ग़ज़ल
शीतल ऋतु के नैन खुले, मौसम नैनों का नूर हुआ।
जाग उठा जगती का कण-कण, क्षितिज सर्द सिंदूर हुआ।
बाग-बाग चहके चिड़िया से, रंग-रंग के फूलों संग,
कलियों की मनुहारों से, भँवरों का मन मगरूर हुआ।
सुविधाओं की उड़ीं पतंगें, नई उमंगें संग लिए,
कुदरत हुई कृपालु सृष्टि का, दरियादिल दस्तूर हुआ।
चारु चंद्रिका चली विचरने, शीत-निशा के प्रांगण में,
सरिताओं का देख मचलना, सागर मद में चूर हुआ।
कलमों पर वो चढ़ी खुमारी, लगे झूमने गीत गजल,
और “कल्पना” हर सरगम-सुर, सारंगी संतूर हुआ।
— कल्पना रामानी