आस्था की जीत
मिली अपने मम्मी-पापा की इकलौती कन्या थी. भोली सी शकल, दुबली-पतली, पर चुलबुली मिली सबकी प्यारी थी. उस की दादी भी उसी के साथ रहती थी. दादी से वह झगड़ती, रूठती, कट्टा करती, खेलती एवम् कहानियां सुनती थी. दादी से उसे सुसंस्कार मिल रहे थे. मिली दादी का मन लगाती रहती थी एवम् दादी तो उस पर अपना सर्वस्व लुटाने को हरदम तैयार रहती थी. रिश्तेदारों एवम् समाज में भी मिली सबकी प्यारी-लाड़ली-चहेती-मनभावन गुड़िया थी.
मिली को अपने पापा से बहुत लगाव था. पापा ही उसे पढ़ाई में मदद करते थे. पापा का आदेश मिली के लिए ब्रह्मशस्त्र होता था. पापा के एक इशारे पर वह कोई भी काम कर सकती थी. पापा के प्रति श्रद्धा, आदर-सम्मान सभी कुछ उसके मन में था. पापा के प्रति कोई भी कुछ बुरा कहे, यह मिली को स्वीकार नहीं था एवम् पापा की बुराई करने वाले से मिली झगड़ा भी करने को तैयार हो जाती थी.
इस फलती-फूलती बगिया में एक संकट भी था. मिली के पापा कैलाश तेज सिर-दर्द माइग्रैन के चिर रोगी थे, बहुत इलाज़ करा चुके थे, पर अचानक उन्हे माइग्रैन का अटैक पड़ता एवम् वह कई-कई दिनों तक बिस्तर से उठ नहीें पाते थे, गोली खा कर चुपचाप सोते रहते. मिली देखती कि उसके पापा अकेले ही डिस्पेन्सरी जाकर दवा भी लिखवा रहे हैं, स्वयं ही मेडिकल स्टोर से दवा भी ला रहे हैं एवम् प्यास लगने पर स्वयं ही उठकर पानी भी पी लेते हैं मिली देखती कि उसकी दादी अपनी पूजा-पाठ में व्यस्त हैं, और मम्मी घर के कामों में, मिली के बाल-मन को इससे बहुत तकलीफ पहुंचती कि उसके इतने अच्छे पापा की बीमारी में भी उचित देखभाल नहीं हो पाती थी. वह पापा से तबियत का हाल पूछती तो वे पहले से ठीक है कहकर उसे चुप कर देते, पर मिली को संतोष नहीं मिल पाता था. वह चाहती थी कि पापा के स्वस्थ होने के लिए वह कुछ प्रयास करे पर इतनी छोटी कक्षा 2 में पढ़ने वाली सात साल की नन्ही गुड़िया को समझ में नहीं आता था कि उसके पापा की इतनी बड़ी परेशानी से घर मे और सदस्य क्यों परेशान नहीं होते हैं, मात्र गोली खा कर सो जाना एवम् चार-छः दिन में ठीक हो जाने पर फिर आफिस चले जाना ऐसा कब तक चलता रहेगा?
पापा की तबियत खराब होने पर मिली को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. वह सहेलियों के साथ खेलने भी नहीं जाती, मम्मी के कहने पर मन नहीं होने का बहाना कर देती. सोचती रहती कि वह क्या करे कि उसके पापा ठीक हो जाऐं. दादी-मम्मी से बात कहती. दादी कहती कि इसका तो बचपन से ही सिर दुखता है क्या करें. मम्मी भी यही कहती कि जब से मैं इस घर में आई हूं इनका यही हाल देख रही हूं दवा खा तो ली है, हो जाऐंगे ठीक, तू क्यों परेशान होती है, अपना काम कर पढ़ लिख या थोड़ी देर खेल आ मन बहल जाएगा पर मिली को तसल्ली नहीं होती थी.
मिली ने मन में संकल्प किया कि चाहे दादी-मम्मी परवाह नहीं करें, पर वह पापा को ठीक करने के लिए कुछ करेगी. पापा की तबियत खराब होने पर वह उनके पास बैठती, उनका सिर दबाती, बाम की माशिल करती, मम्मी टी.वी. देख रही होती तो टी.वी. की आवाज़ कम कर देती, जिससे उसके पापा को सोने में शोर नहीे होे, दादी से कहती कि कल सुबह मैं भी आपके साथ मन्दिर जाऊंगी. मन्दिर में भगवान से पापा के स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना करती. पापा के साथ डिस्पेन्सरी जाती, ताकि पापा को लाइन में नहीं लगना पड़े. पापा सो रहे होते, तो उनके पास पानी का गिलास रख देती. थोड़़ी देर बाद पुनः उस गिलास का पानी बदल कर उसमें ठंडा पानी भर देती. इस प्रकार वह अपनी बाल बुद्धि से जो भी जितना भी बन पड़ता, पापा की सेवा करने का प्रयास करती. उसने सोच लिया था कि वह पापा को एक दिन अवश्य ठीक करेगी. अपनी सहेलियों के साथ इस बारे में बात करती कि वह बड़ी होकर पापा को दिल्ली बम्बई ले जाकर अच्छे डाॅक्टरों से पापा का इलाज़ करवाएगी. सब उसका मजाक उड़ाते, पर मिली अपने निश्चय में बहुत दृढ़ व गम्भीर थी.
पापा को एक बार बहुत तेज अटैक हुआ. जयपुर ले जाना पड़ा. मम्मी-दादी तो पापा के साथ गई नहीं पापा के साथ आॅफिस में काम करने वाले सिंह अंकल ही उनके साथ इलाज़ के लिए जयपुर गए. अंकल से मिली ने भी जयपुुर जाने की जिद की पर सबने उसे चुप कर दिया. मिली की आंखों में आंसू आ गए. वह अंकल से बोली कि अंकल मुझे चिन्ता रहेगी. आप रोज़ मुझे पापा की तबियत के हाल का फोन अवश्य करना. छोटी सी नन्ही गुड़िया के मन की आंतरिक परेशानी सुनकर सिंह अंकल की आंखें भी भर आई. उन्होंने मिली के सिर पर प्यार भरा हाथ रखकर उसे आश्वासन दिया कि वह प्रतिदिन फोन करेंगे, वह चिन्ता न करें.
उधर मिली के कैलाश पापा जयपुर हास्पिटल में जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे. ग्लूकोज़-इंजैक्शन-दवा-टेस्ट चल रहे थे. इधर मिली प्रतिदिन सुबह स्नान के बाद भगवान् की पूजा करती.अंाखें बन्द करे भगवान् से पापा के ठीक होने की प्रार्थना करती. उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. ख्कोई सी चुप चुप रहती कोई भी उससे पापा के बारे में बात करता, तो उसकी अंाखें भर जाती थी कैलाश के दोस्त भी नन्ही मिली की पीड़ा से हिल जाते थे. जिनका अभाव वह घर के अन्य सदस्यों में पाते.
एक सप्ताह बाद कैलाश जयपुर से ठीक हो कर घर आ गए. मिली को तसल्ली मिली. प्रतिदिन फोन से उसे समाचार तो मिल ही जाते थे. आते ही वह पापा से गले लगकर रो पड़ी. पापा को स्वस्थ पाकर उसे संतोष हुआ. वह दादी से बोली कि कल वह भी सुबह मन्दिर जाएगी एवम् पिछली बार नानाजी ने उसे इक्यावन रुपए चलते समय दिए थे, उन से मिठाई खरीदकर प्रसाद चढ़ाएगी. मिली के सरल निस्पष्ट ह्दय को पहचानते ही थे. उनकी भी अाँखें भर आई.
अगली सुबह मिली ने अपनी आस्था की जीत पर मन्दिर में भोग लगाया, घर आकर पापा को प्रसाद दिया एवम् पापा को आश्वासन दिया कि वह बड़ी होकर उन्हें बड़े शहर ले जाकर देश के सबसे अच्छे डाक्टरो से उनका स्थायी इलाज़ करवाएगी. मिली के सह्दय सरल मन से सभी प्रभावित हुए एवम् वह सभी की और लाड़ली प्यारी गुड़िया बन गई. उसकी इस भावना की चर्चा स्कूल में भी पहुंची एवम् वार्षिक उत्सव पर प्रिंसिपल ले उसे “पिता की सेवा-भावना” के लिए विशेष पुरस्कार देकर उसका उत्साह वर्घन किया एवम् अन्य बच्चों को भी मिली से शिक्षा लेने के लिए प्रेरणा लेने को कहा. आस्था की जीत से मिली संतुष्ट थी.
— दिलीप भाटिया