राज मुक्तक सुधा
गीत बनकर सखी मै निभाती रही/
प्रीति मे सज सदा दिल सजाती रही/
रीति दुनिया मज़ा बन लुभाती शमा/
शाम ढलती रही मन रिझाती रही/
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