ग़ज़ल
सच सरेआम सताया जा रहा है,
झूठ का महल सजाया जा रहा है
कल तलक जो कटघरे में खड़े थे
उन्हें हाकिम बनाया जा रहा है
मिल रही हैं गद्दारों को जागीरें,
शहीदों को भुलाया जा रहा है
कभी पैरों की अपने धूल थे जो,
उन्हें सर पे बैठाया जा रहा है
वादे करके झूठे सपने दिखा के,
हमारा दिल बहलाया जा रहा है
शाम होती है शायद जिंदगी की,
छोड़कर अपना साया जा रहा है
नहीं करना है जो इंसाफ तो फिर,
क्यों ये मजमा लगाया जा रहा है
— भरत मल्होत्रा।