संस्मरण

मेरी कहानी 88

कुलवंत से मिल कर ऐसा महसूस हो रहा था कि अब तक मैं अधूरा ही था और अब कोई मेरा अपना हो गिया था। जब दो प्रेमी मिलते हैं तो उन में पियार की बातें बहुत होती हैं ,उन का यह पियार उन दोनों को किस ओर ले जाएगा ,किसी को भी पता नहीं होता। बहुत दफा तो यह पियार शारीरक और मानसिक तृप्ति के लिए ही होता है। शादी के वादे किये जाते हैं लेकिन ज़िआदा तर यह किये वादे असफल हो जातें हैं लेकिन जब पता हो कि दोनों ने शादी के बंधन में एक हो जाना है तो बात इलग्ग होती है ,इस में कोई शुबाह नहीं होता। इस में कोई डर नहीं होता ,ख़ास कर जब घर वालों को भी सब गियात हो। शादी से पहले के यह दिन इसी लिए ही हमारे सुनैहरी दिन थे। समय समय पर सब कुछ बदल जाता है ,अब हम बूड़े हो गए हैं तो वोह बात तो अब बन नहीं सकती लेकिन यह पुरानी यादें सोने के गहनों कि तरह होती हैं जिन को सीने में छुपा कर ,याद करके, हंसी और ख़ुशी मिलती है। हमारे पहले मिलन के बाद घर आते ही मैंने कुलवंत को ख़त लिखा और इस में वोह सब बातें लिखीं जो हम ने की थी और एक हफ्ते तक फिर आने को मैंने लिख दिया और इस दिन मैंने कुलवंत के घर भी जाना था।

कुलवंत के पिता जी बहुत दूर किसी शहर में एक अच्छी नौकरी पर थे और अब शादी का पर्बंध करने के लिए धैनोवाली आ गए थे। एक दिन अचानक हमारे घर आ गए। काफी ऊंचे तगड़े शख्स थे वोह ड्रैस्ड थे। मैंने उन से हाथ मिलाया और उन्होंने बहुत बातें मुझ से कीं लेकिन कैसी बातें थीं अब याद नहीं। फिर मेरे पिता जी भी बाहर से आ गए और बातें करने लगे। मेरे पिता जी ने उन्हें बता दिया था कि गुरमेल का विचार सादा शादी करने का था। मैं तो बाहर चले गिया था , बाद में किया बातें हुईं मुझे कोई पता नहीं ,हाँ यह मालुम हो गिया था कि शादी 14 अप्रैल की पक्की थी। कुछ दिनों बाद अब हमारे घर में बातें होने लगीं कि बराती तो दस गियारा ही होंगे लेकिन यह कौन कौन होंगे। हमारा भाईचारा तो बहुत बड़ा था ,सवाल यह था कि किस को बुलाया जाए किस को न बुलाया जाए।

अब मैं सोचता हूँ कि जवान बच्चे तो अपनी मर्ज़ी कर लेते हैं लेकिन बज़ुर्गों को इस से कितनी मुसीबत आती है ,यह जवान बच्चे समझ नहीं सकते। उस समय एक रिवाज़ होता था कि सभी लोगों का अपना अपना एक भाईचारा होता था जिस के तहत सभी एक दूसरे को शादी समारोहों पर न्योता देते थे। आज तो शादी का कार्ड देते हैं लेकिन उस समय अपने भाईचारे के सभी लोगों के घर जा कर दो सेर गुड़ देते थे और शादी पर आने को कहते थे। पहले यह गुड़ चार सेर होता था ,जिस को एक धड़ी गुड़ कहते थे लेकिन धीरे धीरे यह दो सेर भी खत्म हो गिया था।

एक रिवाज़ और होता था कि जब शादी हो जाती थी तो एक दिन भाईचारे के सभी लोग शादी वाले के घर में इक्क्त्र होते थे और अपने साथ अपने अपने वही खाते ले कर आते थे। यह वही तकरीबन छै इंच चौड़े और अठरा बीस इंच लम्बे पेपर की कापी जैसी होती थी जिस को बीच में फोल्ड किया होता था और इस को एक लम्बे धागे से बाँधा हुआ होता था ,इस की जिल्द लाल रंग की होती थी ,विवाह शादीआं और कोई जरूरी रिकार्ड इस वही में लिखे होते थे और यह हर घर में होती थी। दरिओं पर सभी लोग बैठ कर अपनी अपनी वहीआं खोल लेते थे और बताते थे कि उन के घरों में पिछली शादी पर अब की शादी वाले ने कितने पैसे ज़्यादा दिए थे। फिर वोह सभी पैसे वापस करते थे और साथ ही कुछ और ज़्यादा दे देते और वही पर भी लिख देते कि पिछले पैसे वापस किये और अब दस या पांच रूपए ज़्यादा दिए। यह सिस्टम किसी ज़माने में बहुत अच्छा होता था क्योंकि शादी वाले घरों को उस समय आर्थिक मदद मिल जाती थी लेकिन आज यह सिस्टम एक रिवाज़ बन कर ही रह गिया था और पैसों की कोई कीमत रह ही नहीं गई थी। हम ने अपनी वही देखि तो मालूम हुआ कि हमारे पैसे लोगों की तरफ ही थे क्योंकि हम लोगों की शादीओं पर देते ही रहे थे और हमारे घर में पिछले दस बाराह वर्ष से कोई शादी ही नहीं हुई थी।

हम ने अब किसी का कुछ भी नहीं देना था और जो दिया हुआ था सब भूल गए। शादी में एक मेरे मामा जी और उस की सारी फैमिली और मेरी मासी जी और उन की सारी फैमिली को इन्वाइट किया गिया। ताऊ रतन सिंह और उन का बेटा चरण सिंह गाँव में नहीं थे। ताऊ नंद सिंह और उस के भतीजे प्रीतू को भी इन्वाइट किया गिया। बहादर की फैमिली हमारे भाईचारे में नहीं आती थी। जीत की फैमिली हमारे भाईचारे में आती थी ,इस लिए मैं खुद उन के घर गिया। जीत घर पर नहीं था। उस के पिता जी और चाचा जी वहां थे। मैंने उन को अपनी सारी बात बताई कि मेरी शादी बहुत सादा होनी थी ,तो सुन कर वोह अजीब अजीब बातें करने लगे और कुछ आना कानी करने लगे। जीत के चाचा जी कुछ कट्टर विचारों के थे। बहुत बातें करने के बाद मुझे बोले ,” अब बताओ कि हम आएं या ना आएं ?”. मैंने कहा ,” यह आप की मर्ज़ी है ” और उठ कर मैं वापस आ गिया ,मन में सोचा ” तुम्हारे बगैर जैसे शादी नहीं होगी “.

शादी को अभी काफी दिन रहते थे और जैसे मैंने कुलवंत को बताया हुआ था ,धैनोवाली फाटक पर पहुँच गिया। कुलवंत रेलवे लाइन के फाटक के पीछे ही मेरा इंतज़ार कर रही थी और मुझे देखते ही साइकल वाले की दूकान पर पहुँच गई और मुझे देखते ही मुस्करा उठी। आज उस की छोटी बहन साथ नहीं थी। आज उस की ड्रैस भी अच्छी थी और चेहरा खिला खिला लग रहा था। हैलो कह कर हम दोनों अपने अपने बाइसिकलों पर सवार हो कर छावनी रेलवे स्टेशन की तरफ चल पड़े और साह साथ बातें किये जा रहे थे। उस दिन वाली झिजक काफी दूर हो गई थी , अब नज़दीकीआं बड़ गई थीं और अपनापन लग रहा था। बातें करते करते मैंने कुलवंत को बताया कि आज हम ने वोह कड़ा जालंधर जा कर बेच देना था और इस पैसे से मज़े करेंगे। आज तक मुझे यह समझ नहीं आया कि मैं कड़ा क्यों बेच रहा था जब कि पैसों की तो मुझे इतनी दिकत नहीं थी। सोने से मेरा लगाव कभी रहा ही नहीं था और आज भी यह सोने का डिपार्टमेंट कुलवंत का ही है ,मुझे पता ही नहीं है कि वोह खरीदती है ,या उस के पास किया है।

बातें करते करते हम छावनी रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। साइकल स्टैंड पर साइकल जमा कराये और टिकट ले कर ट्रेन में बैठ गए। जालंधर जा कर हम सुनारों की दुकानों के चक्क्र लगाने लगे और कड़े की कीमत पूछने लगे। कुलवंत को इस का ज़्यादा गियान था और जगह जगह जाने से हम को कड़े की सही कीमत का अंदाजा हो गिया था और एक दूकान में हम ने कड़ा बेच दिया। कड़ा साढ़े आठ तोले का था और इस के 1200 रूपए मिले ,जो बेस्ट प्राइस थी। सोचता हूँ आज यही कड़ा अढ़ाई तीन लाख का होगा। खैर हम पैसे ले कर खुश हो गए और एक चाय की दूकान से कुछ खा पी कर संत सिनीमे में कोई फिल्म देखने चले गए लेकिन फिल्म का नाम याद नहीं। फिल्म देख कर बाहर निकले और कुछ मटरगश्ती करने के बाद हम वापस छावनी स्टेशन पर आ गए ,अपने अपने साइकल लिए और धैनोवाली फाटक पर आ गए।

अब मैंने कुलवंत के घर जाना था। झिझकता झिझकता सा मैं कुलवंत के साथ चल पड़ा। कुलवंत को भी कुछ घबराहट हो रही थी क्योंकि उस के लिए भी यह बहुत मुश्किल घड़ी थी। जल्दी ही हम कुलवंत के घर के आगे खड़े थे। कुलवंत की माँ सरसों के तेल की बोतल ले कर दरवाज़े पर आ गई और दोनों तरफ तेल चोया। फिर हम अंदर आ गए। घर के सभी सदस्य खुश खुश थे और खाने की महक भी आ रही थी। कुछ लड़किआं भी आ गई थीं जो कुलवंत की सख्यां थीं और मेरे साथ बातें करने लगीं। ऊपर से कुलवंत के मामा जी भोजोवाल वाले अचानक आ गए जिस से कुलवंत की माँ कुछ डर गई क्योंकि वोह बहुत पुराने विचारों के थे लेकिन वोह मुझे मिल कर जल्दी ही चले गए ,पता नहीं किया सोचा होगा उन्होंने।

ड्राइंग रूम में सभी इकठे बैठे थे ,कुलवंत की बहनें मेरे पास बैठी बातें कर रही थीं ,हर तरफ अपनापन महसूस हो रहा था। खाना भी आ गिया जो मैंने और कुलवंत ने इकठे ही खाया। एक बात थी कि घर में कुलवंत बहुत बोल रही थी ,कोई झिजक नहीं थी जैसे बाहर एक कैद खाना था और भीतर एक खुल्ला मैदान। आज मैं यह समझ सकता हूँ कि क्यों ! इस के बाद मैंने विदा ली और रानी पुर आ गिया। एक दिन माँ ने मुझे कुलवंत के लिए कपडे और नए गहने बनवाने के लिए बोला और कहा कि हम खुद ही जा कर खरीद लें। अब मुझे अपनी भूल महसूस हुई कि मुझे कड़ा बेचना नहीं चाहिए था। खैर पैसे तो मेरे पास थे ही और कुछ पैसे माँ ने दे दिए। एक या दो सोने की चूड़ीआं माँ ने दीं ,मुझें पूरा याद नहीं और कुलवंत को मैंने खत लिख दिया कि वोह मुझे उसी जगह मिले। कभी कभी सोच आती है कि जब लोग बूढ़े हो जाते हैं ,तो युवा बच्चों पर बहुत धियान देते हैं कि कहीं गलत रास्ते पर ना चल पढ़ें लेकिन जो उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में किया होता है वोह सब भूल जाते हैं या उन को सोचना नहीं चाहते। हम दोनों को एक लाइसैंस मिल गिया था और कोई बंदिश नहीं थी। दोनों के घर वालों को पता था लेकिन हमें यह कोई गियान नहीं था कि बज़ुर्ग इस को कैसे ले रहे थे।

कुलवंत को लिखी चिठ्ठी के मुताबक मैं फिर धैनोवाली फाटक पर साइकल वाले की दूकान पर पहुँच गिया। हमेशा की तरह कुलवंत फाटक के पीछे मेरा इंतज़ार कर रही थी और मुझे देखते ही मेरी तरफ आ गई। बातें करते करते हम फिर छावनी की ओर चल पड़े। हमेशा की तरह छावनी स्टेशन पर साइकल खड़े किये , जालंधर की ट्रेन ली और जालंधर शहर आ गए। पहला काम था गहने खरीदने का। कुछ दुकानें देखीं ,जिन के बारे में मुझे तो कोई गियान नहीं था लेकिन कुलवंत को इन के बारे में पता था। एक बड़ी सुनार की दूकान में हम बैठ गए। सुनार ने बड़ीआ बढ़िया सैट दिखाए। एक सैट उस ने दिखाया जो हम दोनों को पसंद आ गिया। यह राणी हार इतना खूबसूरत था कि हम दोनों इस पर फ़िदा हो गए ,हालांकि मुझे सोने की जानकारी नहीं थी। इस राणीहार के साथ आठ चुड़ीआं थीं और कानों के लिए झुमके थे। हम दोनों सोने के बारे में अनाड़ी ही थे ,इन गहनों की चमक दमक देख कर ही हम ने खरीद लिए ,पैसे दे कर खुश खुश हम दूकान से बाहर आ गए।

यहां यह लिखना भी भूलूंगा नहीं कि बहुत वर्षों बाद जब इंगलैंड में आ कर हम ने नए गहने लेने थे तो चूड़ीओं में से काले रंग की कोई ऐसी चीज़ निकली थी जो सोने का वज़न बढ़ाने के लिए सुनार चुड़िओं में डाल देते थे । बेचने पर सारे सैट का आधा सोना ही हमें मिला था। मुझे याद है ,सुनार की दूकान में तरह तरह के देवी देवताओं की फ्रेम की हुई तस्वीरें थीं ,शायद यह देवी देवते सुनार को धोका घड़ी करने के लिए आशीर्वाद दे रहे होंगे । गहने ले कर हम कपड़ों की दुकानों पर घूमने लगे। कुछ साड़ीआं खरीदीं ,कुछ और कपडे लिए जो मुझे याद नहीं। एक काफी बड़ा बैग जो मैं इंग्लैण्ड से ले कर आया था ,कपड़ों से अच्छी तरह भर गिया था। अप्रैल का महीना शुरू हो गिया था और काफी गर्मी हो गई थी। लक्ष्मी पैलेस सिनिमे के सामने एक रैस्टोरैंट था ,खाना खाने के लिए हम उस में घुस गए। सीलिंग पर फैन घूम रहे थे ,जिस से रैस्टोरैंट में ठंडी हवा थी। अब रिलैक्स हो कर हम ने ढेर सी बातें कीं ,दोनों खुश खुश थे ,किया किया बातें हुईं ,याद नहीं लेकिन जितनी बातें भी कीं अच्छी थीं।

रैस्टोरैंट से निकल कर हम वापस रेलवे स्टेशन पर आ गए ,जालंधर कैंट का टिकट लिया और बैठ कर और जालंधर कैंट या छावनी पहुँच गए ,अपने अपने साइकल लिए और फिर धैनोवाली फाटक पर आ गए। कुलवंत धैनोवाली की तरफ रवाना हो गई और मैं जीटी रोड पर चलने लगा। एक घंटे में मैं अपने गाँव राणी पहुँच गिया। घर आ कर मैंने सारे गहने कपडे माँ के सपुर्द कर दिए क्योंकि यह अब लेडीज़ का काम ही था। जो कुछ भी मन में होता था ,माँ जिस को अक्सर हम बीबी ही कहा करते थे उन से ही कह देता। पिता जी के साथ मेरी झिजक अब भी कुछ कुछ थी। उन से सब बातें होती थीं लेकिन वोह बात नहीं थी जो माँ के साथ होती थीं ,दादा जी के साथ भी बहुत बातें होती थीं क्योंकि बहुत वर्ष इकठे रहने के कारण हमारा लगाव बहुत था।

जिस दिन से मैं गाँव में पहुंचा था ,हर रात को मैं गियान चंद की दूकान पर जा बैठता था। बहुत बातें हम करते ,बीच बीच में गियान चंद की पत्नी भी एक छोटे से दरवाज़े से अंदर आ जाती ,यह दरवाज़ा गियान चंद की दूकान और घर के बीच में होता था। जब गियान चंद का सोने का वक्त होता तो उस की पत्नी इसी दरवाज़े से उस के लिए एक छोटी सी चारपाई ला देती क्योंकि गियान चंद दूकान में ही सोया करता था। हमारी वोह ही बातें और वोह ही वातावरण होता था। दूकान में वोह ही मठाई की पीपीआं थीं जिन के सामने का हिस्सा शीशे का होता था जिन में से मठाई दीखती थी। मैं रोज़ ही कुछ ना कुछ ले लेता और इतनी ही मठाई गियान चंद खा जाता। हम हंस कर अक्सर गियान चंद को कहा करते थे ,” गियान चंद ! मठाई का प्रॉफिट तो तू खुद ही खा जाता हैं “. गियान हंस पड़ता था। गियान चंद मास्टर हरबंस सिंह की बातें बहुत किया करता था।

शादी से कुछ दिन पहले से हमारी रात की मुलाकातें खत्म हो गई थीं, इसी लिए गियान चंद की बातें भूलती नहीं। इस दूकान में पता नहीं कितनी अच्छी या बुरी बातें हम ने की होंगी ,कितने गाँव के लड़के लड़किओं के संबंधों की बात की होंगी ,गाँव के शादी शुदा मरद और चरितरहीन औरतों की बातें हुई होंगी मालुम नहीं लेकिन यह बहुत थीं। यह दूकान गाँव का अखबार ही तो था जिस में सारी ख़बरें मिल जाती थीं। गियान चंद की पत्नी इतना बोलती नहीं थी लेकिन शादी के बाद जब दिन के वक्त कभी कभी मैं जाय करता था तो वोह मुझ से हल्का सा मज़ाक कर लेती थी कि अब मैं इस लिए रात को दूकान में नहीं आता ,क्योंकि कोई मुझे आने नहीं देता था। कुछ भी हो यह पियार ही तो था जो वोह छोटी सी दूकान को भूलने नहीं देता।

चलता. . . . . . .

 

7 thoughts on “मेरी कहानी 88

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके जीवन के अहम दिनों के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई। विवाह मनुष्य के जीवन का एक बहुत पवित्र बंधन एवं जीवन की प्रमुख घटना है। इस बंधन में जितनी अधिक पवित्रता होती है, ऐसा लगता है कि उतना अधिक सुख विवाहितों को भावी जीवन में मिलता है। आज के युग में इस बंधन में कृत्रिमता आ रही है। लड़की की शादी माता पिता पर आर्थिक बोझ भी बन जाती है। विवाह जितने अधिक सरल व साधारण तरीकों से हो उतना ही समाज व देश के हित में है। आज की जीवन कथा बहुत अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद।

    • धन्यवाद ,मनमोहन भाई . हम शादीओं पर जो खर्च करते हैं वोह तब गंदे पानी में बह जाता है ,जब तलाक हो जाता है .मैं यह नहीं कहता कि शादी पर खर्च ना करें लेकिन मेरा मानना है कि अगर इन्हीं पैसों को बच्चों को सैट करने पर लगा दें ,उन को घर लेने में मदद कर दें तो तलाक भी कम हो सकते हैं .बात तब खराब होती है जब शादी पर तो लाखों रूपए खर्च कर देते हैं और बाद में इन्हीं पैसों की वजाह से घर में झगड़े होते हैं और तलाक भी हो जाते हैं .

    • धन्यवाद ,मनमोहन भाई . हम शादीओं पर जो खर्च करते हैं वोह तब गंदे पानी में बह जाता है ,जब तलाक हो जाता है .मैं यह नहीं कहता कि शादी पर खर्च ना करें लेकिन मेरा मानना है कि अगर इन्हीं पैसों को बच्चों को सैट करने पर लगा दें ,उन को घर लेने में मदद कर दें तो तलाक भी कम हो सकते हैं .बात तब खराब होती है जब शादी पर तो लाखों रूपए खर्च कर देते हैं और बाद में इन्हीं पैसों की वजाह से घर में झगड़े होते हैं और तलाक भी हो जाते हैं .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके जीवन के अहम दिनों के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई। विवाह मनुष्य के जीवन का एक बहुत पवित्र बंधन एवं जीवन की प्रमुख घटना है। इस बंधन में जितनी अधिक पवित्रता होती है, ऐसा लगता है कि उतना अधिक सुख विवाहितों को भावी जीवन में मिलता है। आज के युग में इस बंधन में कृत्रिमता आ रही है। लड़की की शादी माता पिता पर आर्थिक बोझ भी बन जाती है। विवाह जितने अधिक सरल व साधारण तरीकों से हो उतना ही समाज व देश के हित में है। आज की जीवन कथा बहुत अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद।

    • धन्यवाद ,रमेश जी .

    • धन्यवाद ,रमेश जी .

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