राजनीति

देश विभाजन और अराजकता का षड्यंत्र : आरक्षण आन्दोलन

गुजरात में आरक्षण आन्दोलन और इसके नौजवान नेता हाएदिक पटेल की गिरफ्तारी साथ ही उस परिपेक्ष्य में नेट सेवा पर प्रतिबन्ध | कोई मामूली घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए | शांत और समृद्ध प्रदेश का आरक्षण के आग में धू-धू कर जलना किसी सोची-समझी गयी रणनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा तो नहीं ? बाहरी तौर पर बेशक ये आन्दोलन कुर्सी और सत्ता में भागीदारी हेतु एक राजनीतिक षड्यंत्र लगता हो मगर, ऐसे आंदोलनों को विदेशी सहायता और देश को अस्थिर करने के नजरिये से भी देखना लाजमी हो जाता है | एक ओर जहाँ भारत का पूर्वोत्तर जल रहा है वहीं दूसरी ओर पश्चिम में कश्मीर | और अब पाकिस्तनी सीमा से सटा राज्य गुजरात |

भारत को अस्थिर और टुकड़ों में बांटने की योजना तो आजादी के पूर्व ही बन चुकी थी, जिसकी काली छाया के रूप में माउंटवेटन द्वारा राजे-रजवारों को दिए गये स्वैच्छिक निर्णय के आधिकार के रूप में सामने आया | पर, तत्कालीन गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल इस कुचाल को कुचलते हुए देश को एक रखने में कामयाब रहे | ऐसा भी नहीं है कि विरोधी विदेशी षड्यंत्रकारी शक्तियाँ हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं | वे तो अनवरत और अथक रूप से प्रयासरत हैं | चाहे वे विकास के आड़ में ही क्यों न चलाई जा रही हो | और इसी षड्यंत्र को हवा देने का काम हमारे स्वार्थलोलुप तथाकथित सत्ताधीशों द्वारा बखूबी अंजाम दिया जाता रहा है | कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी विकास के नाम पर |

आजादी के दो-तीन वर्षों बाद से ही विकास के नाम पर विदेशी कर्ज का लेना आरम्भ हो चुका था | जिसकी पहली शर्त रूपये का अवमूल्यन किया जाता रहा | आज रूपये की स्थिति यहाँ तक गिर चुकी है कि आजादी के जितने साल लगभग उतने ही एक डालर के मुकाबले रुपया | और हमारे नेता विकास का झुनझुना बजाते हुए अपना निजी विकास करते रहे |

देश के इतिहास में ऐसा समय भी आया जब शासन व्यवस्था चलाने के लिए भी सरकारी खजाना ही खाली पाया गया और देश को सोना तक गिरवीं रखना पड़ा | बाद की सरकारों ने सोना तो जरुर वापस देश में ला दिया मगर, देश को गेट समझौते के तहत गिरवीं रखकर | जिस स्वाभिमान के तहत लालबहादुर शास्त्री ने अमेरिकी गेहूं का निर्यात बंद किया था, उस स्वाभिमान को भी भुला दिया तत्कालीन सरकारों ने | सिर्फ विदेशी आकाओं को खुश करने एवं निजी अर्थव्यवस्था को मात्र सुधारने के लिए |

पिछले ही दिनों महागठ्बन्धन की रैली में समाजवादी पार्टी के ओर से बोलते हुए एक वरिष्ठ नेता ने कहा- आज देश के बजट का २१% केवल विदेशी कर्ज का व्याज चुकाने में चला जाता है | जबकि मूल कर्ज तो शेष ही रह जाता है | ऐसी परिस्थिति में और भ्रष्टाचार में लिप्त प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने हेतु सरकारें कर का बोझ आम जनता पर डालती जा रही है | स्वभाविक है जनाक्रोश तो उभरेगा ही उभरेगा, कभी महंगाई के नाम पर, कभी जाति के नाम पर तो कभी सम्प्रदाय के नाम पर | जिसका लाभ विदेशी षड्यंत्रकारी शक्तियाँ उठाकर स्वैच्छिक संगठनों को वित्तीय सहायता देते हुए माध्यम बनाकर या फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित करके | देश को अस्थिर करने से बाज नहीं आनेवाली | क्योकि अस्थिरता में ही उन्हें भरपूर लाभ कमाने और आर्थिक दोहन का सुअवसर जो प्राप्त होता है | आम जनता इन्हीं मुद्दों में उलझकर रह जाती है और सरकारे भी अपनी गोटी लाल करने में |

ऐसे आन्दोलन सिर्फ गुजरात में ही नहीं बल्कि देश के कई भागों में विभिन्न नामों से प्रायोजित किये जा रहे हैं | ऐसे आंदोलनों से आमजन की परेशानी तो बढती ही बढती है मगर, आन्दोलन के नम्बरदारों में सत्तालोलुपता कहीं अधिक दिखती है | जिसका जीता – जागता उदाहरण देश की राजधानी ही है | जहां लोकपाल के नाम पर सत्ता हथियाने का खेल ब-खूबी खेला गया अंतत: क्या मिला आम जनता को | सिवाय वही सड़ी – गली शासन व्यवस्था | इस तरह का खेल यू० पी० बिहार के अलावे और भी कई राज्यों में चल रहे हैं | जहां सिद्धांत की नहीं सत्ता की लड़ाई है | एक देहाती कहावत है – “रोने का मन तो आँख में चुभी खूंटी” एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के सिवाय |

अब तो बात आर्थिक हमले से भी आगे सांस्कृतिक हमले विकास के ओट में किये जा रहे है | जिसका मुख्य माध्यम टी० वी० और अंतर्जाल (नेट) बन चुका है | आज जितने भी प्रचार माध्यम है चाहे इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या फिर प्रिंट मीडिया अश्लीलता के अलावे और क्या बाँट रहे हैं ? जिसमें देश के करोड़ो युवा बुरी तरह फंसकर अपनी संस्कृति और भाषा तक को भुलाते जा रहे हैं | जिसका दुष्परिणाम आये दिनों सडकों और न्यायलयों में बढ़ते मुकदमें का बोझ के रूप में देखा जा सकता है | असहिष्णुता और बेरोजगारी का बढ़ता दबाब मानसिक रूप से समाज के सभी वर्गों को आत्महत्या के गर्त में धकेलती जा रही है |

ये सारी व्यवस्था एक सोची समझी रणनीति के तहत चलाई जा रही है जिसे देश के सभी वर्गों को समझने की जरूरत है | साथ ही देश को जरूरत है ऐसे आंदोलनों से सख्ती से निबटने के साथ ही इनके नेपथ्य में चल रहे चाल को नाकाम करने की न कि तुष्टिकरण की |

— श्याम “स्नेही” शास्त्री

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल[email protected]