कविता : वक्त…
माना मुट्ठी से रेत की तरह फिसलता जाता है यह वक्त !
चाहकर भी कोई नहीं वापिस पा सकता है गुज़रा वक्त !
वो बाते अतीत की वो अल्हड़पन के किस्सो से भरा वक्त !
वो बेफिक्र सा पल में हँसता पल में रोता बचपन का वक्त !
अपने उसूलों पे अपनी अलग पहचान लिए बड़ता जाता वक्त !
न किसी भेदभाव से न कोई मतभेद सबके लिए है एक सा वक्त !!!
— कामनी गुप्ता, जम्मू