ग़ज़ल
जियो गुमनाम तुम जग में इजाजत दे नहीं सकती |
विनय श्रृंगार है तेरा अदावत दे नहीं सकती |
चलोगे साथ सच के जब जमाना साथ देता है
कपट ओ छल न करना तुम इजाजत दे नहीं सकती |
कलम जब भी उठाना देश का अभिमान लिख देना
न बनना तुम कभी चारण इजाजत दे नहीं सकती |
जो पल- पल मर रहा तन्हा सहारा तुम बनो उसका
कभी शोषण न करना तुम इजाज़त दे नहीं सकती |
खिलाफ़त की वजह हो तो शराफ़त छोड़ देना तुम
मरासिम खूब करना तुम नदामत दे नहीं सकती |
अकड़कर क्या मिलेगा जी अदावत तोड़ देती है
मुहब्बत से जो मिलता है सियासत दे नहीं सकती |
— छाया शुक्ला “छाया”