मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विश्व के महापुरुषों में सर्वोत्तम स्मरणीय चरित्र
ओ३म्
यदि किसी मनुष्य को धर्म का साक्षात् स्वरुप देखना हो तो उसे वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करना चाहिये। श्री राम का चरित्र वस्तुतः आदर्श धर्मात्मा का जीवन चरित्र है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना करके वस्तुतः श्री रामचन्द्र जी के काल में प्रचलित धर्म व संस्कृति को ही प्रचारित व प्रसारित किया है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वैदिक धर्म व संस्कृति के उन्नयनार्थ बालक-बालिकाओं वा विद्यार्थियों के लिए जो पाठविधि दी है उसमें उन्होंने वाल्मीकि रामायण को भी सम्मिलित किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे–अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तमा सभ्यता प्राप्त हो को काव्यरीति से अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें।’ महर्षि दयानन्द की इन पंक्तियों से यह विदित होता है कि वह चाहते थे कि भारत का बच्चा-बच्चा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के जीवन चरित्र से परिचित हो और अपने जीवन और व्यवहार में अनको अपना आदर्श मानकर उनका अनुकरण करे। यह सुविदित तथ्य है कि वाल्मीकि रामायण में महाभारतकाल के बाद अनेक प्रक्षेप व क्षेपक डाल दिये गये। अतः रामायण का शुद्ध स्वरूप बालकों व विद्यार्थियों तक लाने के लिए आर्यसमाज के विद्वानों स्वामी जगदीश्वरानन्द जी और महात्मा प्रेमभिक्षु जी ने वाल्मिीकि रामायण के शुद्ध व ऐतिहासिक तथ्यों से युक्त भव्य, प्रभावशाली व संक्षिप्त संस्करणों का रामायण नाम से ही सम्पादन किया जिसे न केवल भारतीय अपितु विश्व के सभी लोगों को पढ़ना चाहिये।
प्रस्तुत लेख में हम भारत व विश्व के सर्वोत्तम आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन के कुछ प्रेरणादायक व आदर्श प्रसंगों को प्रस्तत कर रहे हैं। आर्य विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने उनके विषय में लिखा है कि श्री राम अयोध्या के राजा थे। वे बड़े प्रतापी, सहनशील, धर्मात्मा, प्रजापालक, निष्पाप, निष्कलंक थे। उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने मानव समाज के लिए आदर्श व्यवहार की मर्यादाएं स्थापित कीं। वे आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व त्रेतायुग के अन्त में हुए थे। उनके समकालीन महर्षि वाल्मीकि ने अपने रामायण ग्रन्थ में उनका जीवन-चरित्र दिया है।
महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में बैठे थे। घूमते हुए नारद मुनि वहां आ पहुंचे। तब वाल्मीकि ने नारद से पूछा? इस संसार में वीर, धर्म को जानने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी, सच्चरित्र, सब प्राणियों का हितकारी, विद्वान, उत्तम कार्य करने में समर्थ, सब के लिए प्रिय दर्शन वाला, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, तेजस्वी, ईष्र्या न करने वाला, युद्ध में क्रोध आने पर देव भी जिससे भयभीत हों ऐसा मनुष्य कौन है, यह जानने की मुझे उत्सुकता है। तब नारद मुनि ने ऐसे बहुत से दुर्लभ गुणों वाले श्री राम का वृत्तान्त सुनाया।
महाराजा दशरथ ने श्री राम को युवराज बनाने का अपना विचार सारी परिषत् के सामने रखा। तब परिषत् ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए श्री राम के गुणों का वर्णन इस प्रकार किया ‘प्रजा को सुख देने में श्री राम चन्द्रमा के तुल्य हैं, वे धर्मज्ञ, सत्यवादी, शीलयुक्त, ईष्र्या से रहित, शान्त, दुखियों को सान्त्वचना देने वाले, मधुरभाषी, कृतज्ञ, और जितेन्द्रिय हैं। … मनुष्यों पर कोई आपत्ति आने पर वे स्वयं दुःखी होते हैं और उत्सव के समय पिता की भान्ति प्रसन्न होते हैं। …. उनका क्रोध और प्रसन्नता कभी निरर्थक नहीं होती। वे मारने योग्य को मारते हैं और निर्दोषों पर कभी क्रोध नहीं करते।’
श्री राम के गुणों का वर्णन कैकेयी ने स्वयं किया है। जब श्री राम को राजतिलक देने का निर्णय हुआ तब सभी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। कैकेयी को यह समाचार उसकी दासी ने जाकर दिया। तब कैकेयी आनन्द विभोर हो गई और अपना एक बहुमुल्य हार कुब्जा को देकर कहने लगी-‘‘हे मथरे ! तूने यह अत्यन्त आनन्ददायक समाचार सुनाया है। इसके बदले में मैं तुम्हें और क्या दूं।” परन्तु मन्थरा ने द्वेष से भरकर कहा कि राम के राजा बनने से तेरा, भरत का और मेरा हित न होगा। तब कैकेयी राम के गुणों का वर्णन करती हुई कहती है-‘‘राम धर्मज्ञ, गुणवान्, जितेन्द्रिय, सत्यवादी और पवित्र हैं तथा बड़े पुत्र होने के कारण वे ही राज्य के अधिकारी हैं। राम अपने भाईयों और सेवकों का अपनी सन्तान की तरह पालन करते हैं।”
श्री राम की महत्ता वसिष्ठ के शब्दों में–
आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च।
न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः।। (वाल्मीकि रामायण)
अर्थ–राज्याभिषेक के लिए बुलाए गए और वन के लिए विदा किए गए श्री राम के मुख के आकार में मैंने कोई भी अन्तर नहीं देखा। राज्याभिषेक के अवसर पर उनके मुख मण्डल पर कोई प्रसन्नता नहीं थी और वनवास के दुःखों से उनके चेहरे पर शोक की रेखाएं नहीं थी।
उदये सविता रक्तो रक्तरचास्तमये तथा। सम्पत्तौ च विपत्तौ न महतामेकरूपता।।
अर्थ–सूर्य उदय होता हुआ लाल होता है और अस्त होता हुआ भी लाल होता है। इसी प्रकार महापुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में समान ही रहते हैं। सम्पत्ति प्राप्त होने पर हर्षित नहीं होते और विपत्ति पड़़ने पर दुःखी नहीं होते।
वन को जाते हुए श्री राम अयोध्यावासियों से कहते हैं-‘‘आप लोगों का मेरे प्रति जो प्रेम तथा सम्मान है, मुझे प्रसन्नता तभी होगी यदि आप मेरे प्रति किया जाने वाला व्यवहार ही भरत के प्रति भी करेंगे।”
अपने नाना के यहां से अयोध्या लौटने पर जब भरत और शत्रुघ्न को पता लगा कि सारे पाप की जड़ मन्थरा है, तब शत्रुघ्न को उस पर बहुत क्रोध आया और उसने मन्थरा को पकड़ लिया और उसे भूमि पर पटक कर घसीटने लगा। तब भरत ने कहा–यदि इस कुब्जा के मारने का पता श्री राम को चल गया तो वह धर्मात्मा हम दोनों से बात तक न करेंगे। यह थी श्री राम की महत्ता।
हनुमान जी अशोक वाटिका में सीता से श्री रामचन्द्र जी की बाबत कहते हैं-
यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः। धनुर्वेदे च वेदे च वेदांगेषु च निष्ठितः।।
अर्थ-श्री रामचन्द्र जी यजुर्वेद में पारंगत हैं, बड़े-बड़े ऋषि भी इसके लिए उनको मानते अर्थात् आदर देते हैं तथा वे धनुर्वेद और वेद वेदांगों में भी प्रवीण हैं। यह वेद-वेदांगों में प्रवीण होना उनके ऋषि होने का भी प्रमाण है। महाभारत के बाद श्री रामचन्द्र में निहित सभी गुणों वाले एक ही महापुरुष उत्पन्न हुए हैं। उनका नाम था स्वामी दयानन्द सरस्वती।
रामराज्य का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में बताया गया है–
निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थं कश्चिदस्पृशत्। न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते।।
अर्थ-राज्य भर में चोरों, डाकुओं और लुटेरों का कहीं नाम तक न था। दूसरे के धन को कोई छूता तक न था। श्री राम के शासन काल में किसी वृद्ध ने किसी बालक का मृतक संस्कार (प्रेत कार्य) नहीं किया था अर्थात् राजा राम के समय में बाल मृत्यु नहीं होती थी।
सर्वं मुदितमेवासीत्सर्वो धर्मपरोऽभवत्। राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन्परस्परम्।।
अर्थ–रामराज्य में सब अपने-अपने वर्णानुसार धर्म कार्यों में तत्पर रहते थे। इसलिए सब लोग सदा सुप्रसन्न रहते थे। राम दुःखी होंगे इस विचार से प्रजाजन परस्पर एक दूसरे को दुःख नहीं देते थे।
आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वान व नेता, शिक्षाशास्त्री, समाज-सुधारक, शुद्धि आन्दोलन के प्रभावशाली नेता, स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने शौर्य और बुद्धिमत्ता से अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द ने ‘रामायण की रहस्य कथा’ नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी है जो कि पठनीय है। इस लघु पुस्तिका में स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वयं को रामायण का भक्त बताया है और रामचरितमानस का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले बुलन्दशहर में कलैक्टर रहे एक अंगे्रज महानुभाव श्री ग्राउस का एक संस्मरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि मेरे जैसे (रामायणानुरागी) भक्त को एक समय रामायण पर मुगध एक अंग्रेज अफसर मिले। उन्होंने रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। उस अंग्रेज सज्जन ने मुझसे कहा कि ‘‘जगत् के वांग्मय (साहित्य) में राम जैसा (आदर्श) पात्र कहीं नहीं मिला। मैं धर्म में ख्रिश्ती हूं, ईसा का मैं अनुयायी हूं, फिर भी रामचन्द्र जी को एक हिन्दू भक्त जिस भाव से पूजता है उसी भाव से मैं भी राम की पूजा करता है। आप रामचन्द्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं, वैसे ही मुझे भी राम पुरुषोत्तम प्रतीत होते हैं। रामचरित्र का जिसमें वर्णन है वह रामायण मुझे जगत् का अद्वितीय महाकाव्य प्रतीत होता है। राम और रामायण के परिचय से मेरा जीवन सार्थक को गया।”
लेख को विराम देने से पूर्व यह भी बताना है कि श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। वह युगपुरुष, आदर्श राजा, ईश्वरभक्त, मातृ-पितृ-भक्त, आदर्श भाई-पुत्र-शिष्य-प्रजापालक आदि थे। वह धर्म का साक्षात् रूप थे। यह भी जानना है कि वह इस संसार को बनाने व चलाने वाले ईश्वर नहीं थे, वह सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकत्र्ता, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार या प्रारब्ध के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में मनुष्यादि का जन्म देने वाले ईश्वर नहीं थे। संसार को बनाने व चलाने वाला ईश्वर अजन्मा है, वह कभी जन्म या अवतार नहीं लेता, वह सर्वव्यापक, निराकार व सर्वान्तर्यामी रूप से संसार के करने योग्य सभी कार्य कर सकता है। रावण व कंस व उनके जैसे किसी भी अन्यायकारी पुरुष का हनन करने के लिए उसे अवतार या जन्म लेने की किंचित आवश्यकता नहीं है। वह तो इच्छा मात्र से उनके प्राण उनके शरीर से पृथक कर सकता है। हमें रामायण व महाभारत आदि इतिहास के प्राचीन ग्रन्थों को पढ़कर श्री राम व योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द जी के गुणों को अपने जीवन में धारण करना है। इनके जीवन के अनुरुप जीवन बनाकर व वैदिक सिद्धान्तों का पूर्ण रूप से पालन करके ही हमारे जीवन का कल्याण सम्भव है। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई ,लेख अच्छा लगा ,सकूल के दिनों में राम चंदर जी के बारे में बहुत फ़िल्में देखि थीं जिस से राम चंदर जी के जीवन संग्राम का जेनरल आईदीआ हो गिया था ,और कुछ किताबें भी पडी थीं लेकिन जब आप डीटेल में लिखते हैं तो काफी बातें और पता लग जाती हैं . जो राम चरित्र मानस के critic थे उन को भी पड़ा . दरअसल वोह ज़माना ऐसा था कि आज हमें इस की ज़िआदा समझ आ नहीं सकती जैसे कुछ लोगों को पड़ा कि जब राम चंदर जी सीता और लक्ष्मण १४ साल का बनवास काट कर अयुधिया वापस आये तो एक धोबी के कहने पर सीता को गर्भावस्था में घर से निकाल देना किया जाएज़ था .ऐसे तो राज में बहुत लोग होते हैं बोलने वाले . दुसरी बात ,जब लंका पर हमला करना था तो समुन्दर में पुल बनाने के लिए कितनी कोशिश करनी पडी जबकि सरूप नखा पहले ही भारत के जंगलों में घूम रही थी और लक्ष्मण ने उस का नाक काटा था . एक बात और कि जब सीता जी ने कहा था कि उसे सोने के मृग की खाल चाहिए तो राम चंदर जी उस को मारने के लिए तीर कमान ले कर चल पड़े थे और बेछक मारीच एक राक्षश था लेकिन सीता जी ने तो हिरन मारने की इजाजत दी ही थी ,फिर यह जीव हत्या के किया अर्थ थे .ऐसे बहुत से सवाल लोग खड़े करते हैं ,कृपा इस का निवारण कीजिये .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने लेख पढ़कर जो प्रतिक्रया दी है, वह बहुत उत्तम एवं उपादेय है। आपकी शंकाओं का मैं अपनी अल्प बुद्धि से उत्तर दे रहा हूं जो इस प्रकार है। (शंका 1 का उत्तर) आपके प्रश्न का उत्तर मैं स्वयं न देकर आर्यजगत के एक शीर्षस्थ विद्वान संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के शब्दों को प्रस्तुत कर दे रहा हूं। उन्होंने लिखा है कि सीता को लक्ष्मण के द्वारा वन भेजे जाने की घटना कि लिए न राम दोषी हैं (क्योंकि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया) और न वाल्मीकि (क्योंकि उन्होंने स्वरचित रामायण में ऐसा कुछ नहीं लिखा)। इसके लिए दोषी है वह व्यक्ति व लोग जिन्होंने उत्तरकाण्ड लिख कर वाल्मीकिकृत रामायण में उसका प्रक्षेप किया। और दोषी हैं वे लोग जो उत्तरकाण्ड को वाल्मीकिकृत रामायण का भाग मानते हैं। सीता वनवास की घटना सर्वथा कपोल-कल्पित है (सच्चाई से कोसों दूर है)। यहां इतना बताना अभीष्ट है कि रामायण न्यूनतम 9 लाख से अधिक पुराना ग्रन्थ है। राजा भोज के समय से कुछ पूर्व व बाद में रामायण ही अपितु महाभारत व मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में भी प्रक्षेप वा क्षेपक डाले गये जिससे वह लोग अपनी मिथ्या बातों को सामान्य लोगों से मनवा सकें। यदि वह अपने नाम से कोई ग्रन्थ लिखते तो उसे वह प्रतिष्ठा न मिलती जो उन्होंने अपनी बातों को वाल्मीकि रामायण, महाभारत व मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में डालकर की है। यह भी बताना है कि प्रक्षेप व क्षेपक-कारों ने वाल्मीकि रामायण में पूरा उत्तर काण्ड अर्थात् राम के राज्याभिषेक के बाद का सीता वनवास व लव-कुश आदि का वर्णन वाला भाग स्वयं लिखकर रामायण में जोड़ दिया। यह मूल रामायण का भाग नहीं है। घटना काल्पनिक व असत्य है। (शंका 2 का उत्तर) शूर्पनखा के समुद्रपार कर अयोध्या के समीपस्थ वनों में विचरण करने का कारण है कि लंका में रावण के पास पुष्पक विमान था। अन्य कुछ वायुयान भी हो सकते हैं। उनके पास यदि विमान था तो समुद्र में चलने वाली नाकायें भी रही हांेगी। इस कारण से विमान की तकनीकी नौका की तकनीकी से अधिक परिमार्जित व विशिष्ट होती है। इन प्रयोग करके रावण के अनुचर व शूर्पनखा आदि समुद्र को पार करके इस ओर आ-जा सकते थे। श्री रामचन्द्र के पास विमान की सुविधा नहीं थी। इस लिए उन्होंने अपने इंजीनियरों नल व नील के द्वारा पुल बनाने का कार्य किया। राजनैतिक व अन्य कारणों से उन्होंने अयोध्या से सहायता लेना उचित नहीं समझा था। नल व नील तथा अपने वानर सैनिकों के सहयोग से रामचन्द्र जी ने इस कार्य को सम्पन्न किया, ऐसा अनुमान होता है। (शका 3 का उत्तर) श्री राम चन्द्र ने मृग को मारा था। यह मृग और कोई नहीं मायावी मारीच था। राजा को दुष्टों को दण्ड देने का अधिकार होता है। राम ने मारीच व हिरण के सौन्दर्य आदि गुणों को देखकर उसकी वास्तविकता का अनुमान लगा लिया था। इससे सम्बन्धित राम व लक्ष्मरण के संवाद वाल्मीकि रामायण में है। वह हिरण अपनी मायावी शक्तियों को रामचन्द्र को बहुत दूर ले गया। राम को उसकी असलियत पता चल चुकी थी, अतः उन्होंने उसे जीवित न पकड़ कर उसको ब्रह्मा से प्राप्त अस्त्र से मार डाला जबकि सीताजी ने उसे जीवित पकड़ने का प्रयास करने के लिए कहा था। । मारीच जैसे रावण के हितैषी के साथ राम का यह व्यवहार एक राजा व राजनीति के सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल व अनूरुप है। आशा है कि आपको यह समाधान उचित प्रतीत होगा। सादर।
मनमोहन जी ,आप का उत्तर अच्छा लगा .
मनमोहन जी ,आप का उत्तर अच्छा लगा .
नमस्ते एवं धन्यवाद। आपके प्रेम व स्नेह का ऋणी हूँ। सादर।