गीतिका/ग़ज़ल

दोहा छंद में ग़ज़ल

मिले उपेक्षा तो कहाँ बच पाते सम्बन्ध.
होते हैं बीमार फिर मर जाते सम्बन्ध.

रिश्तों का जंगल घना दिखे न कोई राह,
जीवन भर जिसमें हमें भटकाते सम्बन्ध.

किसको कैसे हैं मिले अपना अपना भाग्य,
दहकाते सम्बन्ध कुछ महकाते सम्बन्ध.

सीढ़ी बन जाते कभी बन जाते हैं साँप,
कैसे-कैसे खेल ये खिलवाते सम्बन्ध.

नेह नीर मिलता रहे तो खिलते हैं खूब,
मगर नेह के नीर बिन मुरझाते सम्बन्ध.

शुक्र ख़ुदा का है दिये उसने मुझे अनेक,
कुछ हँसते सम्बन्ध हैं कुछ गाते सम्बन्ध.

— डाॅ. कमलेश द्विवेदी
मो.09415474674