संस्मरण

मेरी कहानी 83

बहादर और लड्डा यानी बहादर का छोटा भाई हरमिंदर कभी कभी शनिवार या रविवार को आते ही रहते थे. क्यूंकि उस समय टेलीफून तो होते नहीं थे, इस लिए वोह अचानक ही आ जाते थे. मेरे लिए मुश्किल यह होती थी कि मैं एक रविवार काम पे जाता था और एक रविवार को छुटी होती थी. जब यह आते तो मुझे रविवार को काम पर ना जाने के लिए जिद करते. मैं बताता कि मेरे लिए यह मुश्किल था लेकिन दिल मेरा भी भीतर से कहता होता था कि मैं काम पे ना जाऊं. जब यह दोनों बार बार मुझे कहते तो आखर में मैं भी हाँ कर ही देता और कहता कि पहले मैं डिपो जा कर सारे हफ्ते की ड्यूटी शीट बॉक्स में डाल आऊँ जो हर एक को हफ्ते बाद डालनी पड़ती थी। लड्डा और बहादर खुश हो जाते और हंसने लगते और हम तीनों मेरे डैपो की ओर चलने लगते और वहां पहुँच कर सारे हफ्ते का हिसाब करके शीट बॉक्स में डाल देता। अब हम फ्री होते थे और मटरगश्ती करने निकल पढ़ते। कभी कभी हम डार्लेस्टन रीगल सिनीमे में फिल्म देखने चले जाते और कभी सैर करते करते किसी पब्ब में चले जाते। डार्लेस्टन के इसी रीगल सिनीमे में हम ने जतिंदरा की शायद पहली फिल्म थी “गीत गाया पत्थरों ने ” देखी थी. यह सिनिमा शो शनिवार और रविवार को ही होते थे।

इसी तरह एक दिन हम घूमते घूमते वाटरलू रोड पर नए बने एक पब्ब BARLEY MOW में चले गए। हम तीनों एक टेबल पर बैठ गए और बातें करने लगे। कुछ ही दूर एक बड़े टेबल पर आठ दस इंडियन और भी बैठे थे जिन में उनका एक पाकिस्तानी दोस्त भी बैठा था। वोह बातें कर रहे थे और कुछ देर बाद हम भी उन की बातों में हिस्सा लेने लगे। बातें करते करते बात सिआसत की होने लगी। इसी दौरान वोह पाकिस्तानी लड़का इंडिया के खिलाफ बातें करने लगा। वोह तो सभी दोसत थे और शायद रोज़ ही ऐसी बातें करते होंगे क्योंकि बहुत वर्षों बाद मुझे पता चला था कि वोह सभी कौमनिस्ट विचारों के थे और अपने आप को कामरेड कहलाते थे लेकिन लड्डे को उस पाकिस्तानी की बात पर गुस्सा आ गिया। लड्डा गुस्से वाला था और उस से झगड़ा करने लगा। लगता था झगड़ा बड़ जाएगा लेकिन उन लोगों में एक लड़का था जो मैंने इंडिया में देखा हुआ था और पलाही गाँव का था. शायद उस ने भी हमें देखा हुआ था। बहुत देर बाद मुझे पता चला था कि यह लड़का मेरे दोस्त का ही छोटा भाई था और इस का नाम प्यारा सिंह था। इस लड़के ने बात को बदल कर और हंस कर बोला, ” यारो ! तुम कौन से गाँव के हो ?” हम ने कहा राणी पुर। वोह जोर से हंसा और बोला, ” यार ! तुम तो हमारे भाई हो , हम पलाही के हैं और तुम्हारे गाँव का मास्टर स्वर्ण सिंह हमारे गाँव के स्कूल का हैड मास्टर हुआ करता था । इस बात से सब हंसने लगे और एक ही टेबल पर इकठे हो गए। अब माहौल खुशगवार हो गिया था। जब हम उठ कर चलने लगे तो एक दूसरे के साथ हाथ मिला रहे थे।

हम घर आ गए और लड्डा रोटीआं पकाने लगा। मीट बना हुआ था और हम तीनों ने मज़े ले ले कर रोटीआं खाईं, पतीले में ही खाते रहे क्योंकि अगर प्लेटें लेते तो आखर में हम ने ही धोनी थी । फिर मैंने अपनी पत्नी का खत बहादर को दिखाया और फोटो भी दिखाई। फोटो देख कर बहादर बोला, “बई गुरमेल ! तेरी वाइफ तेरे से ऊपर है “. फोटो बहुत अच्छी और स्मार्ट थी और लगता भी ऐसा ही था। क्योंकि कोई बात हम आपस में छुपाते नहीं थे, इसी लिए ही मैंने खत भी बहादर को दिखा दिया था। खत में बार बार हर लाइन में जी शब्द लिखा हुआ था। इस बात पर बहादर इस जी शब्द की मिमक्री करने लगा और हंसने लगा। कुछ देर बाद दोनों बर्मिंघम को वापस चले गए। जब मैं बर्मिंघम को जाया करता था तो जगदीश भी आ जाता था और हम चारों घूमने चल पड़ते थे। हरमिंदर कुछ गुस्से वाले सुभाव का था और कभी कभी बहादर और हरमिंदर की आपस में बोल चाल बंद भी हो जाती थी, तो इस हालत में मैं दोनों को मनाया करता था। जगदीश भी मनाने की कोशिश करता था और हमारी मिहनत रंग ले आती थी और हम दोनों उन के हाथ मिला देते थे, जिस के कारण माहौल फिर से खुशगवार हो जाता था। यह कोई सीरीयस लड़ाई नहीं होती थी बल्कि जैसे दो भाईओं में अक्सर हो जाती है, ऐसा ही होता था।

अब ज़िंदगी भर के लिए मैं ड्राइवर बन गिया था। रोज़ नए नए कंडक्टर मेरे साथ आते। आठ या नौ घंटे की ड्यूटी होती थी और उस में कोई ब्रेक नहीं होती थी। कभी बस विक्टोरिआ सुकवाएर के पास होती तो हम भाग कर कैंटीन में चाय और सैंडविच ले लेते। कई दफा एक मोबाइल कैंटीन जो मैनेजमेंट की तरफ से हमारे लिए होती थी, किसी सड़क पर आ कर खड़ी हो जाती और बस खड़ी करके हम मोबाइल कैंटीन में बैठ कर चाय पीते और गर्म गर्म सैंडविच खाते। यह कैंटीन बस से कुछ छोटी वैन के साइज़ की होती थी जिस में पांच छै बैठने के लिए सीटें भी होती थीं। बस में बैठे लोग सबर से हमारा इंतज़ार करते रहते थे क्योंकि उन को पता होता था कि हम ने ब्रेकफास्ट लेना था। कभी ड्यूटी खत्म करके हम कैंटीन में जा कर बैठ जाते और साथिओं के साथ गप्प छप करते और ताश खेलते रहते। जमेकन लोग डौमिनोज़ खेलते रहते और मोहरों को जोर जोर से डौमिनो के बोर्ड पर मारते। कैंटीन हर दम भरी रहती थी। कोई आता कोई जाता, सारा दिन ऐसा ही चलता रहता था। कई दफा हम कैंटीन में ही डिनर खा लेते, इस से हमें घर जा कर बनाने से छुटकारा मिल जाता था।

एक दिन घर आ कर मैंने गियानी जी को भी बता दिया कि मैं जल्दी ही इंडिया जाने वाला था क्योंकि मेरे घर वाले मेरी शादी के लिए जोर दे रहे थे। गियानी जी बोले कि यह तो बहुत अच्छी बात थी। हम ने काफी बातें कीं। कुछ देर बाद गियानी जी बोले, “गुरमेल ! एक बात मैं भी बहुत देर से सोच रहा था कि जसवंत भी इंडिया चला जाए और इंडिया जा कर शादी करवा ले, मेरे इंडिया वाले छोटे भाई ने ही जसवंत के रिश्ते की बात की थी और लड़की के पिता को मैं भी जानता हूँ जो एक दफा इलेक्शन में खड़ा भी हुआ था, उन का गाँव स्रीं शंकर है । अगर तू जा रहा है तो यह तो बहुत अच्छी बात है और तुम दोनों इकठे ही इंडिया चले जाओ और शादी करा लाओ “. गियानी जी की बात सुन कर मैं खुश हो गिया कि इकठे जाने से हमारा सफर बहुत मज़ेदार रहेगा। मेरा भी बड़ा काम ड्राइविंग टेस्ट पास करने का ही था तो वोह तो मिल गिया था, इस लिए अब मैं फ्री था। फ्री इस लिए था कि मुझे मालूम था कि इंडिया से वापस आने पर मुझे जॉब मिल ही जायेगी। मेरा पासपोर्ट रीन्यू होने वाला था क्योंकि उस समय पासपोर्ट पांच साल के लिए ही मिलता था, सो मैंने ऐप्लिकेशन फ़ार्म भरके पासपोर्ट के साथ इंडियन हाई कमीशन बर्मिंघम को भेज दिया। गियानी जी भी जसवंत की तैयारियों में मसरूफ हो गए। मैं और जसवंत हर रोज़ अब इंडिया की बातें करते रहते। इंडिया जाने का एक चाव सा था। पांच साल हो चुक्के थे इंडिया देखे हुए। पुराने दोस्तों की याद आने लगी थी, उन से मिलने का एक उत्साह सा था, राणी पुर की गलिओं में खेतों में और ख़ास कर फगवाढ़े के रामगढ़िया हाई स्कूल और कालज को देखने का। माँ दादा जी और छोटे भाई निर्मल को भी देखने का चाव सा था।

अब मैंने बहादर को भी बता दिया था कि मैं इंडिया जा रहा हूँ। वोह भी खुश हो गए। आज मैं सोचता हूँ कि यह तो ठीक है कि हम ने बहुत सख्त काम किया था लेकिन मेरी और बहादर की कम्पनी ऐसी थी कि हम को कुछ मालूम ही नहीं हुआ। माना, काम का प्रेशर बहुत था लेकिन जब वीकैंड पर मिलते तो सब कुछ भूल जाते और मज़े करते। इसी साल जब जुलाई की छुटियाँ थी तो एक दिन बहादर लड्डा और एक आदमी और था, आये थे , जिस का फगवाढ़े पुलिस स्टेशन के सामने जनता मैडीकल स्टोर होता था जिस से हम डाक्टर गोपाल सिंह के लिए दुआइआं लाया करते थे। इन्होने साउथहॉल जाने का प्रोग्राम बनाया हुआ था और मुझे भी साथ जाने को बोला जो मैंने भी उसी वक्त मान लिया। मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि हम कैसे लंडन साउथहॉल गए। मुझे लगता है कि उस वक्त बहादर या लड्डे ने एक गाड़ी ले ली थी जिस का नाम था “हिलमैन इम्प “. खैर हम पाँचों साउथहॉल पुहंच गए। वहां मोहणी और सोहणी दो भाई रहते थे जिन से बहादर की फैमिली का बहुत प्रेम होता था। यह दोनों भाई माधो पुर गाँव के थे जो हमारे गाँव से सिर्फ दो अढ़ाई मील ही दूर है। मोहणी तो हमारे स्कूल में ही पड़ता था लेकिन सोहणी हम से कई साल बड़ा था। बहादर के पास इन का ऐड्रेस था, इस लिए हम ने जल्दी ही उन का घर ढून्ढ लिया। वोह दोनों भाई बहुत खुश हुए और हमें एक क्लब्ब में ले गए और बीअर पिलाई और उस के बाद खाना भी खिलाया। बहादर और सोहणी मोहणी के दोनों खानदानों का छोटा सा इतहास हैं कि इन की इतनी मुहबत क्यों थी। बहादर ने ही मुझे बताया था कि एक दफा मोहणी सोहणी के दादा किसी कतल केस में फंस गए थे और उन को उम्र कैद या फांसी हो सकती थी। तभी बहादर के दादा जी ने उस को वरी करवाया था क्योंकि उस समय बहादर के दादा जी का रसूख बहुत होता था। इस के बाद ही बहादर के दादा और मोहणी सोहणी के दादा धर्म के भाई बन गए थे और इन दो खानदानों का आपसी प्रेम बहुत था।

मोहणी सोहणी से मिल कर हम जनता मैडीकल स्टोर वाले के साथ हो लिए और वोह हम को अपने एक दोस्त को मिलाने चल पड़ा। उस का वोह दोसत हमें एक फ़ुटबाल ग्राउंड में मिला यहां कुछ लड़के फुटबॉल खेल रहे थे। इस शख्स को भुल्लर साहब बोलते थे। भुलर हमें स्टेडियम की जिमखाना क्लब्ब में ले गिया। वहां हमारे इंडियन लड़के बड़े से जग्ग में बीअर डाले हुए सभी को सर्व कर रहे थे, जग्ग में बीअर देख कर हम बड़े हैरान हुए थे । यहां इंडिया जैसा माहौल ही था। एक बात थी कि यह जनता मेडिकल स्टोर वाला फूलिश बातें करके करके हमें बोर बहुत कर रहा था और हम उस से तंग आ गए थे। यहां से हम साउथहॉल हाई स्ट्रीट में आ गए यहां इंडियन लोग बहुत थे। हम चले जा रहे थे कि मैं हैरान हो गिया जब सामने से मेरे रामगढ़िया स्कूल के दोस्त निर्मल और जीत भुल्ला राई वाले दिखाई दिए. मिल कर हम इतने खुश हुए को वोह अपने साथ जाने को कहने लगे लेकिन मैने कहा कि मैं तो बहादर के साथ हूँ। वोह फिर भी ज़िद करने लगे तो मैंने बहादर से पुछा कि मैं किया करूँ। बहादर भी कुछ अपसैट हो गिया कि मैं तो उन के साथ आया था। निर्मल बहुत जोर पा रहा था कि मैं उन के साथ चलूँ। आखर में पता नहीं कैसे मैं उन के साथ चल पड़ा। बहादर कुछ नाराज़ सा दिखाई दे रहा था लेकिन मैं निर्मल के आगे सुरंडर हो गिया था और रिलक्टैंटली उन के साथ चल पड़ा। निर्मल जीत और मैंने उस रात बहुत मस्ती की। जीत के पास गाड़ी थी और वोह रात को मुझे साउथहॉल की सैर कराने चल पड़े। साउथहॉल में एक प्रसिद्ध पब्ब ग्लॉसी जंक्शन है। उस समय इस का नाम कुछ और था। गर्मिओं के दिन थे और सभी बाहर लान में बैठे बीअर के ग्लास हाथों में लिए गप्पें मार रहे थे। हम भी ग्लास ले कर बाहर आ कर बैठ गए। मैं हैरान हो गिया कि हमारे कालज के ही कुछ लड़के जो एम ए में पड़ते थे वहां बैठे थे। मैं उन के नाम तो नहीं जानता था लेकिन हम ने एक दूसरे को देखा हुआ था। उन से हाथ मिलाये, बहुत बातें कीं।

दूसरे दिन जीत और निर्मल मुझे लंदन घुमाने ले गए। पहले प्लैनिटोरियम दिखाया जिस के भीतर जब गए तो ऐसे लगा जैसे हम तारों भरे आसमान के नीचे बैठे हैं। किया हमें बताया गिया था, अब याद नहीं लेकिन यह सब स्पेस के बारे में ही था जो हमें बहुत अच्छा लगा था। इस के बाहर आ कर नज़दीक ही MADAME TUSSADE का म्यूजियम था। जीत ने ही टिकट लिया लेकिन मुझे नहीं बताया कि इस में किया था। जब हम भीतर गए तो ऐसे लगा जैसे लोग शीशों के पीछे खड़े हैं। मैं सोचने लगा कि यह लोग यहाँ कियों खड़े हैं। जब लोग जाते जाते नीचे देख रहे थे तो मुझे समझ आई कि यह तो स्टैचू थे जो वैक्स से बने हुए थे । इतने रीअल कि मैं तो हैरान ही हो गिया, बिलकुल सही औरतें आदमी खड़े लग रहे थे। उन के सर के बाल और क्लाईओं पर छोटे छोटे बाल और मुसाम भी बिलकुल रीअल लग रहे थे। फिर मैं समझ गिया। आगे महात्मा गांधी और एक सिंह का स्टैचू भी था जिस को वर्ल्ड वार में विक्टोरिया क्रॉस मिला हुआ था। महात्मा गांधी का बुत्त इस तरह लगता था कि सच्च में डंडा पकडे हुए महात्मा गांधी खड़ा है। एक घंटा हम भीतर रहे लेकिन मज़ा आ गिया। फिर मैंने कुछ पोस्ट कार्ड उठाये और काऊंटर पर खड़ी एक लड़की को पैसे देने लगा लेकिन वोह अपनी जगह से हिल ही नहीं रही थी। जल्दी ही मैं समझ गिया कि यह भी स्टैचू ही थी। आज के दिन मज़ा आ गिया। दूसरे दिन सुबह जीत और निर्मल मुझे वुल्वरहैम्पटन की ट्रेन में बिठा आये।

ऐसे ही थे वोह दिन। चलता . . . . . . . . . .

3 thoughts on “मेरी कहानी 83

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    हमेशा की तरह रोचक अंश

  • विजय कुमार सिंघल

    भाईसाहब, आपके संस्मरणों की हर किस्त बहुत रोचक होती है। पढकर अच्छा लगता है।

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज का लेख आरम्भ से अंत तक पढ़ा। आपके मित्र यदा कदा मिलते रहते रहते हैं और आप अपना समय मनोरंजन करते हुवे व्यतीत करते हैं, पढ़कर अच्छा लगा। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है। हार्दिक धन्यवाद। सादर।

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