कविता

दुनिया नहीं लड़की के काबिल

हे धरती माँ नहीं रही दुनिया लड़की के काबिल,
एक कदम स्वतंत्र बढ़ाना हो गया है मुस्किल।

नहीं देख सकी थी तू एक सीता का तिरस्कार,
आज क़ई सीताओं साथ हो रहा है अत्याचार।

चौराहे पर रोज हो रहा द्रोपदी का चीर-हरण,
दुःशासन तो लाखों हैं यहाँ नहीं रहा कोई किसन।

कैसे कहें इंसान आज बन गया है रावण,
रावण ने भी माँ सीता का बेदाग रखा था दामन।

बजारों में बिक रही है नारी खिलौने के समान,
कितने-ही निर्भया की हर रोज जा रही है जान।

इज्जत के लूटेरे भेड़ियें घुमते हैं भेंड़ के भेष में,
नारी के साथ ऐसा अन्याय दुर्गा-काली के देश में।

सहनशील माँ सब्र तोड़कर धरती का पाप मिटा दे,
असहिष्णु पापियों को माँ अब तुही कोई सजा दे।

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।