ग़ज़ल
इंसान दरिंदों में, शैतानों में बंट गया,
ईमान भी राशन की दुकानों में बंट गया
रहता था कल तलक जो मिलजुल के साथ में,
ना जाने क्यों वो खोखली शानों में बंट गया
ना वो मौसिकी रही ना ही वो गज़लगो,
संगीत जब बेसुरों की तानों में बंट गया
अब सांझे आँगनों में कैसे खेलेंगे बच्चे
मेरा मुहल्ला पक्के मकानों में बंट गया
अफसोस की है बात कि इंसानियत का दौर,
पूजा की घंटियों में अजानों में बंट गया
देखता रहा खड़ा आम आदमी और मुल्क,
चोरों, लुटेरों, झूठे, बेईमानों में बंट गया
— भरत मल्होत्रा।