ख्वाब ख़ाक हो गए
पूरे होने से पहले ही
लग गया कोमा विराम
और फुलस्टॉप
खाक हो गये ख्वाब
थक गये बेचारे
ढो़गों की सीढ़ियों पर चढ़ते चढ़ते
ना हुई पूर्ति ख्वाबों की
अपूर्ण लक्ष्य तक आ
आ आ कर ढुलक गये
मरूस्थल की रेत सदृश
सूनी आँखों ने बनाये
जो घरोंदें
सुंदर ख्याव संजो संजो कर
जब समीप थे पूर्ण होने के हाँसियें के
धुंध छाने लगी ख्यावों पर
बुरी निगाहों का लिवास चढ़ गया
अधूँरे ही रह गये ख्वाब
ख्यावों का दम घोंटने में
कसूरवार अपने ही थे
निष्ठुर हृदय के रोंद दिया
पैरों तले ख्यालों को
एक अशांत अशांति सी फैल गयी
वातावरण में
मुस्कराते चेहरे पर
समाज के ठेकेदार
जो कहते थे अपने को उद्धारक
धर्म सम्प्रदाय का दे हवाला
होते है खुश
क्या करना है उनको
ख्वाबों का महल उजड़ने से
मरती है भावनाएँ
तो मरती रहे
वे तो केवल आग में घी डालते है
पूरे होने से पहले
घोंट देते है
ख्वाबों का गला
— डॉ मधु त्रिवेदी