महान गणितज्ञ रामानुजम
तमिलनाडं के कुम्भकोणम में रहने वाले श्रीनिवास तथा उनकी पत्नी कोमलम्मनल आयंगार ने पुत्रप्राप्ति की कामना में नामगिरि देवी की आराधना की। देवी की कृपा से 2 दसम्बर 1887 को उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम रामानुजम रखा गया। यही बालक बड़ा होकर महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजम के नाम से लोकप्रिय हुआ। बालक रामनुजम की शिक्षा अत्यंत साधारण पाठशाला में प्रारम्भ हुई। दो वर्षों के बाद वह कुम्भकोणम के टाउन हाईस्कूल जाने लगे। बचपन से ही गणित विषय में उनकी विशेष रुचि थी। बचपन से ही उन्हें यह यक्ष प्रश्न उद्विग्न करता था कि गणित का सबसे बड़ा सत्य कौन सा है? शेष कोई प्रश्न उनके सामने टिक नहीं पाता था। एक बार अंकगणित की कक्षा में शिक्षक समझा रहे थे कि मानो तुम्हारे पास पांच फल हैं और वह तुम पांच लोगों के बीच बांटते हो तो प्रत्येक को एक ही फल मिलेगा। माने दस फल हैं जो दस लोगों में बांटते हो तो भी प्रत्येक को एक ही फल मिलेगा। इसका अर्थ यह है कि 5 हो या दस किसी भी संख्या में उसी संख्या का भाग देने पर फल एक ही आता है। इसीलिए बचे यही गणित का नियम है। इस पर रामानुजम ने तत्काल प्रश्न किया, ‘गुरुजी ! हमने शून्य फल शून्य लोगों के बीच बांटे तो क्या प्रत्येक के हिस्से में एक फल आयेगा? शून्य में शून्य का भाग देने पर उत्तर एक ही आयेगा।’ यह सुनकर शिक्षक अचम्भित, चकित रह गये।
रामानुजनम को गणित से इतना लगाव था कि कक्षा में सिखाए गये गणित का अभ्यास करने से उसका समाधान नहीं होता था। वे आगामी कक्षा की गणित हल करने लगते थे। कक्षा 10 में पढ़ते हुए उन्होंने बी.ए. की पदवी परीक्षा के त्रिकोणमिति शास्त्र का अभ्यास पूर्ण कर लिया था। साथ ही उन्होंने लोनी नामक पाश्चात्य लेखक द्वारा ट्रिगनोमेट्री विषय पर लिखित दो ग्रंथ आत्मसात कर लिये। बाद में उन्होनें स्वतंत्र संशोधन भी किया। 15 वर्ष की आयु में ही एक ब्रिटिश लेखक द्वारा लिखित सिनाप्सिस आफ प्योर एण्ड एप्लायड मैथमेटिक्स का अक्षरशः अध्ययन कर लिया।
उन्होंने दिसम्बर 1903 में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। अब उन्हें सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली। उन्हें कुम्भकोणम महाविद्यालय में सम्मानपूर्वक प्रवेश मिला। चूंकि उनका मन केवल गणित में ही लगता था उन्हें वर्ष की अंतिम परीक्षा में गणित विषय में सर्वाधिक अंक मिले लेकिन अन्य विषयों में वह फेल हो जाते थे। अतः वे छात्रवृत्ति से हाथ धो बैठे।
रामानुजम को इस असफलता से अत्यंत दुःख हुआ। उस समय उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अंततः उन्हें नौकरी की खोज करनी पड़ी। निराश होकर कुम्भकोणम वापस लौट आये। 1905 के दौरान उन्होंने फिर कुम्भकोणम छोड़ दिया। वे मद्रास आये और अपनी नानी के पास रहने लगे वहां उन्होनें टयूशन पर जीवन गुजारा। बाद में वह मद्रास के पच्चपयया कालेज में पढ़ने लगे। 1907 में उन्होंने निजी प्रयासो से परीक्षा दी किन्तु वे एक बार फिर अन्य विषयों में फेल हो गये।
रामानुजम सृजनशील थे। उनके मस्तिष्क में सदा कोई न कोई कल्पना शक्ति जन्म लेती रहती थी। नौकरी की खोज के समय मद्रास के इण्डियन मैथमेटिकल सोसायटी के उच्चाधिकारी रामास्वामी अय्यर से भेंट के बाद उनहें कुम्भकोणम महाविद्यालय के लेखाकार कार्यालय में अस्थाई नौकरी मिल गयी। किंतु गणित प्रेम के कारण वे यहां भी टिक न सके। कुछ समय पश्चात 1 मार्च 1907 को रामानुजम को पोर्ट ट्रस्ट में 25 रुपये वेतन पर लिपिक की नौकरी मिली। अब उन्हें गणित के प्रश्नों को हल करने का समय मिलने लगा। इससे वे गणित संबंधी लेख लिखने लगे। इण्डियन मैथमेटिकल सोसायटी की शोध पत्रिका में उनक गणित संबंधी शोधलेख प्रकाशित हुए। सन 1911 की शोध पत्रिका में उनका 14 पृष्ठों का शोधपत्र व 9 प्रश्न प्रकाशित हुए।
इसी समय ईश्वरीय कृपा से भारत के वेधशाला के तत्कालीन प्रमुख गिल्बर्ट वाकर मद्रास पोर्ट ट्रस्ट पहुंचे। अवसर का लाभ उठाकर मैथमेटिकल सोसायटी के कोषाधिकारी ने उन्हें रामानुजम के शोधकार्य से अवगत कराया। जिससे प्रभावित होकर गिलबर्ड वाकर ने मद्रास विवि के कुलसचिव को एक पत्र लिखा। यहां से रामनाुजम के जीवन में एक नया मोड़ आया। 1 मई 1913 को वे पूर्णकालिक व्यवसायिक गणितज्ञ बन गये। उसके दो वर्षों के बाद उन्हें 250 पौंड की छात्रवृत्ति और अन्य व्यय के लिए रकम देने का प्रस्ताव स्वीकृत किया। एक माह की तैयारी के बाद रामानुजम प्राध्यापक नबिल व अपने परिवार के साथ इंग्लैंड रवाना हो गये। यह जलयान 14 अप्रैल को लंदन पहुंचा। 18 अप्रैल को वे कैंम्ब्रिज पहुंच गये।
कैंम्ब्रिज में रामानुजम की दृष्टि से नयी दुनिया, नये लोग व नया वातावरण था। नित नयी बातें होती थी। किंतु रामानुजम के गणित संशोधन कार्य में कभी बाधा नहीं पड़ी। रामानुजम के कार्य करने की रणनीति कैम्ब्रिज के गणितज्ञों से काफी भिन्न थी। वहां के गणितज्ञों को वह कभी-कभी अगम्य व अपूर्ण प्रतीत होती थी। कैंम्ब्रिज में हार्डो, लिटलवुड व रामानुजम की त्रयी ने रामानुजम की शोधपत्रिका पर अत्यंत परिश्रमपूर्वक कार्य किया। भारत में 1907 से 1911 व कैम्ब्रिज में 1914 से 1918 कुल 8 वर्ष का काल रामानुजम के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। कैंम्ब्रिज में नींद भोजन व नित्यकर्म में लगने वाले समय को छोड़ दिया जाये तो उनका समय वाचन, मनन और लेखन में व्यतीत होता था। इस अवधि में 24 शोध पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं। उन्होनें 150 वर्षों तक न मिले विभाज्य आंकड़ों के लिए सूत्र निश्चित किये।
तनाव व पोषण की कमी के कारण मार्च 1917 में वे बीमार पड़ गये। इंग्लैंड के गणमान्य नागरिकों व संस्थाओं ने उसके संशोधनों व संशोधक वृत्ति की ओर ध्यान दिया। मई 1918 में उन्हें क्षयरोग चिकित्सालय में रखा गया था। लेकिन पूर्ण चिकित्सा सुविधा के बावजूद उनका स्वास्थ ठीक नहीं हो पा रहा था। मद्रास विवि द्वारा कुछ सुविधाएं मिलने के बाद उनके भारत लौटने की व्यवस्था हो गयी।
भारत आगमन पर भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। ज्वर ने उनके शरीर में घर कर लिया था। उन्हें बीमारी में भी गणित पे्रम कम नहीं हुआ था। उन्हें गणित की नई नई कल्पनायें सूझती थी। वह बिस्तर से उठकर तेजी से गणित करने लगते थे। अत्यंत नम्र सादा, सरल व स्वच्छ जीवन जीने वाले महान गणितज्ञ रामानुजम का 26 अप्रैल 1920 को देहावसान हो गया।
— मृत्युंजय दीक्षित