लघुकथा : बंद ताले
छोटे भाई की शादी थी। दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड। हाथ पैर ठिठुरे जाते थे, पर बराती बनने की उमंग में करीब १२० लोग लड़कीवालों के दरवाजे पर एक दिन पहले ही आन धमके।
पिताजी सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए जनमासे में चहल कदमी कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ दूरी पर 5-6 युवकों की टोली बड़े जोश से बातें करने में व्यस्त थे।
-क्या बात है, तुम लोग नहाये नहींॽ !पिताजी ने पूछा
-कैसे नहायें अंकल, बाथरूम में बाल्टी ही नहीं है।
-अभी बाल्टियाँ मंगवाए देता हूं और क्या चाहिए वह भी देख लो।
-मेरे बाथरूम में तौलिया भी नहीं है। दूसरा युवक बोला।
-ठीक है, चुटकी बजाते ही सब हाजिर हो जायेगा ।
पिताजी तो चले गये, पर लड़कों का लाउडस्पीकर चालू था।
-जब इंतजाम नहीं कर सकते तो ये लड़कीवाले बारातियों को बुला क्यों लेते हैं!
-अरे दोस्त, लगता है ये सस्ते में टालने वाले हैं। पर हम ऐसे सस्ते में टलने वाले नहीं ।
उनकी बातें विराम पर आना ही नहीं चाहती थीं, लेकिन सामने एक सेवक को बाल्टियों, तौलियों से लदा देख उनके बीच मौन पसर गया।
एक बुजुर्ग महाशय को जब यह पता चला कि बारातियों की मांगें पिताजी पूरी कर रहे हैं तो उनसे यह भलमानसता सही न गई।
, त्रिवेदी जी बोले लड़के के पिता होकर समधी के सामने इतना झुकना ठीक नहीं, आखिर हम सब हैं तो बराती| बाराती तो बाराती ही होते हैं ।
–लड़के -लडकी का रिश्ता हो जाने के बाद दो परिवार एक हो जाते हैं। मेरी तो यही कोशिश रहेगी कि दोनों के सुख-दुख, मान-अपमान की कड़ियाँ इस प्रकार बिंधी रहें कि भोगे एक तो अनुभूति हो दूसरे को। पिताजी शांत स्वर में बोले
सुनने वालों के दिमाग के ताले खुल चुके थे।
— सुधा भार्गव