लघुकथा : श्रवण कुमार
पिताजी की मृत्यु के पश्चात इकलौते बेटे_बहू बिलकुल शोकाकुल नहीं थे बल्कि वे तो परचितों ,रिश्तेदारों से प्रसन्नतापूर्वक मिल रहे थे और गेट तक छोडने जा रहे थे।साथ ही बार बार यही कहे जारहे थे कि सब भाइयों में पिताजी ही सबसे अधिक दिन जिए तेरासी साल के थे।जिसका यही मतलब झलक रहा था कि इतने दिन क्यों जिए।ये सब इसलिए हो रहा था क्योंकि पिताजी का बंगला आखिरकार उनको मिल ही गया था। बहूरानी दुख प्रकट करने की बजाय अपने बच्चों का गुणगान किए जा रही थीं।अपने इकलौते बेटे के लिए कहने लगी_”अरे!जब इनकी तबियत खराब हुई थी तो हमारे सोनू ने श्रवण कुमार की तरह दिन रात अपने पापा की सेवा की थी।”सब यह सब सुनकर बुरा महसूस कर रहे थे समय के हिसाब से बात करना चाहिए।आखिर मौसी जी से न रहा गया और वो बोल ही पडीं_हाँ बहू हमारा बेटा भी शादी से पहले श्रवण कुमार बन कर अपने माँ_बाप की सेवा किया करता था।
— डॉ अमृता शुक्ला