ग़ज़ल
लबों पे उनके हम अपनी कहानी छोड़ आए हैं,
जो ना मिट पाएगी ऐसी निशानी छोड़ आए हैं
दिल भी पास है अपने धड़कता भी है रह-रह के,
किसी के पास पर इसकी रवानी छोड़ आए हैं
हमें मरना ही था प्यासा सहरा-ए-दर्द में क्योंकि,
हम उन झील सी आँखों में पानी छोड़ आए हैं
तेरी हर साँस की ए ज़िंदगी कीमत चुकाई है,
तजुर्बा ले के बचपन और जवानी छोड़ आए हैं
वही रखा है पास अपने कि हम हकदार थे जिसके,
वो हर इक चीज़ जो निकली बेगानी छोड़ आए हैं
जल जाएगी खुद या फिर सभी कुछ राख कर देगी,
झूठ के शहर में हम सच-बयानी छोड़ आए हैं
— भरत मल्होत्रा।