संस्मरण

मेरी कहानी – 73

पब्ब से निकल कर हम तीनों मैं सुच्चा सिंह और गोरा फोरमैन फाऊंडरी की तरफ जाने लगे । फाऊंडरी पौहंच कर जब गेट के भीतर हम दाखल हुए तो गेट पर ही एक ऑफिस था। पहले यहां मेरे सारे डीटेल्ज़ लिए गए और आगे चल पड़े। बहुत खुली जगह थी और जगह जगह बड़े बड़े पुर्ज़े पड़े थे जैसे किसी रेलवे इंजिन के या बड़ी बड़ी मशीनों के हों। एक और बड़े दरवाज़े से हम अंदर गए और मुझे देख कर बहुत अजीब सा लगा क्योंकि ज़िंदगी में ऐसी फैक्ट्री मैंने कभी देखी ही नहीं थी। अँगरेज़, इटैलियन, पोलिश ,इंडियन और ज्मेकन लोग काम कर रहे थे। ऊपर एक बहुत बड़ी करेंन थी ,जिस को एक गोरा फैक्ट्री के कभी एक तरफ ले जाता कभी दूसरी तरफ। करेन को एक संगल लगा हुआ था जिस के साथ नीचे के सिरे पर एक हुक्क़ लगी हुई थी जिस को बड़े बड़े पुर्ज़ों के साथ फंसा कर उन पुर्ज़ों को दूर ले जाया जाता था। सभी लोगों के गले में चमड़े के ऐप्रन डाले हुए थे और हाथों पर चमड़े के गल्लव यांनी दस्ताने थे जिस से उन के शरीर की हिफाज़त होती थी और किसी किसम की चोट से बचाव हो जाता था।

फोरमैन मुझे वहां छोड़ कर चले गिया और जाते हुए दूसरे वर्कर्ज को बता गिया कि मुझे किया काम करना था। मेरा चेहरा देख कर अपने सारे इंडियन भाई समझ गए कि मैं नया नया स्कूल से पड़ कर आया हूँ। सभी मेरे नज़दीक आ गए और कहने लगे ,” बोई फ़िक्र ना कर ,कुछ दिन धीरे धीरे काम करना ,हम तेरी मदद करेंगे और इधर देख ,यह साला इंडिया में थानेदार होता था ,लोगों को पीटता था ,अब इस की थानेदारी यहां निकल रही है “, और सभी हंस रहे थे। और इधर देख बोई ,” यह साला इंडिया के किसी स्कूल में पढ़ाया करता था ,शायद गधों को पढ़ाता होगा , और अब यहां इस फाऊंडरी में डिग्री कर रहा है “, उन की ऐसी बातों से मुझे अपनापन महसूस होने लगा। काम बहुत भारी था और गंदा भी बहुत था लेकिन एक तो मैं जवान था ,दूसरे मैंने खेतों में काम किया हुआ था ,इस लिए मैं जल्दी ही सब सीख गिया। उन सब के बराबर मैं काम करने लगा लेकिन वोह सभी मुझे बार बार कह रहे थे ,” बोई ! धीरे धीरे कर ,हम सब संभाल लेंगे “. काम करते हुए चार घंटे पता ही नहीं चला कि कब हो गए और फैक्ट्री का सायरन बज गिया , खाने पीने का वक्त हो गिया था।

सभी अपनी अपनी चाय की फ्लास्क में से कपों में चाय डालने लगे और साथ में कुछ खाने भी लगे। मैं कुछ नहीं लाया था क्योंकि मुझे पता ही नहीं था। सभी मुझे कुछ न कुछ देने लगे और एक कप में मुझे चाय भी डाल कर दी। खाते खाते बातें भी कर रहे थे। थानेदार मुझे पूछने लगा कि मैं किया पड़ कर आया था। फिर वोह अपने बारे में बताने लगा कि वोह थानेदार था लेकिन इंगलैंड आने के लिए इतनी अच्छी नौकरी छोड़ दी थी। इंगलैंड के लालच में इतनी अच्छी सर्विस खराब कर ली थी लेकिन अब तो वापस जाया नहीं जा सकता था। फिर वोह मुझे कहने लगा ,” बोई अब तू कुछ आराम कर ले “, इस के बाद वोह नीचे ही लेट गिया और दूसरे भाईओं की तरह मैं भी नीचे ही लेट गिया। सायरन दो वजे फिर बज गिया और सभी उठ कर काम पर लग गए। जब भी वोह एक दूसरे को बुलाते गंदी गाली निकाल कर ही बोलते लेकिन उन की गंदी ग़ालिओं में बहुत मुहब्बत थी ,एक अपनापन था ,सभी भाई भाई थे। वोह मुहब्बत अब बहुत कम हो गई है। सारी रात मैं नए दोस्तों के साथ काम करता रहा और पता ही नहीं चला कब सात बज गए। सायरन की आवाज़ के साथ ही हम सब अपने कपडे ठीक करने लगे और बाहर आ कर हर एक ने अपना क्लॉक कार्ड पंच किया जिस पर काम शुरू और खत्म करने का टाइम प्रिंट हो जाता था।

फाऊंडरी से बाहर निकल कर हम बस स्टॉप की और चल पड़े जो नज़दीक ही था। 59 नंबर बस जो वुल्वरहैम्पटन से वैडनसफील्ड को जाती थी ,उस में बैठ कर टाऊन आ गए और टाऊन से एक और बस पकड़ कर घर आ गए। जब मैं घर के नज़दीक आया तो जसवंत काम पर जाने के लिए घर से अभी निकला ही था। मेरी ओर देख कर बहुत जोर से हंस पड़ा । फिर कहने लगा ,” ओए गुरमेल अपना मुंह तो धो लेता ,शीशे में जा कर देख और तू इसी तरह बस में भी आ गिया ” . जसवंत चले गिया और जब अंदर जा कर मैं शीशे के सामने खड़ा हुआ तो हैरान हो गिया कि मेरा मुंह एक दम काला था जैसे मैं कोयले की कान में से निकल कर आया हूँ , मुझे अपने आप में बहुत शर्म आई कि मैं इतनी देर बस में बैठ कर ऐसे ही आ गिया था। जल्दी से मैंने किचन में जा कर साबन से मुंह धोया ,कपडे बदले और कुछ खाने के लिए देखा। डैडी जी मेरे लिए पराठे बना कर रख गए थे। मैंने चाय बनाई ,सब्ज़ी के साथ पराठे खाए और कुछ देर आराम करके बैड में घुस गिया। कहते हैं ,सख्त काम करने वालों को काटों पे भी नींद आ जाती है। जल्दी ही मैं नींद की आगोश में चले गिया।

मैं ऐसा सोया कि मुझे पता ही नहीं चला कब शाम हो गई और डैडी जी और जसवंत काम से वापस भी आ गए थे। आते ही डैडी जी ने मुझे जगाया और बोले ,” ओ गुरमेल तू ने काम पर नहीं जाना ?”. आँखें मलते हुए मैंने डैडी की ओर देखा। जब मैं बैड् से उठने लगा तो मेरा सारा शरीर अकड़ गिया था और हड्डी हड्डी दर्द कर रही थी। रात को काम करते वक्त तो महसूस नहीं हुआ लेकिन अब उठा ही जा नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से मैं उठा लेकिन मैंने किसी को भी नहीं बताया कि मेरा सारा शरीर दर्द कर रहा था। मैंने मुस्करा कर कहा कि मुझे पता ही नहीं चला। मैं जसवंत और गियानी जी को भी बताना नहीं चाहता था कि मेरा अंग अंग दर्द कर रहा था। डैडी जी ने रोटी बनाई और हम ने बैठ कर खाई। जब मुझे काम के बारे में पुछा तो कह दिया कि ठीक ठाक ही था। कुछ देर बाद सभी को घर में छोड़ सैंडविच और चाय की थर्मोस ले कर मैं दूसरी रात के लिए चल पड़ा। उस समय गाड़ियां किसी के पास नहीं होती थीं ,बहुत कम लोगों के पास थीं। बस सर्विस इतनी थी कि पांच दस मिनट बाद बस आ जाती थी. जल्दी ही मैं काम पर पौहंच गिया।

थानेदार मुझे देख कर हंस पड़ा और बोला ,” बोई ! तू पास हो गिया , आज से पहले जितने तेरे जैसे लड़के आये ,एक रात काम करके वापस नहीं आये क्योंकि इस फाऊंडरी को बुचड़ फाऊंडरी बोलते हैं क्योंकि काम बहुत भारी और गंदा है ” मैंने हंस कर कहा ,अंकल ! ” सिंह कभी डरता नहीं है ,अब यहां ही डट जाऊँगा “. दूसरी रात भी काम किया और घर जाने से पहले सिंक पर हाथ मुंह धोये और घर आ गिया। अब काम का रूटीन बन गिया था और काम पे रोज़ जाने लगा। फिर भी था तो नया नया ही ,बहुत बातों का मुझे पता नहीं था। ब्रेक टाइम में सभी खा पी कर सो जाते थे। बचपन से आज तक मेरी नींद बहुत अच्छी रही है लेकिन जब मैं ब्रेक टाइम में सो जाता था तो मेरे साथी कभी कभी मुझे जगा दिया करते थे . अभी मैंने तीन हफ्ते ही काम किया था कि एक दिन फोरमैन ने आ कर मुझे जगाया और मुझे कहा कि मैनेजर दो दफा आ कर तुझे ब्रेक टाइम के बाद सोते हुए देख गिया है ,इस लिए तुझे काम से जवाब है और उस ने एक हफ्ते का नोटिस मुझे पकड़ा दिया। मैंने नोटिस पड़ा और हैरान हो गिया। मुझे आज तक यह मालूम नहीं हो सका कि मेरे साथी लोगों ने मुझे जान बूझ कर नहीं उठाया था या किया कारण था।

घर आ कर मैंने डैडी को बताया ,वोह भी हैरान हो गए। उसी वक्त डैडी जी सुच्चा सिंह के घर की ओर चल पड़े। जा कर सब कुछ बताया। सुच्चा सिंह क्योंकि दिन की शिफ्ट करता था ,इस लिए उस को कुछ भी पता नहीं था। सुच्चा सिंह ने भरोसा दिलाया कि वोह सब कुछ करेगा।
नोटिस का समय खत्म होने पर मुझे सारे पैसे और मेरा कार्ड मुझे दे दिया गिया और मैं घर आ गिया। अब मैं बहुत उदास हो गिया। शाम को सभी घर आ गए और बातें होने लगीं। मैं सारे दिन का इतना उदास था कि मैं फूट फूट कर रोने लगा और डैडी जी को कहा कि मैं वापस इंडिया चला जाऊँगा। डैडी जी ने मुझे अपनी ओर खींच लिया और बोले ,” तू घबराता क्यों हैं ,मैं जो हूँ ,बोल तुझे कितने पैसे चाहिए , नहीं काम मिलता तो कभी न कभी तो मिलेगा ही ,इतनी जल्दी किया है ” गियानी जी भी मुझे नसीहतें देने लगे और जसवंत तो मुझे उठा कर बाहर ले गिया और बोला ,” गुरमेल ! मुझे तीन महीने काम मिला ही नहीं था ,ऐसा तो हर किसी के साथ होता ही रहता है ,तू घबरा ना ,मैं भी अपनी फैक्ट्री में कोशिश करूँगा” और वोह मुझे पब्ब में ले गिया। दो दो ग्लास बियर के हम ने पिए। मन कुछ शांत हुआ और हम घर आ गए।

दूसरे दिन मैं अकेला ही बाहर गिया और मेरे जैसे और लड़कों के साथ मैं काम ढूंढने के लिए चल पड़ा। वुल्वरहैम्पटन में एक फाऊंडरी होती थी जिस का नाम था कौल कास्ट। इस का मैनेजर एक टांग से लंगड़ा था और पंजाबी उस को लंगा कहते थे , सुना था इस की टांग वर्ल्ड वार के दौरान एक लड़ाई के दौरान कट गई थी। यह इंडिया रह चुक्का था। जब हम गेट पे गए तो हमारे जाते ही बोला ” जाओ ,नो वेकेंसी”। इस के बारे में यह मशहूर था कि जब यह किसी को काम पे रखता था तो पहले यह देखता था कि उस के मसल कैसे थे, अपने हाथों से मस्सल देखता था । खुद वोह बहुत तगड़ा था। इस फाऊंडरी में काम बहुत ही भारी होते थे लेकिन पैसे भी बहुत होते थे ,इस लिए सभी की कोशिश यही होती थी कि यहां काम मिल जाए। यहां भी हमारे कुछ लोग लंगे से मिले हुए थे और पैसे ले कर काम पर रख लेते थे। फिर हम सभी गुड यीअर फैक्ट्री की ओर चल पड़े जो स्टैफोर्ड रोड पर होती थी और इस में कई हज़ार लोग काम करते थे। इसी फैक्ट्री में ही गियानी जी भी काम करते थे लेकिन इस में काम बहुत मुश्किल मिलता था। अब तो बहुत साल पहले यह फैक्ट्री बंद हो कर यहां नए नए घर बन गए हैं।

जब हम गुडईयर में गए तो एक बड़े से ऑफिस में हमें बिठा दिया गिया। कुर्सिओं पर बैठे बैठे ही हमें फ़ार्म दे दिए गए और हम को इसे भरने के लिए कहा गिया था। हम ने फ़ार्म भर के मैनेजर को दे दिए। मैनेजर बोला ,” अगर आप की ऐप्लिकेशन कामयाब हुई तो हम आप को घर लैटर डाल देंगे ” . इस के बाद हम सभी बाहर आ गए। कुछ दिन बाद मुझे गुडईयर से लैटर आया। लिखा था ,” हमें अफ़सोस है कि इस वक्त यहां कोई काम नहीं है ,अगर कोई काम हुआ तो आप को सूचित कर दिया जाएगा “. ऐसे खतों का मैं अब आदी हो चुक्का था और मैंने तुरंत इसे फाड़ कर फैंक दिया।

उधर सुच्चा सिंह का भी जोर लगा हुआ था। एक दिन घर आया और डैडी जी को अपने साथ ले गिया। दोनों दिन की ड्यूटी वाले फोरमैन के घर गए। उस से बात की ,उसके दो बच्चों को पांच पांच पाउंड दिए और मुझे दिन का काम उसी फाऊंडरी में मिल गिया यहां से मुझे काम से जवाब मिला था। इस का फायदा मुझे यह भी हो गिया कि सुच्चा सिंह का काम मुझ से पांच शै गज़ की दूरी पर ही था। सोमवार को पहले दिन मैं जब घर से चला तो जसवंत भी मेरे साथ ही था क्योंकि उस की फैक्ट्री स्पीयर ऐंड जैक्सन मेरे काम से एक दो फर्लांग की दूरी पर ही थी । अब मेरा काम कोई मुश्किल नहीं था। मैं पहले बता चुक्का हूँ कि इस फाऊंडरी में बड़े बड़े पुर्ज़ बनते थे। इन पुर्ज़ों पे जो फज़ूल लोहा लगा होता था ,उस को एक गोरा ऐस्टलीन कटर के फ्लेम से काटता और मैं उस पुर्ज़े को एक बोगी जो एक बड़ी बाल्टी जैसी होती थी उस में डाल देता और स्क्रैप को ऐक दूसरी बोगी में। अब काम रेगुलर हो गिया और काम खत्म होने पर मैं और जसवंत इकठे घर आ जाते क्योंकि जसवंत मेरी फैक्ट्री के गेट पर मेरा इंतज़ार करता रहता था।

काम तो ठीक हो गिया लेकिन एक मुसीबत और थी कि उस समय 21 साल उम्र से कम वर्कर को आधी तन्खुआह मिलती थी और मैं अभी साढ़े उनींस साल का भी नहीं था। यह बेइंसाफी मैं 21 साल की उम्र होने तक झेलता रहा। सात महीने मैं इसी काम पर लगा रहा और मुझे आठ नौ पाउंड हफ्ते के मिलते जब कि दूसरे साथी मुझ से ज़्यादा कमाते। जिस फोरमैन ने मुझे काम पर रखा था उस ने मेरी मदद इस तरह की कि मेरी जॉब बदल दी और मुझे पुर्ज़े ग्राइंड करने वाली मशीन पे लगा दिया। यह काम काफी मुश्किल था। एक बहुत बड़ी मशीन थी जिस में दो फ़ीट विआस चार इंच चौड़ा पथर का वील बहुत तेज़ गति से घूमता था. जमींन पर पड़े पुर्ज़े को उठा कर ,उस का फ़ालतू लोहे का स्क्रैप साफ़ करने के लिए इस वील से घिसाया जाता था जिस से चंगाड़े निकलते थे। सेफ्टी के लिए आँखों पर शीशे के गौगल्ज़ पहने होते थे लेकिन फिर भी कभी कोई लोहे का किनका आँख में पड़ जाता था और बहुत दफा हमें नर्स के पास जाना पड़ता था जिस की सर्जरी फैक्ट्री में नज़दीक ही थी। कई दफा तो ऐसा होता था कि नर्स से निकलता ही नहीं था और हमें आँखों के हस्पताल आई इन्फर्मरी जो चैपलैश में होती थी ,जाना पड़ता था और वोह लोहे का किनका निकाल कर आँख पे पट्टी बांध देते थे। दूसरे दिन हम फिर काम करने लग जाते थे। ज़्यादा तर तो हम खुद ही इतने एक्सपर्ट हो गए थे कि माचस की तीली को वील से तीखा करके साथी की आँख को अंगूठे और ऊँगली से चौड़ी करके धीरे से किनका निकाल देते थे।

एक दफा तो ऐसा हुआ कि मैं इंडिया आया हुआ था और मैं और मेरा छोटा भाई शहर जा रहे थे। छोटे भाई की आँख में कुछ पड़ गिया जो निकल नहीं रहा था और आँख लाल हो गई थी ,पानी बह रहा था। मैंने जमींन पर पडी एक तीली उठाई ,उस को नाख़ून से तीखा किया और कहा , ” ले मैं निकाल देता हूँ ” छोटा भाई काँप गिया और नाह नाह करने लगा। मैंने कहा ,तू ज़रा खड़ा हो जा और मैंने एक दम तीली से वोह किनका निकाल दिया और भाई को चैन आ गिया। फिर मैंने उस को अपनी ट्रेनिंग के बारे में बताया तो वोह हंस पड़ा। यह काम मुश्किल तो था लेकिन वक्त के साथ सभ कुछ सीख गिया और अब नए लोगों को भी ट्रेनिंग देने लग गिया था। तन्खुआह तो अभी भी आधी थी लेकिन इस काम के कारण कुछ बड़ गई थी। मैं और जसवंत का साथ भी मज़ेदार हो गिया था। पांच दिन काम करते और शनिवार को हम पब्ब में जाते जो हमारे लोगों से भरे हुए होते थे क्योंकि हमारे लोग कुछ ख़ास पब्बों में ही जाते थे। इस का कारण यह था कि बहुत पब्बों में हमारे साथ वितकरा किया जाता था और गोरे ही वहां जाते थे। दिनबदिन मैं इंगलैंड की ज़िंदगी में जज़्ब होने लगा था।

चलता . . . . .

5 thoughts on “मेरी कहानी – 73

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    संघर्ष जो सहर्ष स्वीकारता है सोना उसी को नसीब होता है

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते महोदय। क़िस्त पूरी पढ़ी। आपने अपनी आत्मकथा को शब्द देकर उसे सजीव व रोचक बना दिया है। आपने जो कठोर परिश्रम किया उसे पढ़कर आपके हालातो को जानकार आपसे सहानुभूति उत्पन्न हुई। यहाँ हम लोग विदेश गए लोगो के बारे में सोचते है कि वह वहां मजे करते हैं। कल्पना और सच्चाई में बड़ा अंतर होता है। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद . अभी कुछ मिनट पहले ही मेरे दोस्त बहादर का टेलीफून आया था ,वोह यह एपिसोड पड़ कर हटा था . हम वोह पुराने दिन की यादें ताज़ा करने लगे थे .एक बात और भी है मनमोहन भाई ,कि आज तक यह कडवा सच किसी ने नहीं लिखा ,यहाँ तक हो सके मैं कोई भी बात छोडना नहीं चाहता . बहुत सख्त मिहनत की थी हम ने और आगे की पीड़ी के लिए हम ने आसान कर दिया है . हम भी जब इंडिया में होते थे तो बाहर से आये लोगों के कपडे और कलाई पर कीमती घड़ी देख कर सोचते थे कि कितने भाग्यवान हैं यह लोग ,लेकिन यहाँ आ कर देखा तो बात बिलकुल इलग्ग थी .

      • Man Mohan Kumar Arya

        यह पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई कि श्री बहादर जी ने भी इस क़िस्त को पढ़ा। इससे पहले की सभी किस्तें उन्होंने अवश्य ही पढ़ी होंगी, इसमें संदेह नहीं। हम शुरू से ही यह मानतें रहें है कि विदेश में काम के समय में सभी लोग जम कर काम करते हैं। यहाँ की तरह नहीं कि ऑफिस पहुंचे, कुछ काम किये फिर १५ मिनट का टी ब्रेक हुआ तो १५ मिनट पहले निकल गए, उसके बाद आधा घंटे तक साथियों के साथ गप्प मारी, फिर लगभग एक घंटा काम किया या कुछ और किया फिर आधा घंटे का लंच जिसमे हमने एक या डेढ़ घंटा लगा दिया, फिर इवनिंग टी ब्रेक और फिर छुट्टी। विदेशों में उन्नति की वजह काम होता है। मुझे लगता है कि वह नौकरी की नियुक्ति में अप्रोच वा रिश्वत बहुत कम चलती होगी। यहाँ बहुत कम सरकारी नौकरियां ऐसी होती हैं जहा यह दोनों बातें न होती हों। आपने जो कहा है, वह पूर्ण विश्वसनीय है। आपको नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद है।

        • मनमोहन जी ,आप का कॉमेंट आज पड़ा.किओंकि मैं ने ऐक्नौमिक्स पडी थी और एक किताब में लिखा था कि इंग्लैण्ड की लेबर इंडिया से चार गुना ज़िआदा काम करती है .उस वक्त तो हम कहते कि यह कैसे हो सकता है ,इंडिया में तो लोग बहुत मिहनत करते हैं .यहाँ आ कर हमें काम के सही अर्थ पता चले . डिनर टाइम तो यहाँ भी होता है लेकिन आधे घंटे या किसी किसी जगह एक घंटे का ,उस के बाद आप खड़े नहीं हो सकते . अगर आप के काम की कोई शकाएत करता है तो आप को एक्सप्लेनेशन देनी होती है ,अगर ज़िआदा लोग शकाएत करते हैं तो आप को वार्निंग दी जाती है ,फिर भी आप नहीं संभले तो काम से छुटी कर दी जाती है ,कोई सफाराश नहीं कर सकता चाहे वोह मैजिस्ट्रेट ही क्यों न हो .यहाँ के तीन W मशहूर हैं ,WORK WOMEN और WHEATHER, इन तीनों का कोई भरोसा नहीं है . आप सुबह काम पर गए और जाते ही आप को काम से जवाब हो सकता है ,इस लिए हर कोई अपनी जिमेदारी को समझता है और कोई ऐसा काम नहीं करता जिस से उस की जुब को कोई खतरा हो जाये . अब मैं डिसेबल हूँ ,मुझे किसी बात की इन्फार्मेशन की जरुरत हो तो घर बैठा सब कुछ पता कर सकता हूँ ,वोह तुरंत जवाब देंगे .एक बात और भी है कि सख्त काम करके आप की तम्खुआह बिलकुल सही होगी ,एक पैनी का भी फरक नहीं होगा .अगर आप को छक हो कि तन्खुआह में कुछ कमी है आप को उसी वक्त हिसाब करके पैसे दे दिए जायेंगे .बस यही फरक है इंडिया और इंग्लैण्ड का .इंडिया में आज लोग हम से बहुत अमीर हो गए हैं हैं लेकिन गरीब से गरीब इंडियन भी इंडिया जा कर सैटल होने को तैयार नहीं ,सिर्फ इस लिए कि यहाँ इन्साफ है .

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