कविता

कविता : बुद्धि से मुक्ति मिले बिन

बुद्धि से मुक्ति मिले बिन, बोध से युक्ति मिले बिन;
ज्ञान में गुमता गहमता, उन्मना मन कर्म करता !
समझ ना पाता जगत गति, विधाता की क्या रही मति;
उलझता कर्मों विधानों, भटकता तानों वितानों !
सहज सा जीवन रहा जो, भाव का झरना रहा जो;
छिटक जाता छूट जाता, रस न उसका पी वो पाता !
द्वैत रहता द्वन्द रहता, स्रोत से सुर नहीं मिलता;
क्षीण काया वक़्त ज़ाया, कर कभी उसको समझता !
बँधा मोहों विंधा द्रोहों, द्रुत गति धा कहाँ पाता;
‘मधु’ को कब समझ पाता, मृदुल हो कब सृष्टि तकता !
गोपाल बघेल ‘मधु’

One thought on “कविता : बुद्धि से मुक्ति मिले बिन

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    वाह
    बहुत बढ़िया

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