गीत : अब खुल्लम खुल्ला बोलूँगा
सत्य हमेशा कहता हूं अब खुल्लम खुल्ला बोलूँगा
कोई कुछ भी सोचे “उनको” इक पलड़े में तोलूँगा
मैंने भी थे ख्वाब संजोये भाई भाई कहने के
मैंने भी प्रयास किये थे मिल जुल साथ में रहने के
लेकिन उनकी गद्दारी ने सारे सपने लूट लिये
मैंने मानवता की खातिर फिर भी कड़वे घूँट पिये
उनके अत्याचारों ने मेरे विश्वास को तोड़ दिया
उनकी खूनी हरकत ने अंतर मन तक झकझोर दिया
भूल नहीं पाता हूं बातें मैं उस काली रात की
भीतर तक सिहराती यादें घाटी के हालात की
उनकी सीनाजोरी भी बढ़नी थी जो बढती ही गयी
मेरे मन में गांठें भी पड़नी थी जो पड़ती ही गयी
लाख मनाले कोई पर उन गांठो को न खोलूँगा ….कोई कुछ भी …….
मैंने बटवारा भी माना मजहब के आधार पर
मैंने चुप्पी भी साधी अब तक हर नरसंहार पर
मैंने सोचा भाई है मानेगा थोड़ी देर सही
माफ़ किया अब तक उनको था आपस में हो बैर सही
लेकिन वो तो बटवारे संग माँ का मस्तक मांग रहा
भारत की धरती पे रहकर अपनी सीमा लांघ रहा
इनको समझ नहीं आती है राहें अब संवाद की
इनकी हर बातों में होती बातें बस उन्माद की
गज़वा हिन्द की चाहत ले आँखें भारत पे ठहरी हैं
और हमारे देश में इनकी जड़ें हो रही गहरी हैं
अब इनकी नापाक जड़ों में मट्ठा मैं तो घोलूँगा … कोई कुछ भी …….
उन लोगों ने सदा उछाले पत्थर जिन पर घाटी में
वे ही बचाने आये फ़रिश्ते बनकर अबके घाटी में
इनके सब आका भी इनको इस विपदा में छोड़ गए
और हमारे सैनिक इनकी रक्षा करने दौड़ गए
भूख प्यास से तड़प रहे तब ये गुहार लगाते है
पेट भरा और झट पलटे फिर से पत्थर बरसाते है
ये भारत के टुकड़े चाहने वाले अपनी जात दिखा बैठे
फिर से मौका पाते ही अपनी औकात दिखा बैठे
फिर से पंडित बस जाए ये चाहते शंकर घाटी में
साफ़ कर दिए सैलाबों ने सारे कंकर घाटी में
थोड़े से जो बचे उन्हें तो मैं खुद ही अब धो लूंगा .. कोई कुछ भी …..
— मनोज “मोजू”