मुक्तक/दोहा

मुक्तक

16/12 पर मुक्तक
कब तक देखूँ राह तुम्हारी, कब तक द्वार निहारूँ
कैसी निष्ठुर प्रीत तुम्हारी, कब तक और पुकारूँ
बीत गया मधुमास महीना,दृष्टि से वृष्टि बरसे
तन जड़ औ मन हुआ बावरा, सुधियाँ और बुहारूँ।

अम्बर से अवनी तक बिखरी, सृष्टि वाहक उर्मियाँ।
छंद गीत व कविता बुन गयीं, सुप्रभात की रश्मियाँ।
रसिया बन भँवरे डोले है, शिल्पी सूरज हँसता,
फूल छिपा काँटा चुभता तो, अलि कस रहे फब्तियाँ।

गुंजन अग्रवाल

गुंजन अग्रवाल

नाम- गुंजन अग्रवाल साहित्यिक नाम - "अनहद" शिक्षा- बीएससी, एम.ए.(हिंदी) सचिव - महिला काव्य मंच फरीदाबाद इकाई संपादक - 'कालसाक्षी ' वेबपत्र पोर्टल विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ------ विस्तृत हूँ मैं नभ के जैसी, नभ को छूना पर बाकी है। काव्यसाधना की मैं प्यासी, काव्य कलम मेरी साकी है। मैं उड़ेल दूँ भाव सभी अरु, काव्य पियाला छलका जाऊँ। पीते पीते होश न खोना, सत्य अगर मैं दिखला पाऊँ। छ्न्द बहर अरकान सभी ये, रखती हूँ अपने तरकश में। किन्तु नही मैं रह पाती हूँ, सृजन करे कुछ अपने वश में। शब्द साधना कर लेखन में, बात हृदय की कह जाती हूँ। काव्य सहोदर काव्य मित्र है, अतः कवित्त दोहराती हूँ। ...... *अनहद गुंजन*