संस्मरण

मेरी कहानी 78

डैडी जी इंडिया चले गए थे और धीरे धीरे मेरी ज़िंदगी की नई शुरुआत हो गई । काम पर मैं रोज़ जाता , नए नए दोस्त बन गए थे। एक लड़का काम पर नया नया आया था जिस का नाम देव था,  बहुत ही शरीफ था लेकिन लगता था वोह नॉर्मल नहीं था। जब भी कभी इंडिया की बात होती तो वोह अपनी माँ को गाली निकाल देता, पता नहीं क्यों ? मैंने उस को काम की ट्रेनिंग दी थी लेकिन कई दफा मुझ से ही गलत बात कह देता लेकिन मैंने उस का कभी गुस्सा नहीं किया था किओंकि उस को मेरे दूर के मामा जी चनन सिंह हैरो स्ट्रीट वाले ने ही यहाँ काम पर लगाया था, दूसरे मैं यह भी जानता था कि देव दिल का बुरा नहीं था । इस के बाद मैं तो ब्रुक हाऊस छोड़ कर बस्सों पे लग गिया था १९६७ में जब मैं इंडिया शादी कराने के लिए आया था तो इस लड़के देव की माँ मुझ को मिलने आई थी ,पता नहीं उस को मेरा एड्रेस कैसे मालूम हुआ होगा।

देव की माँ काफी कमज़ोर और बूड़ी थी ,वोह रो रही थी कि उस के बेटे को किसी ने कुछ कर दिया था ,इसी लिए वोह घर को ख़त नहीं लिखता था। वोह मुझे बार बार बोल रही थी , “बेटा उस को कहना बस एक दफा मुझे मिल जा ,बताना कि तेरी बूड़ी माँ हर वक्त तुझे याद करके रोती रहती है “. फिर वोह मेरी माँ से बातें कर कर के रो रही थी। मुझे नहीं पता कि उन के घर की क्या समस्य थी लेकिन जब मैं वापस आया तो देव को मिलने मैं हैरो स्ट्रीट गिया और देव को मिला। मैं उसे घर के बाहिर ले आया और उस की माँ की बातें उसे सुनाईं लेकिन वोह उस को गालिआं देने लगा। मैंने उस को बहुत समझाया लेकिन लगता था उस की मानसिक स्थिति वोह नहीं थी ।

इस दिन के बाद मुझे वोह कभी भी दिखाई नहीं दिया। एक दफा जब हम ब्रुक हाऊस में काम कर रहे थे और सर्दिओं के दिन थे , तो कुछ गोरे अपना काम छोड़ कर और सारे कपडे बगैरा अपने लॉकरों में रख कर जा रहे थे . हमें कोई समझ नहीं आ रही थी कि दिन के दो तीन वजे ही वोह क्यों जा रहे थे। उन के साथ देव भी काम छोड़ कर चले गिया था। जब पांच वजे सायरन बजा तो हम भी जाने लगे। यों ही हम ने गेट खोला तो आगे कुछ भी दिखाई नहीं देता था। ऐसे लगता था जैसे चिट्टे घने बादल हों। एक गोरा बोला ,” ओ माई गौड़ इट इज़ फौग !”. यों तो इंडिया में सर्दिओं के मौसम में धुंद देखी हुई ही थी लेकिन ऐसी धुंद (फौग ) हम ने ज़िंदगी में कभी भी देखी या सुनी नहीं थी। दो तीन गज़ के आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता था ,अंधों जैसा हाल हमारा हो गिया था। समझ नहीं आती थी कि क्या करें।

आखिर में हम ने एक दूसरे के हाथ पकडे और धीरे धीरे चलने लगे। फैक्ट्री में रोज़ आने जाने के कारण हमें कुछ कुछ अंदाजा था कि गेट किधर था। गेट पर पुहंचे तो कुछ दिखाई दिया ,गेट के बाहर आते ही फिर वोह ही समस्य थी। अब हमारे सामने एक ही बात थी कि किसी ना किसी तरह बस स्टॉप पर पौहंचें। किसी ना किसी तरह हम बस स्टॉप तक पहुँच गए लेकिन बस स्टॉप पर चार पांच लोग ही खड़े थे जब कि इस वक्त तो बहुत भीड़ होती थी। बहुत देर तक हम खड़े रहे ,आखर में एक बस धीरे धीरे आ रही थी जिस की सभी लाइटें जिन में फौग लाइटें भी थीं जग रही थीं और बस का कंडक्टर बस के आगे आगे एक कपडे को हिला हिला कर ड्राइवर को सीधा ड्राइव करने के लिए इशारा कर रहा था ,बस पर भी सात आठ लोग ही बैठे थे।

यह देख कर हम ने भी सोचा कि बस में बैठने का कोई फायदा नहीं है ,इस लिए अंदाज़े से फुट पाथ पर धीरे धीरे हम चलने लगे। हम सभी ने अपने अपने मुंह मफ्लरों से बांधे हुए थे क्योंकि फौग में सांस लेने से एक घुटन सी मैहसूस हो रही थी और यह सिहत के लिए अच्छी नहीं थी । कोई एक मील हम चलते रहे ,अचानक हमें लगा कि हम गलत सड़क पर जा रहे हैं ,सभी खड़े हो गए ,किस को पूछें कि हम ठीक थे या गलत यह एक समस्य थी। तभी पीछे से मुझे जसवंत की आवाज़ सुनाई थी जो किसी के साथ बातें करता आ रहा था । मैं ने आवाज़ दी ,” जसवंत तू हैं ?”. जसवंत बोला ,”हाँ मैं ही हूँ “.
थोह्ड़ी देर में हम इकठे हो गए और आगे चलने लगे क्योंकि हमें यकीन हो गिया था कि हम सही जा रहे थे। जब हम टाऊन में पुहंचे तो वहां इतनी फौग नहीं थी और अच्छा दिखाई दे रहा था। हँसते हुए हम घर की ओर चलने लगे।

फिर मैंने जसवंत को बोला ,” चल पहले हैरो स्ट्रीट में जा कर देव का पता करते हैं कि वोह सही सलामत घर पौहंच गिया था या नहीं “. जब हैरो स्ट्रीट में हम पुहंचे तो हमें पता चला कि देव तो घर आया ही नहीं था। जसवंत बोला ,” आज तो देव घर नहीं पहुंचेगा “. मुझे उस की चिंता हो गई क्योंकि वोह तो कब का फैक्ट्री छोड़ गिया था। मैं और जसवंत वापस उस को ढूंढने चल पड़े। कुछ ही दूर गए थे कि मौलिनिउ फुट बाल स्टेडियम के नज़दीक देव की आवाज़ सुनाई दी ,हम खड़े हो गए। जब देव हमारे नज़दीक आया तो मैंने उस को पुछा कि “तू कहाँ चले गिया था ?”. तो देव बोला कि वोह गलत रोड पर पड़ कर कैनक रोड की तरफ चले गिया था. हम हंसने लगे और उस को घर छोड़ कर अपने घर आ गए।

फौग तो अब भी पड़ती है लेकिन उस समय जैसी नहीं। इस का एक ही कारण था कि उस समय इतनी फैक्ट्रियां होती थी कि उन की चिमनियों से निकलने वाला धुँआ धुंद को आसमान की तरफ जाने से रोक लेता था जिस से यह धुंद घनी हो जाती थी और नीचे ही रहती थी और विजिबिलिटी कम हो जाती ही। उस समय बीबीसी पर एक कॉमेडी सीरियल आया करता था जो एक बहन भाई का होता था। एक दिन दोनों बहन भाई घर में अंगीठी के आगे बैठे थे कि अंगीठी में कोयले कम हो गए। भाई बाल्टी ले कर कोयले लेने बाहर कोल रूम में जाने लगा ,बाहर घनी धुंद थी और वोह धुंद में दिखाई ना देने के कारण गलती से पड़ोस के कोल रूम में चले गिया। उस ने कोयलों से बाल्टी को भरा और धुंद में ही अंधों की तरह पड़ोस के घर में चले गिया और उन की अंगीठी में कोयले डालने लगा। कोयले डाल कर सोफे पर बैठ गिया। सोफे पर पड़ोसी की पत्नी बैठी कोई किताब पड़ रही थी। उस ने तो खियाल किया था कि वोह अपनी बहन के साथ बैठा है, उस ने देखा ही नहीं था । ऊपर के कमरे से आते हुए जब उस औरत के पहलवान पति ने पराये मरद को अपनी पत्नी के साथ बैठे देखा तो उस ने आते ही उस के मुंह पर मुक्के जड़ दिए और उस की आँखें सूज गईं। इस पर लोग बहुत हँसते हैं। उस समय जो धुंद पढ़ती थी ,उस को दर्शाने के लिए ही यह एपिसोड था।

एक दिन हम काम खत्म करके बाहर निकले और हमेशा की तरह वैडनसफील्ड रोड से बस पकड़ी। बस में मोहणी ही बस कंडक्टर था। सारी बस में टिकटें काट कर मोहणी मेरे पास आ गिया और बोला ,” गुरमेल ! इस वक्त डैपो में कुछ वेकेंसियां हैं और रेक्रूटिंग हो रही है ,अगर बसों पे आना है तो बस डैपो आ कर ट्राई कर लेना ,जॉब मिल ही जायेगी ,छोड़ यह काम ,और पैसे भी वहां अच्छे हैं “. मोहणी की बात को मैंने धियान से सुना समझा और दूसरे दिन क्लीवलैंड रोड बस डैपो के रेक्रूटमेंट ऑफिस पौहंच गिया। मेरे जाने से पहले ही वहां चार पांच इंडियन ,कुछ गोरे और कुछ काले वैस्ट इंडियन कुर्सिओं पर बैठे थे। मैं भी बैठ गिया। कुछ देर बाद एक आदमी आया जिस का नाम इंस्पैक्टर लाली था। आते ही उस ने सभी के आगे हिसाब के सवाल पेपर रख दिए और साथ ही पलेन शीट और पैंन रख दिए । उस ने कहा ,” मेरा नाम मिस्टर लाली है और मैं एक सीनियर इंस्पैक्टर हूँ। क्योंकि बस कंडक्टर का काम टिकटें दे कर किराया वसूल करना है , इस लिए आप को हिसाब किताब करना आना बहुत जरूरी है। बीस सवाल हैं और आधे घंटे में हल करने होंगे। अब आप शुरू हो जाएँ और मैं आधे घंटे बाद आप से मिलूंगा “.

ऐसे सवाल तो हम प्राइमरी स्कूल में किया करते थे जो बहुत ही साधाहरण थे, इतने हज़ार टिकट हैं और अढ़ाई पैनी टिकट की कीमत हो तो कितने पाउंड शिलिंग और पैंस बनेगे। सभी जवाब हम ने दस मिनट में ही लिख दिए। आधे घंटे बाद लाली ने आ कर हम से जवाब की शीट्स ले लीं। क्योंकि लाली को जवाब पहले ही पता था ,इस लिए कुछ मिनट बाद ही उस ने फैसला सुना दिया। सभी पास थे लेकिन एक गोरा और एक वैस्ट इंडियन फेल थे। यह देख कर हम इंडियन बड़े हैरान हुए कि कुछ लोग इतने आसान सवालों के जवाब भी दे नहीं सकते थे। जितने लड़के पास हुए थे, उन सब को लाली ने कहा कि ” स्टोर रूम में जा कर अपनी अपनी यूनीफार्म ले लो और कल को मुझे विक्टोरिआ सुकेअर की ट्रांसपोर्ट कैन्टीन में मिलना “.

स्टोर रूम नज़दीक ही था ,हम इस के भीतर चले गए। वहां एक काला वैस्ट इंडियन दर्ज़ी बैठा था जिस का पूरा नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन इस को चार्ली बोलते थे। चार्ली ने हर एक का नाप लिया और उस के हिसाब से दो दो ट्राऊज़र्ज़ ,दो दो जैकेट्स, यानी कोट ,दो दो कमीज़ें ,एक बड़ा ओवर कोट और दो दो कैप जो बहुत स्मार्टली बनी हुई थीं हमें पैक कर दीं। यूनिफार्म के बंडल ले कर हम अपने अपने घर आ गए। घर आ कर मैंने गियानी जी को बताया कि मुझे बसों में काम मिल गिया था। गियानी जी खुश हो गए। यूनिफार्म का बण्डल घर रख कर मैंने बस पकड़ी और सीधा ब्रुक हाऊस फाऊंडरी जा पुहँचा और उन के ऑफिस में जा कर अपना रैज़िग्नेशन नोटिस दे दिया जो मैं पहले ही घर से लिख कर ले गिया था। जब मैंने नोटिस दिया तो मैनेजर बहुत परेशान हो गिया कि मैं उन्हें बताऊँ कि मुझे ब्रुक हाऊस में किया तकलीफ थी ,वोह मेरी तन्खुआह बड़ा देगा लेकिन मैंने कहा कि मुझे कोई तकलीफ नहीं थी लेकिन मैंने बसों पे काम करना पसंद कर लिया था। मैनेजर ने मुझे बहुत कहा कि मैं काम ना छोड़ूँ लेकिन मैं अपनी ज़िद पे था और नोटिस दे कर आ गिया।

दूसरे दिन मैं ट्रांसपोर्ट की कैंटीन में जा पहुंचा ,मेरे दूसरे नए साथी मुझ से पहले ही आ कर बैठे थे। अब हम सभी कुलीग बन गए थे और आपस में बातें करने लगे थे। कुछ देर बाद इंस्पैक्टर लाली आ गिया और आते हम सब को ऑफिस में ले गिया जो कैंटीन के पास में ही थी। हम सब अपनी अपनी सीट पर बैठ गए। लाली ने हम को छोटा सा लैक्चर दिया जो ज़्यादा तो मुझे याद नहीं लेकिन उस के अर्थ कुछ कुछ याद हैं। लाली बोला ,” दोस्तों मैं इंस्पैक्टर लाली हूँ ,पचीस साल पहले मैंने एक कंडक्टर के तौर पर काम शुरू किया था ,फिर बस ड्राइवर बना और उस के बाद इंस्पैक्टर बन गिया , वैसे तो मैं बसों में टिकट चैकिंग का काम करता हूँ लेकिन आप को ट्रेनिंग देनी भी मेरे काम का एक हिस्सा ही है।

सब से पहले मैं इंगलैंड की बस सर्विस का थोह्ड़ा सा इतहास बताना चाहूंगा। इंगलैंड में पहली बस सर्विस 1824 के करीब शुरू हुई थी जिस को घोड़े खींचते थे , इस के बाद 1870 के करीब स्टीम बस शुरू हुई थी, यम मोटर बस तो वर्ल्ड वार फर्स्ट के बाद ही शुरू हुई थी और अब हैं ट्रॉली बसें जो बिजली से चलती हैं। आप ने देखा ही है कि बस के ऊपर दो पोल जो ऊपर बिजली की तारों के कॉन्टैक्ट में होते हैं ,जो बस को पावर देते हैं जिस से ड्राइवर बस को चलाता है। जब बस किसी रुट पे सीधी जाती है , तब तो ठीक है लेकिन जब बस ने किसी सड़क को मुड़ना होता है तो इस के लिए सड़कों के नज़दीक बड़े बड़े बिजली के खम्भे लगे हुए हैं जिन के साथ एक हैंडल जैसा लीवर लगा हुआ होता है।

बस तो तुम जानते ही हो कि पीछे से खुली होती है ,इस लिए बस कंडक्टर की यह ड्यूटी है कि बस से उत्तर कर उस लीवर को नीचे दबा दे। उस के दबाते ही बस के पोल दूसरे ट्रैक पर चले जाएंगे और बस उस रोड को मुड़ जायेगी और कंडकर को जंप करके फिर से बस में चढ़ जाना होता है। धियान रहे कि अगर कंडकर पोल दबाने में लेट हो गिया तो पोल ट्रैक से उत्तर कर सीधे खड़े हो जाएंगे और क्योंकि बिजली का कॉन्टैक टूट जाएगा ,इस लिए बस भी खड़ी हो जायेगी और चलेगी नहीं। इन पोलों को सही ट्रैकों पे लाने के लिए हर बस के नीचे एक बांस का पोल होता है ,जिस के एक सिरे पर एक लोहे की हुक लगी होती है। इस पोल को बस के नीचे से निकाल कर बस के आऊट ऑफ ट्रैक हुए पोलों की हुक में फंसा कर और नीचे खींच कर फिर से बिजली के ट्रैक पे लाना होता है। दोनों पोलों को सही ट्रैक पे ले आने के बाद बस में फिर से पावर आ जाती है और बस फिर से चलने के काबल हो जाती है और यह काम भी कंडक्टर को ही करना होता है ।

यह काम कोई मुश्किल नहीं है ,आप धीरे धीरे सीख जाएंगे। बहुत दफा ऐसा भी हो जाता है कि ऊपर की बिजली की तारों का कोई हिस्सा टूट जाता है ,जिस के नतीजे से कोई बस भी आगे जा नहीं सकती ,जितनी बसें और भी पीछे से आ रही होती है सभी एक दूसरे के पीछे आ कर खड़ी होने लग जाती हैं,बसों की एक लाइन लग जाती है और इस के लिए हमारे मकैनिक आ कर ऊपर की तारों को रिपेअर कर देते हैं और सभी बसें फिर से चलने लगती हैं”।

और भी काफी कुछ इंस्पैक्टर लाली ने समझाया लेकिन ज़्यादा अब याद नहीं। कुछ देर और बातें करने के बाद लाली ने कहा, ” यह लो टोकन और कैंटीन में जा कर खा पी लो और टोकन कैंटीन वालों को दे देना और एक बजे फिर यहां आ जाना “. हम कैंटीन में चले गए और जी भर कर हम ने फ्री का खाना खाया। कैंटीन में बस कंडक्टर ड्राइवर आ जा रहे थे। हम बैठे उन को देख रहे थे और गप्पें हाँक रहे थे। एक बजे हम फिर ऑफिस में चले गए। लाली हमारा इंतज़ार कर रहा था। लाली बोला ,” आप की ट्रेनिंग दो हफ्ते की होगी, एक हफ्ता मैं तुम्हें यहां ट्रेनिंग दूंगा ,दूसरे हफ्ते तुम हर एक को एक टाइम टेबल दे दिया जाएगा और हर रोज़ तुम को एक एक रुट पर किसी दूसरे कंडक्टर के साथ जाना होगा जो तुम को ट्रेनिंग देगा। तुम टिकटें काटोगे और बस का कंडक्टर तुम को सिखाएगा । कैसे टिकट देना है ,कैसे चेंज देनी है ,फेअर लिस्ट को कैसे देखना है यानी अगर कोई पूछे कि उस ने किसी टाऊन को जाना है उस का किराया फेअर लिस्ट में कैसे देखना है ,यह सभी बस का कंडक्टर सिखाएगा। दो हफ्ते बाद तुम को खुद को काम करना होगा और तुम्हारी मदद करने वाला कोई नहीं होगा। इस लिए इन दो हफ़्तों में अच्छी तरह सीख लो।”

फिर लाली ने एक लोहे का बॉक्स खोला जो उस ने पास ही रखा हुआ था। बॉक्स में टिकट काटने वाली मशीन थी और उस में बहुत से ब्लैंक टिकट रोल भी थे। लाली ने मशीन को पीछे से खोला ,जिस में पांच टिकट रोल पड़े हुए थे ,हर रोल में पांच सौ टिकट निकाले जा सकते थे। यह टिकट 1 , 2 ,3 ,5 ,6 पैनी के होते थे। हर टिकट निकालने के लिए उस के साथ एक लीवर लगा हुआ था। लाली ने टिकट काटने शुरू किये। टिकट के लिए जो भी टिकट कॉटना हो ,उस के लीवर को नीचे दबाया जाता था और टिकट बाहर निकल आता था और फिर टिकट को ऊपर खींच कर फाड़ा जा सकता था। कई टिकट ऐसे होते थे जो दो फाड़ने पड़ते थे, जैसे 9 पैनी का टिकट किसी ने लेना होता था तो 6 और 3 के दो टिकट काटने पड़ते थे।

कई दफा एक शख्स चार पांच लोगों के टिकट मांग लेता था और एक पाउंड का नोट पकड़ा देता था। इस सब का हिसाब कम्प्यूटर की तरह जल्दी करना होता था और जल्दी से चेंज देनी होती थी क्योंकि यात्री इतने होते थे कि यह सब बिजली की तेजी से करना होता था और बस स्टॉप बहुत नज़दीक नज़दीक होते थे और हर स्टॉप पे दस पंदरा लोग उत्तर जाते और इतने ही चढ़ जाते। यह सब हमें तब मैहसूस हुआ जब हम खुद करने लगे थे। लाली ने हमें यह सब हमें ट्रेनिंग के दौरान समझाया था कि हमारा काम ऐसा होगा। काफी कुछ लाली ने हमें समझाया और हमें दूसरे दिन आने को कहा। सी ई मार्शल और ब्रुक हाऊस के बाद यह मेरा नया तज़ुर्बा होने चला था।

चलता . . . . . . . .

7 thoughts on “मेरी कहानी 78

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आज की कडी भी बहुत रोचक रही। आपकी ट्रेनिंग का हाल जानकर आनंद आया। पर एक शंका है। आपका चयन तो बस के ड्राइवर के रूप में किया गया था। फिर कंडक्टर वाली ट्रेनिंग क्यों दी गयी? बस चलाना कब सीखा था?

    • विजय भाई ,अभी आप का कॉमेंट पड़ा .बस की ट्रेनिंग कब ली यह भी मैं लिखूंगा जो काफी रोचक है . उस वक्त पहले सब को कंडक्टर ही बनना पड़ता था और आज किओंकि सभी बस्सें ONE MAN OPERATOR हैं ,इस लिए सभी को ड्राइवर ही रखा जाता है .

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त से बहुत सी नई ज्ञानवर्धक बाते पता चली। आप की नई आजीविका के लिए चयन और उसकी ट्रेनिंग का पूरा हाल भी पढ़ा। पूरा वर्णन बहुत दिलचस्प है। अगली क़िस्त पढ़ने की इच्छा है व उसकी प्रतीक्षा है. हार्दिक धन्यवाद एवं नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , हौसला अफजाई के लिए धन्यवाद .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    विस्तार से लिखा पढ यूँ लगता है जैसे हम उस समय वहां हों
    आँखों देखा हो

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    विस्तार से लिखा पढ यूँ लगता है जैसे हम उस समय वहां हों
    आँखों देखा हो

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहन जी ,बस आप का धन्यवाद ही कर सकता हूँ ,आप मेरी कहानी पड़ रहीं हैं और मुझे लिखने में दिलचस्पी भी बड्ती जाती है .

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