ग़ज़ल
ये कारवां-ए-ज़िंदगी रूकता रहा चलता रहा,
और उम्मीदों का दिया बुझता रहा जलता रहा
ना तुम मिले ना दूर हो पाईं मेरी तनहाईयाँ,
जीने की ख्वाहिश में मैं तो रात-दिन मरता रहा
कर ना पाया मैं ज़ुबां से इश्क का इजहार और,
तुम नहीं सुन पाए जो आँखों से मैं कहता रहा
बदनसीबी ये थी कि कासिद ही था मेरा रकीब,
भेजता कैसे तुम्हें वो खत जो मैं लिखता रहा
तेरे भी पैरों में थीं रस्मों की जंजीरें सनम,
मैं भी दुनिया के रिवाजों से ज़रा डरता रहा
— भरत मल्होत्रा