ईडियट बॉक्स (टेलिविज़न) और किसानों की आत्महत्यायें
उपरोक्त शिर्षक में दिए गए शब्दों में आपको कोई संबंध दिखाई देता हैं? आप कहेंगे बिलकुल नहीं! लेकिन इन दोनों शब्दों का आपस में गहरा संबंध है. यदि यह कहा जाए कि पहला शब्द ही दूसरे शब्द के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है तो कुछ गलत नहीं होगा. आप थोड़ा 1980 और 1990 का दशक याद कीजिए और यह धॅुढने कि कोशिश किजिए कि, वर्ष 1980 या 90 में कितने किसानों ने आत्महत्याऍं की थी, जवाब मिलेगा कुछ नहीं या फिर नगण्य किसानों के आत्महत्याओं का ही होना सामने आएगा. ऐसा क्या था और क्या नही था इस दौर में जो किसानों को आत्महत्याओं को प्रभावित कर रहा है. मेरे विचार से उस दौर में टीवी नहीं था जो, किसानों की खेती को प्रभावित कर रहा था.
आज-कल हम देखते हैं कि अधिकतर युवाओं ने नोकरी पाने की चाहत में अपने परंपरागत किसानी से अपना मुँह मोड़ लिया है. उन्हें लगता है कि पढ़-लिखकर नौकरी प्राप्त कर लेना ही उनका पढाई का अंतिम उद्धेश्य है और यदि पढ़-लिखकर नौकरी नहीं लगती है, तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है. हमारे भारत में एक समय ऐसा था जब किसानी को उत्तम माना जाता था, मध्यम व्यापार था और नौकरी करने को निष्कृष्ठ माना जाता था. लेकिन अंग्रेज आए और उन्होंने भारतीयों नौकर बनाना शुरू किया और अधिकतर पढ़े-लिखे लोगों ने भी नौकरी करना उत्कृष्ठ मानना शुरू किया, क्योंकि खेती-किसानी में होने वाले अनियमित उत्पादन और अनिश्चितता से नहीं जुझना पड़ता था, लेकिन अब दौर बदल गया है, आज-कल हम देखते हैं कि अधिकतर पढ़े-लिखे डिग्रीधारी लोग भी अपने आप को ‘साक्षर बेरोजगार’ कहलाते है और बेरोजगारी भत्ता भी पाते है. जिन्हें वह मिल जाता हैं, वह अपने आपको खुशनसीब समझते हैं और जिन्हें नहीं मिलता वह मन कचौट कर रह जाते है और अपनी डिग्री तथा शिक्षा को कोसते नज़र आते हैं. बच्चें स्कूली पढ़ाई तक सोचते है, उन्हें क्या बनना है, लेकिन वह देखते हैं कि विज्ञान, कंप्यूटर, वाणिज्य, इंजिनियरी और मेडिकल के क्षेत्रों के लिए बहुत अधिक स्पर्धा है और इन क्षेत्रों में रोजगार के अधिक अवसर है, वे भी इसी घुड़दौड में शामिल हो जाते हैं. दसवी तक विद्यार्थियों को यह पता ही नहीं होता हैं कि किस फिल्ड में जाने से उनका भविष्य उज्वल हो सकता है, इसलिए दसवी में अस्सी और नब्बे से अधिक प्रतिशत प्राप्त करने वाले विज्ञान की शाखा की ओर मुड़ते हैं, जो साठ से अस्सी प्रतिशत प्राप्त करते हैं, वे विज्ञान और वाणिज्य की शाखा की ओर मुड़ जाते हैं, और शेष चालिस से साठ प्रतिशत प्राप्त करने वाले कला शाखाओं की तरफ मुड जाते हैं, शेष चालिस और उससे कम वालों की भविष्य की कोई योजना नहीं होती, उसमें से अधिकतर ‘व्यवसाय शिक्षण’ लेते हैं या फिर जो भी काम मिले उसे करना शुरू कर देते हैं. आज यदि आप एक सर्वेक्षण करें, जिसमें बेरोजगार लोगों में पढे-लिखे लोगों का प्रतिशत निकाले तो वह सर्वाधिक मिलेगा, जबकि जो लोग मात्र पॉंचवी या दसवी तक जैसे-तैसे कर पढें थे, वे सभी लोग मेहतन-महदूरी या फिर खेती-किसानी करके अपना पेट भर लेते हैं.
जो जितना अधिक पढ़ता है उसे रोजगार के लिए और अधिक कश्मकश करनी पड़ती है, क्योंकि वह अपनी शिक्षा को ध्यान में रखकर आरामदायक और अधिक से अधिक आमदनी वाली ‘नौकरी’ प्राप्त करना चाहता है. कुल मिला कर समस्या उन लोगों से साथ ज्यादा है, जो अधिक पढ़ते हैं.
प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धी और मनोदशा एक समान नहीं होती है. किसे किस काम में रूची होगी इसीपर उसका भविष्य निर्भर होता है. पड़ोसी का बेटा इंजिनीयरी में एडमिशन लेता है, इसलिए मेरा बेटा भी इंजिनियरींग ही करेंगा यह सिखाने वाली हमारी टीवी संस्कृति है. ”मामा के बेटे ने इंजिनियरी की है, इसलिए मेरा बेटा भी वही करेंगा” और ”चाचा के बेटी ने डॉक्टरी में दाखिला लिया है, इसलिए मेरा बेटा भी वही करेगी” इस भावना ने हमारा सत्यानाश कर दिया है.
अधिकतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थियों को रूझान विज्ञान शाखा की ओर अधिक होता है. यह सब करते समय वे यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बचपन में अपने आप को क्या बनने का सपना देखा था. इसके कारण वे लोग मन मार वह काम करते हैं, जिसमें उनकी रूचि कम होती हैं, ऐसे में वे काम तो करते हैं, लेकिन पूरे मनोयोग से नहीं करतें हैं. ‘थ्री इडियट’ फिल्म का एक इडियट हमें यह सिखाता हैं कि काम वह करों जिसमें आपको रुचि हो, ”लता मंगेशकर यदि दूसरे के कहने पर क्रिकेट खेलती तो, वह आज गान-कोकिला” नहीं कहलाती और सचिन तेंदूलकर गाना गाते रहते तो ‘मास्टर ब्लास्टर नहीं बनते और ‘क्रिकेट के भगवान’ नहीं कहलाते आदि, आदि. लेकिन उस फिल्म के माध्यम से दिए गए संदेश को हम नहीं समझ पाए और थिएटर से ढाई-तीन घंटों का मनोरंजन करके वापस लौट आए और जहन में सिर्फ बारिश में भिगी हुई साड़ी में लिपटी हुई करीना कपूर का बरसात वाला गाना रह गया. यही होता है मिडिया और फिल्मों का असर, क्योंकि हम अभी भी दूरदर्शन और फिल्मों को केवल मनोरंजन का साधन ही समझते रह गए, उसी टीवी पर कई ज्ञानवर्धक कार्यक्रम शुरू हुए, कई विज्ञान से संबंधित कार्यक्रम भी चल पड़े उनपर हमनें ध्यान नहीं दिया.
टीवी हमारे जीवन की सबसे बड़ी बिमारी ‘टीबी’ में कब तबदील हो गई हमें पता ही नहीं चला. इन सब बातों को देखते हुए मैंने एक दोहा बनाया है:
”टीवी हमारी मॉं है, केबल हमारा बाप!
कलियुग का सबसे बड़ा यही तो है पाप !! ”
अर्थात, हम वही सीख रहें है जो हमारी टीवी माता हमें सींखा रही है, वही संस्कार हम पर हो रहे हैं, जैसे कार्यक्रमों का प्रसारण केबल और सेट टॉप बॉक्स के द्वारा हो रहा है, और इसी का परिणाम हमारे समाज मन पर भी हो रहा हैं.
एक समय था जब गांवों और शहरों में लोग एक-दूसरे के घर जाया करते थे, एक दूसरे की खैरीयत पूछते थें, जिससे सामाजिक संबंध और प्रगाढ होते थें और आज हम देखते हैं कि पडोसी के घर में झगड़ा होता है, तो लोग खुशी मनाते है. ऐसा हो भी क्यों नहीं, क्योंकि ”वोनर्स प्राइड, नेबर्स जेलसी” अर्थात ”आपकी बढें शान और पडोसी की जले जान” सिखाने वाला विज्ञापन का ”ब्रेन हैमरिंग’ जो दिन-रात हमारे दिमाग पर किया गया हैं, वह वह अपना असर तो दिखाएगा ही.
आपने एक बिस्किट का विज्ञापन देखा होगा, जिसमें मंत्री महोदय भाषण दे रहे होते हैं, तभी आइपीएल का संगीत बजते ही मंत्री महोदय भाग कर क्रिकेट देखने चले जाते है, जानते है वह मंत्री महोदय कौन है? वे दूसरे-तीसरे कोई नहीं आपके भूतपूर्व कृषिमंत्री आदरणीन श्रीमान शरद पवारजी हैं, जिनको जनता ने किसानों का भला करने के लिए चुनकर दिया था और आज वे स्वयं क्रिकेट क्लब के अध्यक्ष बन गए. भारत के लाखों किसान सोच में पड़ गए कि हमने शरद पवारजी को बारामती से किसानों का भला करने के लिए चुनकर दिया था या, क्रिकेट की गेंद के पीछे दौड़ने के लिए. बात थोड़ी हास्यास्पद है, लेकिन काफी गंभीर भी है, क्योंकि जनता का विश्वास प्राप्त करने के बाद मंत्रियों की नीयत में आने वाली खोट कोई नई बात नहीं है. किसान यही सोचते हैं कि हमारा नेता ही क्रिकेट असोसिएशन का अध्यक्ष हैं, तो हम भी पीछे क्यों रहें, हमें भी क्रिकेट देखना ही चाहिए. मैंने ग्रामीण क्षेत्रों के लाखों युवाओं को देखा हैं, जो अपनी बीस-बीस, पचास-पचास ऐकड़ की खेती को छोड़कर लगातार छ:-छ: घंटों तक वन-डे मैंच देखने के लिए टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यह तो हो गई वन-डे की बात. जब टेस्ट मैच होता है, तो तीन दिन तो खेत में जाना ही भुल जाइए. लोग तो यही सोचते है कि उनके नेता ही जब क्रिकेट में इतना इन्टरेस्ट लेते हैं, तो वे क्यों न लें. चाहे उधर बीस एकड़ की खेती की ‘ऐसी की तैसी’ क्यों न हो जाए.
यही वह कारण है, जिससे हमारा खेती-बाड़ी जैसे विषयों से ध्यान हट गया और आपने सुना होगा कि ‘सावधानी हटी और दूर्घटना घटी”. दूर्घटना यह हो गई कि हमने खेती की ओर से अपना ध्यान कही और लगा लिया, किसी ने अपना ध्यान राजनीति में लगाया, तो कोई दोपहर में आने फिल्मों के चक्कर में अपनी ही खेती की ऐसी की तैसी कर बैठा. खेती-किसानी एक मेहनत का काम है, इसमें जितनी ज्यादा मेहनत आप करेंगे, उतना ही फायदा किसानों को होता है. लेकिन आधुनिक मैकालियन अंग्रेजी प्रभावित शिक्षापद्धति हमें सिखाती है कि, मेहनत करना तो अनपढ़-गवॉंरों का काम है, बुद्धिमान तो केवल नौकरी और राजनीति करते है. यही सोच हमारे किसानों की आत्महत्या का बहुत बड़ा कारन है. जीम में जाकर डंबल उठाने से अच्छा है, हल चलाओ, अपने आप मसल बन जाऐंगे, आखिर वहां जाकर भी तो पसीना ही बहाओगे और उसका कोई फायदा भी नहीं है.
अगर आप किसानी का थोड़ा भी ज्ञान रखते होगे तो आपको पता चलेगा कि कृषिविज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा फायदेमंद विज्ञान है, जिससे जीवन में खुशहाली आती हैं. आप कितना भी पढ़ लिख लीजिए, बड़ी-बड़ी डिग्रियॉं हासिल कर लीजिए, खाऐंगे तो अनाज ही. बिना खेती के अनाज मिलना संभव नहीं, हवा में खेती होती नहीं, इसके लिए आपको जमीन पर ही आना होगा.
आज-कल आप देखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोग जो खेती किसानी से जुड़े है; फिल्मों में हिरोइन के साथ अय्याशी करते, विलन के साथ मार-पिट करते हुए और बनियान निकालकर हिरोइन के साथ नाचते हिरो (असलियत में जीरो) को देखते है और उसी ढाई-तीन घंटे के नकली हिरो को अपना आदर्श मानते हैं. वही ढाई-तीन घंटों का हिरो अपने वास्तविक जीवन में कितना ‘जिरो’ होता है, यह भी सबने अपनी ऑंखों से देखा होगा. फूटपाथ पर सोए, व्यक्ति को नशे की हालत में गाड़ी के नीचे कुचल कर जाने वाला कभी हिरो हो सकता है? देश की सहिष्णूता को चोंट पहुँचाने वाले कभी देश के हिरो हो सकते हैं ? बिलकुल नहीं, मगर ऐसी घटनाओं के तुरंत बाद एकाद फिल्म को हिरो को महान बनाने वाली फिल्म दिखा दो और प्रेषकों का ब्रेनवॉश कर दो हो गया. यही तो हमारे देश में हो रहा हैं.
खैर, हमारा किसान हमारी राह देख रहा हैं, इन सभी बातों के साथ-साथ टीवी पर दिखाई जाने वाली शहरों की चकाचौंध करने वाली फिल्मों के दृश्य किसानों के मन में ग्लानी निर्माण करते हैं. उन्हें भी यही लगता है क्यों न खेती किसानी छोड़कर शहरों में जाया जाए, महात्मा गांधी इन सभी बाते के विरोधी थें उनका कहना था कि असली भारत गॉंवों में बसता है, ‘गॉंवों की ओर चलो’ लेकिन औद्योगिकिरण और विदेशी कंपनियों की शहरों में बढौत्तरी के कारण देश के भूमीपूत्र अपनी जमीन को छोड़कर शहरों में नौकर बनने के लिए मजबूर हो गए और शहरों में आकर बस गए. शहरों में आकर शहरों के भ्रष्टाचार और भेद-भाव वाली राजनीति से प्रभावित होकर अपराधी लोगों के संपर्क में आए और अपना चारित्रिक पतन करना शुरू कर दिया.
हॉलाकि टीवी पर कुछ कार्यक्रम ऐसे भी है जो किसानों को खेती संबंधी जानकारी देने की कोशिश करते हैं, लेकिन दिनभर नकारात्मक प्रचार के बाद खेती संबंधी सकारात्मक सलाह सुनने में किसानों को भी कोई रूचि नहीं रही.
पहले किसान खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन किया करते थें और पशुपालन से खेती में अधिक फायदा भी होता था. धिरे-धिरे शहरों के बड़े-बडें वाहनों को देखकर किसानों ने अपने जानवरों और पंरपरांगत वाहनों को बेचकर टैक्टर आदि खरीदने शुरू किए, ट्रैक्टर से बहुत जल्द खेती की जा सकती हैं, लेकिन आपका ट्रैक्टर गोबर नहीं दे सकता, जो खेत की जमीन को और उपजाउॅ बनाता है. गरीब गायेां को तो आपने कसाईयों को बेचना शरू कर दिया. भारत में गाय को अंतिम दम तक पालने का रिवाज़ रहा है, पहले भारत में बेटी को दहेज में गाय दी जाती थी, तांकि उसके मायके में गाय से मिलने वाले दुध और अन्य पदार्थों से बच्चों और घर के अन्य लोगों का पोषण हो सकें. धीरे-धीरे यह प्रथा भी बंद हो गई. गाय को बेचा नहीं जाता था, बल्कि उसका दान किया जाता था और उसे बेचने के बजाए उसे अंतिम दम तक पालने का रिवाज क्योंकि वह अंतिम दिन तक गोबर और गोमुत्र देती थी, जो खेती के लिए अमृत समान था, उसे आपने कसाई को बेंचा केवल कुछ पैसों के लिए, तो क्या होगा, एक दिन आपको भी कर्जदार हो कर्ज के बोझ से फॉसी लगानी पड़ी.
टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन जो अधिकतर विदेशी कंपनियों के उत्पादों के होते हैं, उनका उत्पादन, विपणन और बिक्री विदेशी कंपनियॉं करती है, जिससे वह करोड़ो का मुनाफा कमाती है, लेकिन इन वस्तुओं को बनाने वाला सीधा सा किसान कभी भी किसी कंपनी का बॉंन्ड इम्बेसेटर’ नहीं बनता. जो लोग उनके द्वारा बनाए उत्पादों का विज्ञापन करते हैं, उन्हें किसानों से चीढ होती हैं.
आज-कल कुछ जागरूक किसान अपनी खेती में नवनवीन प्रयोग करके खेती की उर्वरकता को बढाने की दिशा में सकारात्मक कदम उठा रहें हैं और अपनी खेती-किसानी को पून: प्रतिष्ठा प्राप्त करने का काम भी कर रहें हैं, सरकार भी इस दिशा में सकारात्मक करम उठा रहीं हैं. किसान चैनल के माध्यम से किसानों 24X7 खेती करने के नए-नए तरिके, वैज्ञानिक जानकारी और नई योजनाओं से परिचि कराई जा रही हैं. इससे किसानों में वैज्ञानिक तरिके से खेती करने की प्रवृत्ती में बढौत्तरी हो रही हैं, यह एक सकारात्मक कदम हैं. किसान चैनल पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम बहुत ही नव-नवीन और वैज्ञानिकता से भरे होते है. किसान आमतौर पर परंपरागत तरिके से खेती करता है, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर की गई खेती निश्चित ही लाभ पहुँचा सकती हैं. रासायनिक खाद से खेती करने से होने वाले दुष्परिणाम, खेतों में बची फसल को जलाने से होने वाला नुकसान इत्यादि की जानकारी किसान चैनल पर दिखाई जाती है. जिससे किसानों को लाभ हो रहा है.
कुछ उच्च शिक्षा प्राप्त और विदेशों से लौटे लोग भी खेती-किसानी को वैज्ञानिक तरिके से कर कर अपना नाम देश ही नहीं बल्की विदेशों में चमका रहें हैं. यदि खेती को युवा पीढि वैज्ञानिकता से करें तो यह एक नर्इ पहल हो सकती है, साथ ही खेती में होने वाले लाभ के साथ-साथ गावों से शहरों की तरफ होने वाले पलायन को भी रोका जा सकता है.
कुल मिलाकर हमें जीवनदायी कृषि संस्कृति को समझना होगा और देश के किसानो को ‘जय जवान’ के साथ ‘जय विज्ञान’ का भी नारा लगाना होगा, तभी ‘जय किसान’ का नारा सार्थक होगा.
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— राहुल खटे