मुक्तक
16/12 पर मुक्तक
कब तक देखूँ राह तुम्हारी, कब तक द्वार निहारूँ
कैसी निष्ठुर प्रीत तुम्हारी, कब तक और पुकारूँ
बीत गया मधुमास महीना,दृष्टि से वृष्टि बरसे
तन जड़ औ मन हुआ बावरा, सुधियाँ और बुहारूँ।
अम्बर से अवनी तक बिखरी, सृष्टि वाहक उर्मियाँ।
छंद गीत व कविता बुन गयीं, सुप्रभात की रश्मियाँ।
रसिया बन भँवरे डोले है, शिल्पी सूरज हँसता,
फूल छिपा काँटा चुभता तो, अलि कस रहे फब्तियाँ।
गुंजन अग्रवाल