ग़ज़ल
ये गरज़ की रिश्तेदारियां मेरे शहर की रस्म-ए-आम है,
मुफलिसों की कदर नहीं यहां तवंगरों को सलाम है
खंजर है हर आस्तीन में और हर निगाह में फरेब है,
कोई किसी का नहीं रहा ये मुकाम कैसा मुकाम है
ये उलझनें, ये भाग-दौड़, ये मेहनतें, ये परेशानियां,
है सब चार दिन की बात फिर आराम ही आराम है
पूछा ना कर मेरा हाल तू आँखों में आँखें डाल कर,
तुझको खबर तो है मेरे मजहब में पीना हराम है
तू साथ अपने ले गया सब रौनकें, सब मस्तियां,
बेरंग हर सुबह है अब गमगीन सी हर शाम है
हद से ज्यादा मिठास उस पर दाद हर इक बात पर,
ये लहजा बता रहा है तुझे मुझसे कोई काम है
— भरत मल्होत्रा
मल्होत्रा जी , ग़ज़ल तो बस कमाल है .
खंजर है हर आस्तीन में और हर निगाह में फरेब है,
कोई किसी का नहीं रहा ये मुकाम कैसा मुकाम है वाह किया लफ्ज़ हैं .