पनाह !
तुझमे गर पनाह मिले ! तो मिले भी कैसे
मैंने समंदर की तरह बहना नहीं सीखा है
किनारे तोड़ के नदी सी भटकती हूँ कब से
मन की डोर बंधे तो रूकू! रुकना नहीं सीखा है।
ये उन्मुक्त वेग थमे भी! तो थमे कैसे
अलमस्त पवन हूँ मैंने बंधना नहीं सीखा है
जो कुछ पल सुकूँ मिले और मोह हटे तो सोचूँ
मैं कौन हूँ तुम कौन हो थमना नहीं सीखा है ।
मैं बंधन तोड़ भी दूँ गर ! तो तोडूं कैसे
इस चक्रव्यूह में घुस कर निकलना नहीं सीखा है
तुम सारथी बनो मेरे और मैं बनूँ अर्जुन
ये युद्ध क्षेत्र नहीं कर्म क्षेत्र है ये मैंने नहीं सीखा है ।
………………………………………………………अंशु (मन की बात)