोला कि जौब रातों की है और गुरमेल सोमवार को ब्लैकली ग्रीन में मैक्रोम रोड पर सी ई मार्शल फैक्ट्री पर खड़े सकिोर्टिगार्ड को बता दे ,वोह रख लेगा। उस वक्त दस पाउंड बहुत होते थे। अपने आदमी जिन की दोस्ती गोरे फोरमैनों से होती थी अपने लोगों को काम पर लगा देते थे और आधे पैसे खुद रख के आधे फोरमैन को दे देते थे। इंडिया की बुरी बातें हम ने गोरों को सिखानी शुरू कर दी थी यानी घूस देना शुरू हो गिया था। सोमवार रात को एक और इंडियन के साथ मैं फैक्ट्री में जा पौहंचा। सेक्योरिटी गार्ड को मैंने अपना नाम बताया। उसने मेरा नाम पता और इंशोरेंस नंबर पुछा जो मैं कुछ दिन पहले इंशोरेंस ऑफिस से गियानी जी के साथ जा कर लाया था। फ़ार्म भरने के बाद वोह मुझे भीतर काम पर छोड़ गिया।

एक बड़े हाल कमरे में बहुत सी मशीने थीं। इन मशीनो से कारों के बने पुर्ज़ों को पालिश किया जाता था। पहले दो हफ्ते मुझे ट्रेनिंग दी जानी थी। एक काफी बड़ी मशीन मुझे दी गई जिस पर बहुत बड़ा वील तेज़ी से घूम रहा था. इस घुमते हुए वील के साथ किसी पुर्ज़े को जब घिसाया जाता था तो वोह चमकने लगता था लेकिन पुर्ज़ा इतना गर्म हो जाता था की हाथों की उन्ग्लिआं सड़ने लगती थीं। यों तो हाथों पर चमड़े  के दस्ताने होते थे लेकिन इस के पहने होने पर भी हाथों और उंगलिओं पर छाले पड़  जाते थे. देखने में यह काम जितना आसान लगता था ,करने में उतना ही मुश्किल था। पुर्ज़े को कम घिसते तो सही नहीं होता था ,ज़्यादा घिसते तो पुर्ज़ा बेकार हो जाता था। दो हफ्ते तो मुझे दस पाउंड हफ्ते के हिसाब से पैसे मिलते रहे लेकिन तीसरे हफ्ते मेरा पीस वर्क काम था ,यानी जितने पुर्ज़े मैं पॉलिश करूँ ,उतने ही पैसे मिलने थे। तीसरे हफ्ते मुझे सिर्फ चार पाउंड मिले। जब मैं घर आया तो मैं बहुत उदास था कि चार पाउंड तो मुझे एम्प्लॉयमेंट ऑफिस से मिलते थे।

जल्दी ही हमें इस बात का पता भी चल गिया कि फैक्ट्री में भी हेराफेरी होती थी। सही पुर्ज़ों को बेकार कह कर कम पैसे दे देते थे और वर्कर खुद ही काम छोड़ कर चले जाता था और उस की जगह दूसरा वर्कर ले लिया जाता था ,जिस से  वोह इंडियन और गोरा फोरमैन फिर दस पाउंड कमा  लेते थे। डैडी जी उसी वक्त हमारे गाँव के एक और आदमी के घर गए और उस को सारी बात बताई। इस शख्स का नाम था सुचा सिंह जो सिंघा पर से आया हुआ था। यह आदमी बहुत अच्छा था और गाँव में हमारे मुहल्ले का ही रहने वाला था और इस के साथ हमारे तौलकात शुरू से ही बहुत अच्छे रहे हैं ( कुछ साल हुए सुच्चा सिंह यह संसार छोड़ चुक्का है )। सुचा सिंह बोला कि वोह अपनी फाऊंडरी के गोरे फोरमैन आरी के घर जाएगा और उस से बात करेगा।

सी ई मार्शल से मैंने काम छोड़ दिया था और घर पर ही रहता था। एक दिन सुच्चा सिंह आया और बोला कि काम बन गिया था और यह काम भी रात का था , रात  9  वजे से लेकर सुबह 7 वजे तक यानी दस  घंटे की शिफ्ट थी। उस समय हर फैक्ट्री में अपने कुछ लोग गोरे फ़ोरमैनों  को हाथ में रखते थे और यह लोग अपने लोगों की मदद कर देते थे। यह लोग अक्सर अपने लोगों में प्रसिद्ध हुआ करते थे। अगर किसी को काम की जरुरत होती तो अक्सर लोग यह ही कहते “सुच्चा सिंह को मिलो भाई ,वोह काम पर लगा देगा ” सुच्चा सिंह जैसे लोग तकरीबन हर जगह होते थे लेकिन सुचा सिंह बहुत ही नेक इंसान था ,बिलकुल अनपढ़ था  लेकिन उस ने इतने लोगों का भला किया कि सोच कर ही हैरानी होती है कि बिलकुल अनपढ़ होने के बावजूद उस ने इतने काम कर दिए। जिस दिन मैंने काम पर जाना था ,उस दिन मैं सुच्चा सिंह के कहने के मुताबक वेड्नेस्फील्ड के छोटे से इलाके के एक पब्ब के नज़दीक पौहंच गिया।

सुच्चा सिंह मेरा इंतज़ार कर रहा था। सुच्चा सिंह मुझ को बोला ,” गुरमेल! इस पब्ब में गोरा फोरमैन रोज़ रात को काम पर जाने से पहले बियर पीने आता है। वोह बिटर बियर ही पीता  है ,तू काउंटर से बिटर बियर का ग्लास ले कर फोरमैन के आगे रख देना ,मैं तुझे बता दूंगा कि कौन गोरा फोरमैन है “. इस के बाद हम पब्ब के अंदर चले गए ,सुच्चा सिंह ने अंदर जाते ही गोरे को हैलो बोला और उस के साथ टूटी फूटी अंग्रेजी में बातें करने लगा जिस से मैं समझ गिया कि इस के आगे ही ग्लास रखना है। मैं ने काउंटर से बियर का ग्लास लिया और फोरमैन के आगे रख दिया। फोरमैन ने जल्दी ही ग्लास खत्म कर दिया और सुच्चा सिंह के इशारे से पब्ब के बाहर आने लगा। टॉयलेट बाहर थी उस के नज़दीक हम खड़े हो गए । जब हम बाहर आये तो सुच्चा सिंह अपनी पंजाबी अंग्रेजी में गोरे को बोला ,” आरी ! ही स्कूल,  ही नीऊ, गुड वरका, स्ट्रौंग बोई, नो कार्ड, नो सैक”( आरी ! यह स्कूल से पड़ कर आया है, अभी नया है, अच्छा काम करने वाला है, लड़का तगड़ा है, इस को काम से जवाब नहीं देना), इस के बाद सुच्चा सिंह ने गोरे को पांच पाउंड पकड़ा दिए। गोरे ने थैंक्स कहा और हम फाऊंडरी की ओर चलने  लगे।

चलता …

 

2 thoughts on “मेरी कहानी 72

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। आज की क़िस्त में वर्णित जानकारी रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। उन दिनों गोरे भारतियों का काम कराने के लिए विभिन्न तरीकों से रिस्वत ले लेते थे, इस बात ने कुछ अवश्य हैरान किया क्योंकि मुझे लगता था कि शायद वह पूरे ईमानदार होंगे। बहादर के मिलने और उंसकी पक्की दोस्ती का हालचाल पढ़कर ख़ुशी हुई। यदि उन दिनों का आपका कोई फोटो हो तो पोस्ट में लगाएं जिससे आपके उन दिनों के धर्षण हो सकेंगे। आज की रोचक क़िस्त व जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद . यह घूसखोरी सिर्फ फैक्ट्रीओं तक ही सीमत थी ,वर्ना ज़िआदा नहीं था , बस उन दिनों हालात ही ऐसे थे ,अब वोह बात नहीं रही .

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