धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्या हिन्दू धर्म सहिष्णु रहा है ?

कहा यह जाता है की हिन्दू धर्म  एक सहिष्णु धर्म है, ऐसे विचार फैलाये जाते हैं की हिन्दू धर्म में विभिन्न विरोधी विचारो को फलने फूलने दिया जाता है । हिन्दू धर्म के स्वंभू ठेकेदार जोर जोर से चिल्ला चिल्ला के कहते हैं की हिन्दू धर्म सबसे ज्यादा सहिष्णु है और इसने कभी इस्लाम की तरह  तलवार का सहारा नहीं लिया । हिन्दू धर्म ने सभी को अपने अपने हिसाब से पूजा पाठ करने की  अधिकार रहा है इसलिए हिन्दू धर्म मूल रूप से ‘ सहिष्णु’ धर्म है ।

पर यदि आप गहराई से अवलोकन करेंगे तो यह बात मात्र गप्प ही लगेगी , जिस तरह इस्लाम या ईसाइयत ने अपने धर्म को ही श्रेष्ठ माना है और बाकियो को अपना विरोधी उसी प्रकार हिन्दू धर्म ने भी । हिन्दू धर्म दूसरे धर्म के प्रति असहिष्णु तो रहा ही है इसके विभिन्न सम्प्रदाय भी एक दूसरे के प्रति घृणा और द्वेष रखते रहें हैं , जैसे की शैव ,वैष्णव, शक्त आदि एक दूसरे से द्वेष और घृणा रखते रहें हैं।

वेदों में एक बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध का हिस्सा है , ऋग्वेद में आर्यो और अनार्यो का जमकर युद्ध है ।

ऋग्वेद मंडल 10 के सूक्त 22 में जो लोग यज्ञ नहीं करते थे उनको विनाश करने की बात कही गई है , देखें-

अकर्मा दस्युरभि नो….दंभय( ऋग्वेद 10/22/8)

अर्थात- हमारे चारो ओर यज्ञ न करने वाले दस्यु हैं . वे कुछ नहीं मानते वे वेदों में विहित कर्मकांड से शून्य हैं और उनकी प्रकृति आसुरी है ! शत्रुनाशक इंद्र इस दस्यु जाति का विनाश करो ।

यंहा इंद्र से जो यज्ञ नहीं करते अर्थात दूसरे मत को मानते हैं उनके विनाश किया जा रहा है , इंद्र शंबर, कृष्ण आदि असुरो का विनाश करता है क्यों की वे वैदिकों के मत से भिन्न थे ।

इसी प्रकार गीता (11/32) में भी अपने से भिन्न मत को मुर्ख और नष्ट हुआ कहा गया है ।वैदिकों और बौद्ध / जैनियो के हिंसक संघर्ष गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा । वाल्मीकि रामायण में बुद्ध को चोर तक कह दिया गया है।

सांख्यतत्वकौमुदी के लेखक वाचस्पति मिश्र ने बौद्ध और जैन के लिए ‘ म्लेच्छ , पुरुषापसद ( नीच पुरष , पशुप्राय जैसे शब्दों तक का प्रयोग किया है ।

शुंगमित्र द्वारा  बौद्ध धर्म के अनुयायियो का नरसंहार  अशोकावादन में दर्ज है की किस तरह से एक बौद्ध के सर लाने पर सौ सोने की मोहरे देने की घोषणा की थी ।

भारत में प्रत्येक राजा अपने पडोसी राजा से उसका राज्य हड़पने, उसकी स्त्रियां लूटने, अपना शासन विस्तार के लिए सदैव  युद्ध में लगा ही रहता था । भारत को अंग्रेजो से आज़ादी मिलने तक भारत सैकड़ो छोटे बड़े रियासतो में बंटा हुआ था जो की एक दूसरे के प्रति हिंसक रहे थे ।

इसके आलावा हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायो में वैमनस्य सदैव बना रहा , रामानुज संप्रदाय और रामानंदीय संप्रदाय में द्वेष इस तरह था की दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ते थे ।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी ने कबीर, भागवत आदि को खूब गलियां दी है । कबीर को तो उन्होंने ‘ नीच’ तक कह दिया है और गुरुनानक जी को मानप्रतिष्ठा का  दंभी ।

शायद इसी लिए गांधी जी ने ‘ सत्यार्थप्रकाश ‘ पढ़ने के बाद यंग इण्डिया में अपने इंटरबीयू आर्य समाजियों को झगड़ालू स्वभाव का और सत्यार्थप्रकाश को सबसे निराशाजनक पुस्तक कहा था ।

इसके अलावा उच्च हिन्दुओ का  वंचितो  पिछडो के प्रति जो असहिष्णुता ,घृणा और द्वेष हजारो साल से चलता आ रहा है उससे यह कदापि नहीं कहा जा सकता की हिन्दू सहिष्णु रहा है । हाँ यह जरूर है की जब प्रस्थितियां उसके अनुकूल नहीं रहतीं वह कछुए की तरह अपनी  गर्दन छुपा लेता है । हिन्दू का यह स्वभाव रहा है की वह अपने से छोटे के प्रति असहिष्णु रहा है और अपने से ताकतवर के सामने तुरंत हथियार डाल देता है ।

 

 

 

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?

One thought on “क्या हिन्दू धर्म सहिष्णु रहा है ?

  • “बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद”

    यह लोकोक्ति इस लेख के लेखक पर यथार्थ रूप से लागु होती है। किसी भी विषय पर अधिकार हुए बिना विशेषज्ञ होने का दावा करने के समान कुचेष्टा करने वाला ही ऐसा भ्रामक, असत्य लेख लिखेगा। अगर वैदिक संस्कृति में असहिष्णुता होती तो सम्पूर्ण मानव इतिहास में भारत वासियों द्वारा विदेशों पर आक्रमण कर उन्हें गुलाम बनाने का कोई तो उदहारण विश्व इतिहास में मिलता। कुछ नहीं मिला तो एक उटपटांग आर्यों को विदेशी और आक्रमणकारी वाली कल्पना गड़ी गई तो निराधार होने के कारण ताश के पत्तों के समान उड़ गई। उसी मिथक कल्पना का एक भाग आर्यों और द्रविड़ लोगों को आपस में युद्ध करते हुए दिखाना था। जिससे उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय लड़ते रहे, स्वर्ण और गैर -स्वर्ण लड़ते रहे। यह फुट डालों और राज करों की नीति थी। मुर्ख वो है जो आज भी इसे लेकर छातियाँ पिट रहा हैं। वेदों में राज्य व्यवस्था को लेकर राजा को उचित सन्देश दिया गया हैं। राज्य के रक्षा के लिए शत्रुओं का नाश करना राजा का कर्त्तव्य हैं। शत्रु कौन है? यज्ञ अर्थात श्रेष्ठ कर्म न करने वाला शत्रु हैं। डाकू,चोर, आतंकवादी, शत्रु देश का गुप्तचर, व्यभिचारी, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी, आचरणहीन। इन सब को वेद ने दस्यु, अनार्य आदि नामों से सम्बोधित किया हैं। कबाड़ा तब हुआ जब श्याम वर्ण, दक्षिण भारतियों, गैर स्वर्ण, दलितों को दस्यु की संज्ञा विदेशियों ने देकर वैमनस्य फैलाया। वेद के सत्य ज्ञान को न समझ कर उजुल फुज़ूल बात करना मूर्खता की निशानी हैं।

    हिन्दुओं के शैव-वैष्णव आदि मतों को धर्म कहना दूसरी बड़ी मूर्खता है। लेखक धर्म और मत के अंतर को भी नहीं समझता। आर्यव्रत देश का नाश इन्हीं मत-मतान्तर के आपस के भेद के कारण हुआ। उनके मतभेद को असहिष्णुता की संज्ञा देना मूर्खता है। स्वामी दयानंद द्वारा देश, धर्म और जाति का नाश करने के कारण मत-मतान्तरों की तीखी आलोचना सत्यार्थ प्रकाश में इसी कारण से की गई है।

    बुद्ध और जैन भी मत ही निकले जिनके अति अहिंसा की मान्यता के कारण चंद विदेशी हमलावर हज़ारों बुद्ध विहारों और श्रावकों का नाश कर गए। बचे हुए बुद्धों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया। बुद्ध मत की मान्यता की शत्रु का नाश करना हिंसा है, इस देश को गुलाम बनाने वाला सिद्ध हुआ। पुष्यमित्र शुंग उस काल का सबसे बड़ा राष्ट्र भक्त था। कपटी बुद्धों ने विदेशी ग्रीक राजाओं से परस्पर संधि कर देशद्रोह किया और सीमावर्ती बुद्ध विहारों में शत्रु देश के सैनिकों को बुद्ध भिक्षुओं के वेश में छुपा लिया। पुष्यमित्र शुंग को जब बुद्धों के इस राष्ट्रद्रोह का मालूम चला तो उसने बुद्धों के विनाश की आज्ञा देकर देश की रक्षा करी। कालांतर में बुद्धों ने अपनी इसी पुरानी राष्ट्रद्रोह की आदत का पालन करते हुए सिंध प्रदेश के राजा दाहिर के विरुद्ध आक्रमणकारी मुहम्मद बिन क़ासिम का साथ दिया था। जिसका अंत बुद्धों के नाश के रूप में निकला। राष्ट्र के शत्रुओं के नाश को असहिष्णुता कहना फिर से अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करना हैं।

    कबीर, नानक पर प्रतिक्रिया मतमतांतर के संकीर्ण मानसिकता की समीक्षा है। लेखक की सोच उतनी विकसित नहीं है की उसे इस शंका का समाधान बताया जाये। पहले दसवीं पास कर ले। पीएचडी के प्रश्न पत्र को भी सुलझा देंगे।

    महात्मा गांधी की आलोचना तो आपके प्रिय डॉ अम्बेडकर भी करते थे। गांधी के चलते ही तो इस देश का नाश हुआ। पाकिस्तान बना फिर भी इस्लाम रूपी बीमारी का कोई समाधान नहीं निकला।

    वेदों में जातिवाद नहीं है। यह मध्यकाल की देन है। इस बीमारी के समाधान के लिए ही तो स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज की स्थापना करी थी। आप जैसे मुर्ख उसी के विरुद्ध विषवमन करते है।

    डॉ विवेक आर्य

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