ग़ज़ल
फूल हमेशा बगिया में ही, प्यारे लगते।
नीले अंबर में ज्यों चाँद-सितारे लगते।
बिन फूलों के फुलवारी है एक बाँझ सी,
गोद भरे तो माँ के राजदुलारे लगते।
हर आँगन में हरा-भरा यदि गुलशन होता
महके-महके, गलियाँ औ’ चौबारे लगते।
दिन बिखराता रंग, रैन ले आती खुशबू
ओस कणों के संग सुखद भिनसारे लगते।
फूल, तितलियाँ, भँवरे, झूले, नन्हें बालक
मन-भावन ये सारे, नूर-नज़ारे लगते।
मिल बैठें, बतियाएँ इनसे, जी चाहे जब
स्वागत में ये पल-पल बाँह पसारे लगते।
घर से बेघर कभी ‘कल्पना’ करें न इनको
तनहाई में ये ही खास हमारे लगते।
— कल्पना रामानी
बहुत शानदार ग़ज़ल !