क्यों माने ईश्वर को?
ओ३म्
ईश्वर को क्यों माने? यह प्रश्न किसी भी मननशील मनुष्य के मस्तिष्क में आ सकता है। वह अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करेगा और हो सकता है कि उसे कोई सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त न हो। यदि वह अपने परिवार व मित्रों से इसकी चर्चा करेगा तो सबके उत्तर अलग-अलग होंगे। सभी मतों व सम्प्रदायों के विचार व उत्तर, परस्पर वैचारिक समानता न होने के कारण, अलग-अलग होंगे, यह निश्चित है। अब जिज्ञासु मनुष्य को उन सभी विचारों व मान्यताओं पर विचार कर निर्णय करना होगा। हमें लगता है कि उसे जो भी उत्तर प्राप्त होंगे या तो वह गलत होंगे या अधूरे होंगे जिससे जिज्ञासु प्रवृत्ति के विवेकशील मनुष्य का समाधान नहीं हो सकेगा। उसके पास एक ही मार्ग शेष रहता है कि वह किसी वेद या आर्य विद्वान की शरण ले और उससे इस प्रश्न की चर्चा करे, तो अनुमान है कि उसका पूरा समाधान अवश्य ही होगा। इसका कारण यह है कि वेद व आर्य विद्वानों के पास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद का प्रकाश है। इन वैदिक आर्य विद्वानों में ईश्वर की विशेष कृपा भी होती है जो कि सम्भवतः अन्य मतों के विद्वानों व अनुयायियों में नहीं देखी जाती जबकि उनके दावे बड़े-बड़े होते हैं। विभिन्न मतों के आचार्यों व उनके अनुयायियों के ईश्वर सम्बन्धी किए जाने वाले दावो में उनकी अज्ञानता छिपी हुई दिखाई देती है। सत्य व असत्य का जैसा विश्लेषण व समीक्षा वेद व आर्य विद्वान करते हैं, वैसी समीक्षा व विश्लेषण अन्य किसी मत में नहीं किया जता है। यही कारण है कि वेदभक्त आर्यों को ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होने के साथ उन्हें ईश्वर के मानने से लाभ व न मानने से होने वाली हानियों का भी पूरा-पूरा ज्ञान होता है।
हम एक पौराणिक मान्यता व विश्वास वाले परिवार में जन्में और अपनी आयु के 18 से 20 वर्षों तक हम अपने सभी धामिऱ्क कार्य यथा पूजा-उपासना आदि पौराणिक रीति के अनुसार ही करते थे। एक युवा सज्जन विद्वान मित्र की प्रेरणा से हमें आर्यसमाज का परिचय मिला जो हमें रविवार के अवकाश के दिन खाली समय में वहां धुमाने ले जाने लगे। हमने वहां विद्वानों के प्रवचनों को सुना और समाज-मन्दिर में उपलब्ध सत्यार्थ प्रकाश आदि वैदिक साहित्य को लेकर पढ़ा। आर्यसमाज के विद्वानों के तर्क पूर्ण प्रवचनों और सत्यार्थप्रकाश की बुद्धि व तर्क पूर्ण मान्यताओं को पढ़कर उन विचारों व मान्यताओं का हमारे मन व मस्तिष्क पर धीरे-धीरे प्रभाव होने लगा। अब विचार करने पर हमें अपनी जन्मना पौराणिक मान्यताओं की सत्यता के सन्तोषप्रद समाधान नहीं मिले और आर्यसमाज की वेदमूलक मान्यताओं की सत्यता की साक्षी व पुष्टि हमारा मन-मस्तिष्क व हृदय करने लगा। फिर जो होना था वही हुआ। हमने आर्यसमाज की सदस्यता का फार्म लेकर भर दिया और आर्यसमाज के साप्ताहिक यज्ञ व सत्संगों में वहां जाने लगे। हर बार वहां से किसी नये धार्मिक विषय की पुस्तक ले आते जिसे पढ़कर उस विषय का ज्ञान हो जाता था। वेद व आर्यसमाज की मान्यताओं को हम अपने पौराणिक तर्कों से काटना चाहते थे, परन्तु हमारे पास तर्क होते ही नहीं थे। अतः वैदिक विचारों ने हमारे पौराणिक विचारों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली जिसका परिणाम है कि हम विगत 40 से 45 वर्षों से मन व आत्मा से आर्यसमाज की विचारधारा से जुड़े हुए हैं।
ईश्वर को मानना व न मानना हमारी निजी सोच पर निर्भर होता है। संसार में बहुत से लोग हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। उन्हें साम्यवादी कह सकते हैं। यह बात अलग है कि बंगाल व अन्यत्र रहने वाले हमारे भारत के साम्यवादी व उनके कुटुम्बी दुर्गापूजा आदि जैसे नाना प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं। जो लोग ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते और जो विदू्रप ईश्वर पूजा को मानते व करते हैं, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह न तो स्वयं आत्मचिन्तन करते हैं और न ही ईश्वर व जीवात्मा विषयक सर्वाधिक प्रमाणिक वैदिक साहित्य को पढ़ते हैं। यदि यह लोग उपनिषद ही पढ़ ले तो ईश्वर के स्वरूप से परिचित हो सकते हैं। उपनिषदें यद्यपि संस्कृत भाषा में है परन्तु इनके हिन्दी सहित अनेक भाषाओं में भाष्य व अनुवाद उपलब्ध हैं। ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप और संसार की रचना की पहेली के यथार्थ रहस्य को जानने के लिए ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ईश्वर की सत्ता को तर्क व युक्ति से समझाया गया है।
सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी ने प्रश्न प्रस्तुत किया है कि आप ईश्वर–ईश्वर कहते हो, परन्तु उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से। फिर वह प्रश्न प्रस्तुत करते हैं कि ईश्वर में प्रत्यक्षादि प्रमाण कभी नहीं घट सकते। इसके उत्तर में वह न्यायदर्शन का सूत्र ‘‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।” प्रस्तुत करते हैं और बताते हैं कि श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ जो सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचनाविशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा, मन और इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से (होता) है। और जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का (शुद्ध हृदय से विचार व ध्यान करने पर) प्रत्यक्ष होता है अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है। हमने इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द के विचारों की कुछ झलक प्रस्तुत की है। विस्तार से जानने के लिए जिज्ञासुओं को सत्यार्थ प्रकाश का गहन अध्ययन करना चाहिये। हमारा अनुमान है कि बार-बार सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से अध्येता को ईश्वर के बारे में निभ्र्रान्त ज्ञान अवश्य हो जाता है।
ईश्वर है और उसी ने इस सृष्टि को बनाया है तथा वही इसका संचालन कर रहा है। उसी से, जन्म के बाद मृत्यु की भांति, संसार की प्रलय होती है व आगे चलकर इस सृष्टि की भी होगी। उसी परमात्मा से सभी प्राणी अस्तित्व में आते हैं और अपने कर्मानुसार सुख-दुःख रूपी फलों का भोग करते हैं। इस सन्दर्भ में हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि संसार के किसी वैज्ञानिक, मत-पन्थ के आचार्य व अन्य के पास सृष्टि और सभी प्राणियों के जन्मदाता का बुद्धिसंगत निर्भान्त ज्ञान व उत्तर उपलब्ध नहीं है। यह केवल वेद और वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध होता है। अभी तक ईश्वर व जीवात्मा विषयक वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थ प्रकाश आदि किसी ग्रन्थ की मान्यताओं व सिद्धान्तों का किसी वैज्ञानिक व नास्तिक विद्वान ने युक्ति व तर्कपूर्वक खण्डन नहीं किया है। अतः ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व विषयक अन्य कोई सन्तोषजनक पक्ष न होने के कारण सभी मनुष्यों को वेदसम्मत ईश्वर को मानने में ही कल्याण है। ईश्वर है, यदि उसे मानेंगे तो ईश्वर को मानने से मिलने वाले लाभों से समृद्ध होंगे और यदि नहीं मानेंगे तो उन लाभों से वंचित हो जायेंगे। कुछ क्षण के लिए यदि इस मिथ्या मान्यता को भी स्वीकार कर लें कि ईश्वर नहीं है, तो भी ईश्वर को मानने से हमें कोई हानि नहीं होगी। क्योंकि जब वह है हि नहीं तो हानि होने का प्रश्न ही नहीं है। परन्तु यदि ईश्वर है और हम उसे नहीं मानेंगे तो हानि होना निश्चित है। अतः दोनों ही स्थितियों में ईश्वर को मानने में ही मनुष्य को लाभ है।
ईश्वर को मानने से क्या लाभ हैं? पहला लाभ तो यह है कि ईश्वर को जानने व मानने तथा उसकी स्तुति प्रार्थना व उपासना करने से जीवात्मा के बुरे गुण-कर्म-स्वभाव छूट कर ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप, शुद्ध व पवित्र, हो जाते हैं। आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि जिससे दुःखों की निवृत्ति होने के साथ सभी प्रकार के भय दूर होते हैं। मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है। अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। मनुष्य को स्वस्थ जीवन का लाभ होने के साथ सुख व समृद्धि सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की उपलब्धि होती है। इसके विपरीत ईश्वर को न मानने पर मनुष्य इन अधिकांश लाभों से वंचित हो जाता है। उसे केवल अपने सत्यासत्य कर्मों के फल ही ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। ईश्वर से जो सत्प्रेरणायें जीवात्माओं कों प्राप्त होती है उसका अनुभव अधार्मिक नास्तिक लोग नहीं कर पाते। असली सहिष्णुता ईश्वर को मानने वाले धार्मिक लोगों में ही पायी जाती है। ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न जानने व मानने वाले लोग सहिष्णुता का दिखावा करते हैं, वह सहिष्णुता के मूल स्वभाव व चरित्र से कोशों दूर होते हैं। जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी व अमर है। इसका पुनर्जन्म सुनिश्चित व अवश्यम्भावी है जो जीवात्मा के कर्मानुसार ईश्वर द्वारा दिया जाता है। यदि ईश्वर को नहीं मानेंगे तो हमारा आगामी जीवन बिगड़ेगा अर्थात् निम्न व नीच योनियों में जन्म लेकर दीर्घ अवधि तक दुःखों को भोगना ही होगा। ईश्वर को मान कर और उसकी वैदिक विधि से स्तुति-प्रार्थना उपासना कर नास्तिकों व अर्धनास्तिक मत-पन्थ के अनुयायियों को होने वाली हानियों से बचा जा सकता है। हम आशा करते हैं कि यह लेख पाठकों को उपयोगी होगा।
अच्छा लेख ! अंतिम पैरा मार्गदर्शक है।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। मंगल कामनाओं सहित।
मनमोहन जी ,लेख अच्छा लगा . आप आर्य समाज से जुड़ गए और यही आप में परीवर्तन का कारण है . वैसे तो मुझे लगता है कि धर्म के बीज तो पहले से ही आप के दिल में थे लेकिन आर्य समाज से जुड़ जाने के कारण यह अंकित हो गए और आप की रूचि बढती गई .मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि आप धर्म में रूचि ना भी रखते तो भी आप धार्मिक ही थे किओंकि आप बचपन से ही एक अछे दिल वाले रहे होंगे .मेरे विचार आप से इलग्ग हो सकते हैं लेकिन मैं आप आप के विचारों की कदर करता हूँ .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचारों का पढ़कर प्रसन्नता का अनुभव हुआ। मैं अतीव भाग्यशाली हूँ जो मुझे आपका आशीर्वाद एवं स्नेह प्राप्त हो रहा है। बीज चाहे कितना भी अच्छा हो यदि उसे अच्छी भूमि, खाद, पानी और सूर्य का प्रकाश आदि न मिले तो वह अच्छा परिणाम पैदा नहीं कर सकता। मुझे महर्षि दयानंद जी के साहित्य, वैदिक साहित्य और आर्यसमाज से भूमि, खाद, पानी और प्रकाश मिला है। आपकी इस सुन्दर प्रत्रिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद है। मैं ह्रदय से आपको नमन करता हूँ। मेरी मंगल कामनाएं आपके लिए हैं। आपका प्रेम व स्नेह बना रहे, यह ईश्वर से प्रार्थना है।