मेरी कहानी 80
लाली के साथ हमारी ट्रेनिंग खत्म हो चुक्की थी। सोमवार को मैंने वर्दी पाई ,सर पर हैट ली और घर से चल पड़ा ,अब से मेरा बस का किराया भी फ्री था। वर्दी में मैं अपने आप को अजीब सा महसूस कर रहा था लेकिन अच्छा लग रहा था किओंकि वर्दी बहुत अच्छी बनी हुई थी। मेरे दुसरे दोस्त मुझ से पहले ही बस डैपो पहुँच चुक्के थे। बस डैपो पुहंचे तो हम सब को बता दिया गिया कि हम ने किस किस कंडक्टर के साथ काम करना था। मैंने एक अँगरेज़ लड़के रिचर्ड के साथ काम करना था। रिचर्ड का पूरा नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन यह मेरी उम्र का ही एक लड़का था जो बहुत चुलबुला हुशिआर लड़का था। मेरे बौक्स में से उस ने खुद ही मशीन निकाली और मेरे गले में लटका दी ,इसी तरह गले में दुसरी तरफ चमड़े का बैग डाल दिया।
हम ड्राइवर के साथ उस तरफ चल पड़े यहाँ बस्सें खड़ी थीं। कुछ दूर एक बस शैड में हम पहुँच गए यहाँ 100 के करीब बस्सें खड़ी थीं। एक दीवार पर बड़ा सा ब्लैकबोर्ड लगा हुआ था जिस पर टाइम के हिसाब से बस्सों के नंबर लिखे हुए थे। रिचर्ड ने मुझे ब्लैकबोर्ड पर लिखी बस्सों के बारे में समझाया कि इतनी बस्सों में से अपनी बस को कैसे ढूँढना था। फिर जिस बस में हम ने काम करना था उस को ढून्ढ कर उसमें हम दोनों चढ़ गए और ड्राइवर ने बस चलानी शुरू कर दी ,कोई धूँआ नहीं था ,बस की आवाज़ नहीं थी किओंकि कुछ बस्सें बिजली की पावर से चलती थी जैसे लाली ने हमें समझाया था। बस के ऊपर दो पोल थे जो ऊपर तारों के साथ जुड़े हुए थे जिस में पावर थी।
पहले दिन मैंने 58 नंबर रूट पे काम करना था जिस का नाम था डडली और बस वुल्वरहैम्पटन से डडली को जाती थी और वहां से ही वापस आती थी । चलती बस में जब मैं खड़ा हुआ तो मुझ से बैलेंस रखना मुश्किल हो रहा था। सीटों को पकड़ पकड़ कर मैं आगे बड रहा था। वुल्वरहैम्पटन स्नोहिल से जब हम ने सर्विस स्टार्ट की तो चार पांच लोग ही बैठे थे। रिचर्ड मेरे साथ था और मैंने टिकट देने शुरू कर दिए और पैसे लेकर चेंज भी देनी शुरू कर दी लेकिन बहुत धीरे धीरे। रिचर्ड मुझे देख रहा था कि मैं कितनी चेंज वापस कर रहा हूँ। जैसे जैसे हर स्टॉप से लोग चड़ते गए मेरी स्पीड भी बड़ने लगी। सुबह का वक्त था और डडली तक पहुँचते पहुँचते मुझे काफी कुछ समझ में आ गिया था। मुझे मालुम था कि मैं गल्तिआं भी कर रहा था लेकिन रिचर्ड मुझे हौसला दे रहा था और कह रहा था ” you are doing well mr. bhamra !”.
जैसे जैसे दिन चढ़ता गिया यात्री भी बढ़ने लगे और मेरी स्पीड भी बढ़ने लगी। सारा दिन मैं काम करता रहा ,कभी नीचे कभी बस की ऊपर की मंजिल पर। ऊपर नीचे भाग भाग कर मेरी कसरत हो रही थी। रिचर्ड मेरे लिए घंटी बजा रहा था क्योंकि कभी किसी ने उतरना या चढ़ना होता तो ड्राइवर को घंटी की जरुरत थी ताकि वोह सही तरीके से बस चला सके। पहले दिन मुझे कुछ हौसला हो गिया। कभी कोई यात्री किसी जगह का किराया पूछता तो मैं किराए वाली किताब(fare list ) को निकाल कर ,उस पर देख कर बताता और टिकट काट देता। दूसरे दिन मैं किसी और कंडक्टर के साथ था और अब मैं घंटी भी खुद बजाने लगा था । बहुत हद तक मैं अपने आप पर हो गिया था लेकिन कभी जरुरत पड़ती तो ड्यूटी कंडक्टर मदद कर देता। नए नए कंडक्टर को पैसे गिनने मुश्किल होते थे ,इस के लिए हर कंडक्टर को कपडे के बैग दिए जाते थे जिस में सारी चेंज डाल ली जाती थी. ड्यूटी खत्म करके कैश रूम में पैसे गिनने के लिए जो बड़े बड़े स्टील के टेबल होते थे उन के ऊपर सारे पैसे ढेरी कर देते थे और फिर गिण गिण कर पेपर बैगों में भरते जाते। ड्यूटी शुरू होने से पहले हमें एक शीट दी जाती थी जिस को way bill कहते थे। पहले उस पर हम अपना नाम ,roll number,ड्यूटी नंबर और टिकटों के शुरू करने के सभी नंबर लिखते थे और जब ड्यूटी खत्म होती थी तो way bill पर टिकटों के closing numbers लिखते थे। जब हम हिसाब करते तो हमें पता चल जाता था कि कौन कौन सी टिकटें कितनी बेचीं गईं और कितने पाउंड हुए। फिर हम way bill पर टिकटों का इकठे किये गए पैसों का मैच करते थे। कई दफा कुछ पैसे कम हो जाते थे और कई दफा कुछ ज़्यादा होते थे। अगर कम होते तो हम जमा तो करवा देते लेकिन हफ्ते के आखिर में हमारी तन्खुआह से काट लिए जाते थे ,इस लिए काम करते वक्त हम बहुत धियान रखते थे कि चेंज किसी को ज़्यादा न दी जा सके।
शुकरवार को हर एक का टैस्ट लिया जाना था। अगर पास हो गए तो फिर हम काम पर पक्के हो जाना था ,अगर फेल हो गए तो एक हफ्ते की ट्रेनिंग और दी जानी थी। शुक्रवार को जब मैंने काम शुरू किया तो इंस्पैक्टर लाली मेरी बस में चढ़ गिया। उस के हाथ में एग्जामिनेशन शीट थी जिस पर वोह मेरी हर हरकत को लिख रहा था। कभी कभी वोह लोगों की टिकटें चैक करता और देखता कि मैंने सही टिकटें दी थीं या गलत। जब सभी टिकटें काट ली जाती थी तो हम लोगों को ऊंची ऊंची आवाज़ में शाऊट कर के बार बार पूछते रहते थे कि ,”any more fares please !”. यानी कोई टिकट के बगैर तो नहीं बैठा था। अगर कोई बगैर टिकट के बैठा होता तो वोह अपना खाथ खड़ा कर देता और हम उस को टिकट दे देते थे। लाली यह सब देख देख कर अपनी शीट पर लिख रहा था। क्योंकि घंटी का महत्व बहुत था ,लोगों को चढ़ा कर ड्राइवर को आगे जाने का इशारा करना ,किसी ने उतरना हो तो घंटी बजाना , फिर चलने का इशारा करना यह बहुत काम थे लेकिन मैं अब हुशिआर हो गिया था और सब काम फुर्ती से कर रहा था। एक घंटे बाद लाली ने मुझे बता दिया कि मैं पास हूँ। इस के बाद लाली दूसरे कंडक्टर का टैस्ट लेने के लिए चल पड़ा और हम अपने काम में बिज़ी हो गए। सारा दिन काम करके घर आया और बेफिक्र हो गिया।
सोमवार से मेरे साथ किसी को भी नहीं होना था लेकिन यह हफ्ता काम करके मुझे लाली की बातें अब समझ आने लगीं। लाली ने कहा था ,” दोस्तो ! कस्टमर हमेशा अच्छी सर्विस चाहता है ,उस को आप की किसी भी बात से दिलचस्पी नहीं होती कि आप की काम पर किया मुश्कलें हैं ,काम पर किया तकलीफें हैं ,आप घर के किसी मामले के कारण भीतर में दुखी हैं , उस को तो सिर्फ बस में सीट चाहिए और उस का सफर कम्फर्टेबल हो। ज़रा सोचो ! अगर आप किसी बैंक में जाते हो तो आप किया चाहते हैं ,यही न कि बैंक अधिकारी आप से मुस्करा कर बोले ,आप को बोले how can i help you ?. तो आप रिलैक्स हो कर अपना काम बताएँगे। कुछ मिनटों में वोह आप का काम कर दे तो आप उस को thank you बोलेंगे। अगर यही बैंक अधिकारी आप की तरफ देखता ही नहीं और बोलता भी है तो सीधे मुंह बात भी नहीं करता तो आप किया करेंगे ,आप उस की रिपोर्ट मैनेजर से करेंगे और उस अधिकारी को वार्निंग हो जायेगी ,अगर फिर भी उस का बिहेवियर नहीं बदला तो उस को काम से छुटी हो जाएगी। इसी लिए इंग्लैण्ड में कस्टमर केअर की ट्रेनिंग दी जाती है। कस्टमर को इस से कोई मतलब नहीं होता कि किसी भी कर्मचारी पर कितना काम का या घर का प्रेशर है ,उस को तो अच्छी सर्विस चाहिए। बस के ड्राइवर और कॅंडकटर दोनों को अच्छी सर्विस देनी होगी। अगर ड्राइवर अपनी बस को अच्छी तरह नहीं चलाता ,बार बार जोर जोर से ब्रेक मारता है जिस से पैसेंजर गिर जाए ,उन के चोट लग जाये तो वोह ड्राइवर काम करने के काबल नहीं होगा और उस को काम से छुटी हो जायेगी। एक बात और कि अगर कोई पैसेंजर बस में आप से लड़ता है ,आप को गाली निकालता है तो आप उस को कुछ नहीं बोलेंगे और ना ही उस को हाथ लगाएंगे। अगर कोई खतरा महसूस हो तो आप पुलिस को टेलीफून कर दो और इस के बाद पुलिस ही उस से बात करेगी। आप सिर्फ बस में बैठे लोगों से गवाही के लिए उन के नाम और पते अपनी डायरी में लिख लें। बस में बैठे लोग बहुत होंगे जो आप के गवाह बन जाएंगे। ड्यूटी खत्म करके आप को रिपोर्ट फ़ार्म भरना पड़ेगा कि बस में किया किया और कहाँ हुआ था ,साथ ही गवाहों के नाम और पते लिखेंगे। रिपोर्ट लिख कर डैपो में क्लर्क को दे देंगे। सारांश यही है कि आप पब्लिक को अच्छी से अच्छी सर्विस दोगे “.
मैं सोचने लगा कि यह बातें तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी कि मैं खुद भी जब किसी भी ऑफिस में जाता था तो एक दो मिनट से ज़्यादा वक्त लगता ही नहीं था। कई दफा घर के बिल बहुत जमा हो जाते थे ,जैसे बिजली गैस पानी और काऊन्सल टैक्स के तो मैं काम पर जाने से आधा घंटा पहले चले जाता था और सभी दफ्तरों में जा कर बिल की अदाएगी करके काम पर चले जाता था ,हर दफ्तर में दो तीन मिनट से ज़्यादा लगता ही नहीं था। हर जगह दो तीन काउंटर होते थे ,लाइनें लगी हुई होती थीं ,अगर किसी काऊंटर पर कोई न होता तो गोरी next please कह कर आवाज़ दे देती थी और कुछ लोग उस काउंटर पर चले जाते। इस के विपरीत जब राणी पुर से मैं फगवाडे. बिजली घर में बिजली का बिल जमा कराने के लिए जाया करता था तो कलर्क का मुंह देख कर ही मन को कुछ होने लगता था और कई घंटे पैसे जमा कराने को लग जाते थे। फिर जब मैंने पासपोर्ट बनवाया था तो कितनी मुश्कलें पेश आई थी। दो मिनट के काम के लिए कितने कितने दिन लग जाते थे ,वक्त की कोई अहमियत ही नहीं थी। इंडिया में तो हर जगह एक ही बात होती थी ,वोह थी रिश्वत। अब तो इस को रिश्वत भी नहीं मानते थे ,इस को फीस कह देते थे कि उस क्लर्क की इतनी फीस है ,उस को फीस दे दो और काम हो जाएगा।
मैं सोचने लगा कि यहां बिजली का बिल जमा कराने के लिए अगर पांच मिनट भी लगें और इंडिया में दो घंटे भी लगें तो हम इंडिया में कितने प्रतिशत इंग्लैण्ड से पीछे हैं। अगर एक गरीब रिक्शा वाला बिजली का बिल जमा कराने के लिए जाता है तो उस का कितना नुक्सान होता है। और पंजाब की बसों में तो मैंने बहुत कुछ देखा हुआ था। यहां तो लाली कहता था कि हमारी छोटी सी भी चोरी के कारण एक दम काम से छुटी कर दी जायेगी और कोई अपील भी नहीं होगी तो मैं मन ही मन में हंस पड़ा। बहुत साल पहले हम अनंद पुर साहब को होला महल्ला देखने के लिए बस में जा रहे थे और कंडक्टर ने बहुत से लोगों को टिकट नहीं दिया था। जब अनंद पर साहब के नज़दीक आये तो कंडक्टर ने सभी से पैसे ले लिए और किसी को भी टिकट नहीं दिया था और ना ही लोगों ने टिकट के लिए पुछा था। रास्ते में एक इंस्पैक्टर भी चढ़ा था लेकिन वोह दोनों आपस में हंस हंस बातें कर रहे थे और यह सभी जानते थे कि यह सभी आपस में पैसे बाँट लेंगे।
एक दफा हम दोनों मिआं बीवी चंडीगढ़ से बस में आ रहे थे लेकिन हमें बस सरहंद तक ही मिली थी। सरहंद से आगे हमें बस मिल नहीं रही थी। और भी बहुत लोग थे और परेशान थे। तीन चार बज गए थे और हमें चिंता हो रही थी कि कैसे घर पहुंचेंगे। तभी एक आदमी आया और धीरे से बोला ,” किसी ने नमे शहर तक जाना है तो आ जाएँ “. हम ने सोचा चलो नमे शहर तक ही सही और वहां से फगवाडे. के लिए और बस ले लेंगे। पंद्रा बीस लोग इस बस में बैठ गए लेकिन किसी ने भी हमें टिकट नहीं दिया। जब नमे शहर के नज़दीक आये तो कंडक्टर ने तीन तीन रूपए हम से मांगे। सभी ने पैसे दे दिए लेकिन किसी को भी टिकट नहीं दिया गिया। कहाँ यह बस जा रही थी और क्यों टिकट नहीं दिया गिया, हमें कुछ नहीं पता चला। और इधर लाली ने बताया था कि कुछ शिलिंग की हेरा फेरी करने से काम से छुटी हो सकती थी।
सोमवार को मैं अपने आप पर हो गिया था। जवानी की उम्र थी और थकान नाम की कोई बात ही नहीं थी। ऊपर नीचे, नीचे ऊपर सारा दिन यही काम होता था। और तो सब कुछ ठीक था लेकिन एक बात की मुझे तकलीफ हुई थी और यह थी हर रोज़ ड्यूटी का टाइम बदला जाना। आज सात बजे स्टार्ट करते तो दूसरे दिन शाम को तीन बजे ,तीसरे दिन सुबह चार बजे और दूसरे दिन दुपहर को बारह बजे। कई दफा रात को बारह बजे खत्म करते तो दूसरे दिन सुबह पांच बजे काम पर आना पड़ता ,यानी सोने के लिए कुछ घंटे ही मिलते थे। ऐसे में हम दिन के वक्त ड्यूटी खत्म करके घर आ कर सो जाते थे। कोई ड्यूटी ऐसी होती थी कि पहले सुबह को चार साढ़े चार घंटे काम करना और फिर शाम को चार पांच घंटे काम करना (इस को split ड्यूटी बोलते थे ). उन दिनों को याद करके आज हंसी भी आती है कि बहुत दफा मेरी घड़ी का अलार्म बज कर बंद हो जाता था और मुझे जाग नहीं आती थी क्योंकि बचपन से ही मेरी नींद बहुत अच्छी रही है। ऐसे में गियानी जी अपने कमरे में से उठ कर मेरे कमरे में आ जाते थे और मुझे हिला हिला कर कहते ,” ओ गुरमेल ओ गुरमेल ,काम पर नहीं जाना ?” मैं हड़बड़ा कर उठता और जल्दी जल्दी तैयार हो कर काम पर भाग जाता।
एक दफा तो मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आया कि मुझे जाग क्यों नहीं आती। मैंने दीवार पर एक कील गाडा और क्लॉक को एक रस्सी से बाँध कर उस कील के साथ बाँध दिया जिस से कलौक बिलकुल मेरे सर के कुछ इंच ऊपर ही लटक रहा था। जब क्लॉक बजता तो मेरे सर के नज़दीक होने से मुझे जाग आ जाती लेकिन एक दिन इस तरह भी क्लॉक बज कर बंद हो गिया और मैं सोता रहा । गियानी जी और जसवंत दोनों मेरे कमरे में आ कर और टंगे हुए क्लॉक को देख देख कर हंस रहे थे। मुझे जाग आ गई और मैं बहुत शर्मिंदा हो गिया था । फिर मैं उठ कर तैयार हुआ और काम पर चले गिया। यह सब रोज़ रोज़ की शिफ्ट बदलने के कारण था क्योंकि नींद का सिस्टम बिगड़ गिया था लेकिन धीरे धीरे मैं इस का आदि हो गिया था लेकिन इस बात को याद करके जसवंत अक्सर हँसता रहता था कि गुरमेल ने क्लॉक इस तरह बाँधा हुआ था जैसे कुकड़ टंगा हुआ हो । हा हा वोह भी किया दिन थे !
चलता. . . . . .
भाई साहब, आपकी हर क़िस्त बहुत रोचक होती है. आपने जितना कठिन परिश्रम किया और सफलता पायी, वह सबके लिए प्रेरणा का स्रोत है.
विजय भाई , धन्यवाद .दरअसल वोह दिन सभी के लिए बहुत कठिन थे . पैर ज़माने के लिए पहली पीड़ी को हमेशा मुश्किल दौर से गुजरना पड़ता है . आज तो यहाँ के पड़े लिखे बच्चे अंग्रेजों के साथ घुल मिल गए हैं लेकिन उस वक्त हम तो ऐसे थे जैसे इंडिया में दलित होते हैं . यहाँ की असलीअत इंडिया के लोगों को कभी बताई नहीं गई और मुझे यह सब लिखने में कोई शर्म नहीं है .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त पूरी पढ़ी और बहुत अच्छी लगी। आपने काम सीख लिया है और आपकी नौकरी पक्की हो गई है। आपकी ड्यूटी का बार बार बदलना और आपको स्वयं को उसमे ढालना बहुत कठिन लग रहा है। आपने यह कर दिखाया, इसके लिए आपको बधाई।
मनमोहन भाई , धन्यवाद . यह रोज़ रोज़ डिउटी बदलना बहुत मुश्किल था लेकिन धीरे धीरे सब ठीक ठाक हो रहा था . एक बात बताऊं कि जिंदगी में बहुत सखत काम किया .बहुत बातें लिख नहीं हो रहीं ,न ही लिखना संभव है लेकिन सारी जिंदगी सखत मिहनत की और आज हम कम्फर्टेबल पेंशन से अपनी ओल्ड एज बिता रहे हैं ,यह ही मेरी मिहनत का मुआवजा है .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। कठिन मेहनत कर मनुष्य जो धन कमाता है वही धर्म पूर्वक कमाई करना होता है। इससे जो सुख मिलता है वह कामचोरी करके पैसे कमाने वालों को कभी नसीब नहीं होता। आपने जीवन में जो सुख भोगा है, वह अन्य धनवानों से कहीं अधिक संतोष देने वाला रहा होगा, ऐसा मुझे लगता है। आपने काम नहीं जीवन में तपस्या की है. आपका रोजगार ही आपकी तपस्या था। तपस्या का यह गुण आपकी संतानों में भी अवश्य होगा जो उन्हें सफलता की ऊंचाइयों पर ले जाएगा। हार्दिक धन्यवाद।