गरीबी की मार
टूटी हुई छोपड़ियों से निकल कर,
गन्दीली बस्तियों के रास्ते से,
गुजरती हुई जाती है,
हर रोज वह अबला।
चमचमाती चकाचौंध,
कर देने वाली महल में,
नियमानुकूल करती हर कार्य-
चुल्हा से लेकर बरतन साफ़,
छेड़ती है फर्स से लेकर कपड़ा तक,
सफाई अभियान।
सबको खिलाती है,
सबके मन पसंद का आहार।
अपने खाती है,
पिछले दिन का बचा आहार।
इस गरीबी रूप फसील के अन्दर।
घुटन भरी जिन्दगी को,
जिने के लिए मजबूर है।
रोज-रोज दिखाई देता है,
उसके आँखों के सामने,
अच्छा मकान,मन पसंद आहार।
लेकिन नहीं रहता है,
उस पर कोई इसका अधिकार।
अपने नसीब को कोसते हुए जाती,
अपने घर में,
रात सिसकियों के साथ बिताती।
उधर कार्य का भार ,
इधर निम्न स्तर का आहार।
दिन-प्रतिदिन करता है,
शरीर का दोहन।
गरीबी के कारण,
कमजोरी के रास्ते,
आता है उसे बुखार।
कई रातों को गुजारती,
कराहते हुए पैसे के अभाव में,
पड़ी हुई है टूटी चारपाई पर,
निष्पलक,
होती है कम्पन,
बढती है धड़कन,
निकल जाता है,
उसके शरीर को जिन्दा रखनेवाला
प्राणवायु।
आधे ही उम्र में,
गुजार डाली अपनी पुरी उम्र।
@रमेश कुमार सिंह