संस्मरण

मेरी कहानी 89

13 अप्रैल को मेरे मामा जी और सारा परिवार आ गिया था , कुछ देर बाद मासी जी और उन का सारा खानदान भी आ गिया था। घर में रौनक हो गई थी। लड़किआं नाचने गाने लगीं। घर की छत्त पर खुली जगह थी और बच्चे भाग दौड़ कर रहे थे। प्रीतम सिंह झीवर हलवाई था जो सुबह को ही आ गिया था। प्रीतम सिंह का घर हमारे घर की पिछली ओर ही था और उन लोगों के साथ हमारे सम्बन्ध घर जैसे ही थे। पिता जी और दो चार और लोग विस्की का आनंद ले रहे थे और खूब ठहाके लगा रहे थे। रेडिओ बाहर रखा हुआ था जो ऊंची आवाज़ में बज रहा था ,लेकिन किसी का धियान रेडिओ की तरफ मालूम नहीं होता था ,एक शोरगुल सा था। एक बात थी कि ज़्यादा मेहमान ना होने के कारण सभी पास पास बैठे बातों का मज़ा ले रहे थे जो बहुत अच्छा लगता था क्योंकि खुल कर एक दूसरे के साथ बातें हो रही थीं। ढोलक के साथ औरतें भी अपना मज़ा ले रही थीं ,फिर रेडिओ किस ने सुनना था।

खाना कांसी की थालिओं में ही परोसा जा रहा था और पानी के लिए पीतल के बड़े ग्लास थे ,कोई क्रॉकरी नहीं थी। एक तरफ दो औरतें बर्तन साफ़ कर रही थीं जो गाँव में शादी समारोहों पर यह काम किया करती थीं। देर रात तक यह सिलसिला चलता रहा और सुबह को जल्दी उठने को कह दिया गिया था। छत पर मर्दों के लिए चारपाईओं पर बिस्तरे लगा दिए गए थे और औरतों बच्चों के लिए नीचे दालान में वयवस्था की गई थी। बातें करते करते सभी सो गए थे।

सुबह को कारें आ गई थी। अब तैयारी शुरू हो गई थी ,जिस में पहले मुझे गुरदुआरे में जाना था। सज धज कर मैं तैयार खड़ा था। दो भाबिओं ने मेरी आँखों में सुरमा डाला ,हाथ में किरपान पकड़ाई और मैं चल पड़ा। गाती हुई औरतें मेरे पीछे पीछे चलने लगीं। गुरदुआरा ( रामगढ़िया जाती का गुरदुआरा ) गाँव के बिलकुल दुसरी ओर था और धीरे धीरे चलते हुए पंद्रा बीस मिनट लग गए। गुरदुआरे में जा कर मैंने माथा टेका ,गियानी जी ने अरदास की और सब को परसाद दिया और हम वापस चल पड़े। घर पहुँच कर मैं कार में बैठ गिया और सभी धैनोवाली की ओर चल पड़े।

जब हम धैनोवाली फाटक पर पहुंचे तो हम हैरान हो गए जब आगे बाजे वाले खड़े बाजा बजा रहे थे और हम ने तो बाजा किया ही नहीं था , कुलवंत के पिता जी ने रेलवे के फाटक से घर तक जाने के लिए बाजे वालों को बुला लिया हुआ था। कुछ मिनटों में ही हम कुलवंत के घर के आगे खड़े थे। कुछ रस्में करने के बाद हमें एक छोटे से बरात घर में जाने को कहा गिया। वहां जा कर हम सभी आराम से बैठ गए और हमारे लिए चाय मठाई बगैरा सर्व की गई। बातें करते करते 11 बज गए थे और हमें कुलवंत के घर जाने का संदेश आ गिया क्योंकि शादी की रसम घर की छत्त पर होनी थी। पांच मिनट में हम घर आ गए और छत पर पहुँच गए यहां शामिआना लगा हुआ था।

ग्रन्थ साहब की बीड़ सुन्दर पुषाकों में सजी हुई थी और एक गियानी जी पाठ कर रहे थे। कई बातें अब याद नहीं लेकिन इतना याद है कि कुछ देर बाद मैं और कुलवंत ग्रन्थ साहब जी के सामने हाथ जोड़ कर बैठे थे। सिखों में चार लांव पड़ी जाती है और हर लांव के दौरान दोनों को महाराज की बीड़ की परकर्मा करनी होती है। जब रसम सम्पूर्ण हो गई तो कुछ लोगों ने लैक्चर दिए ,ज़्यादा तो याद नहीं लेकिन एक शख्स जो कहीं प्रोफेसर था ,उस ने बहुत कुछ बोला था कि अगर आज ऐसी सादा शादियां होनी शुरू हो जाएँ तो बेटी पैदा होने का कोई बोझ ना समझे। सारी रस्में बहुत जल्दी खत्म हो गई और हम फिर से बरात घर में आ गए। पिता जी अपने साथिओं को ड्रिंक दे रहे थे और हंसी मज़ाक चल रहा था।

जल्दी ही फिर हमें खाने का सन्देश आ गिया और हम छत पर उसी शामिआने के नीचे आ गए यहां अब कुर्सियां मेज लगे हुए थे और उन पर क्रॉकरी सजी हुई थी। बराती ज़्यादा नहीं थे ,सिर्फ एक बड़े परिवार जैसा वातावरण था। हम खाने का लुतफ ले रहे थे और औरतें इर्द गिर्द बैठी गा रही थीं और अपने गानों में हम पर जोक्स की वर्षा भी कर रही थी।
खाना खा कर हम नीचे आ गए और कुलवंत के घर के आँगन में आ कर बैठ गए। कुलवंत ने अपने हाथों से काफी कुछ बनाया हुआ था ,जैसे मेज पोश ,चादरें और कुछ और भी था जो अब याद नहीं। यहां ही कुलवंत की तीन शादी शुदा बहनें और उन के पतिओं से परिचय हुआ जिन में कुंदन सिंह कुंदी जो मेरे साथ रामगढ़िया स्कूल में ही पड़ा करता था और जिन को मैं मुबाई में भी मिला था के साथ बहुत बातें हुईं। कुंदी अब तक एक बेटे का बाप भी बन चुक्का था।

यह सभी रस्में कुछ ही घंटों में हो गई थी और मेरा अंदाज़ा है कि हम तीन चार बजे वापस चल पड़े थे। कार की पिछली सीट पर मेरे साथ बैठी कुलवंत रो रही थी। मेरे पिता जी कुलवंत के पिता जी से हाथ मिला रहे थे और उन को गले से लगा रहे थे क्योंकि वोह रो रहे थे। यों ही हमारी गाड़ी चली कुलवंत फुट फुट कर रोने लगी। जीटी रोड पार करके जब हम चाहेडू गाँव में दाखल हुए तो मैंने देखा ,कुलवंत की आँखों का काजल और लिप्सटिक रो रो कर चेहरे का हुलिआ बिगाड़ रही थी। उस का रोना अब बंन्द हो गिया था और मैंने उसे चेहरा ठीक करने को कहा। अपने पर्स में से उस ने छोटा सा शीशा निकाला और उस में अपना चेहरा देख कर मेरी ओर देखा और मुस्करा पड़ी। चेहरा साफ़ करके उस ने फिर से लिप्सटिक लगाईं। ” अब ठीक है ” मैंने कहा और वोह फिर मुस्कराई और कुछ कुछ समान्य होने लगी।इस तरफ अभी सड़क बनी नहीं थी और कच्चे रास्ते की हालत बहुत बुरी थी। हिचकोले ले ले कर कार आगे बढ़ रही थी और बाहर की धूल कार के दरवाज़ों में से अंदर दाखल हो कर हमारे नए कपड़ों पर पड़ रही थी।

कुछ ही देर बाद हम घर के दरवाज़े के आगे खड़े थे। भीतर से औरतें गा रही थीं। माँ एक गड़वी ले कर खड़ी थी , जिस में पानी मिला दूध था। माँ जब पीने लगती तो मैं गड़वी पे हाथ मार कर पीने से रोकता ,जिस से सभी हंस पड़ते। कुछ और रस्मों के बाद हम भीतर आ गए। औरतें हमें ऊपर चुबारे में ले गईं। औरतें लड़किआं और बच्चे सभी चुबारे में इकठे हो गए थे और कुछ देर बाद मैं नीचे आ गिया और दोस्तों से बातें करने लगा। मामा जी , मासी और उन के घरों के सभी सदस्य खाना खा कर अपने अपने गाँवों को चले गए और घर का वातावरण शांत हो गिया। मासी जी की बड़ी लड़की छिंदो कुछ दिन और हमारे घर में रहने के लिए रज़ामंद हो गई थी ।

सुहाग रात मनाने का जो आज कल कलरफुल इंतज़ाम किया जाता है ,उस समय यह बिलकुल नहीं होता था। रात हो चुक्की थी और छिंदो ने चुबारे में मेरे और कुलवंत के सामने खाना रख दिया और चले गई। बड़े मज़े से हम ने खाना खाया और हँसते रहे। खाना खा कर मैंने छिंदो को आवाज़ दी कि वोह बर्तन ले जाए। छिंदो आ कर सभी बर्तन ले गई और कुछ देर बाद कैटल में दूध और साथ में दो कप्प रख कर शुभ रात्री कह कर चले गई। हम दोनों ने किया किया बातें कीं ,अब याद नहीं ,बस यह ही कह सकता हूँ कि यह ज़िंदगी की सब से हसीन रात थी।

जब सुबह उठे तो ऐसा लगा जैसे हम सदिओं से एक दूसरे को जानते थे। कुलवंत की आदत शुरू से ही सब के साथ जल्दी मिक्स होने की है। रिवाज़ के मुताबक कुलवंत पिता जी और दादा जी से घुंगट निकालती थी और मैंने भी उस को ऐसा करने से नहीं रोका था क्योंकि मुझे यह अच्छा लगता था । माँ और मासी जी की लड़की छिंदो के साथ वोह घुल मिल गई थी और माँ के मना करने के बावजूद कुलवंत घर के काम में वयस्त हो गई थी। छिंदो बहुत खुशदिल थी ,इस लिए जल्दी ही उन का आपसी प्रेम बड़ गिया था। दादा जी के चरणों में जब वोह माथा टेकती ,तो वोह बहुत खुश होते और आशीर्वाद देते ।

पिता जी अक्सर सारा दिन या तो खेतों में चले जाते थे या राणी के बाजार में अपने दोस्तों के साथ होते। पिता जी की एक बात देख कर मुझे हैरानी होती थी कि उन्होंने सारी उम्र खेती कर के देखि नहीं थी और अब यह इतना बड़ा इंकलाब कैसे आ गिया था। हो सकता है ,सारी उम्र बाहर गुज़ार कर वोह हमेशा के लिए गाँव में रहने का मन बना चुक्के थे ,जैसा कि उन्होंने एक दफा मुझे हिंट भी दिया था लेकिन मैंने उन की बात को धियान में नहीं लिया था और उन्होंने यह सच्च कर दिखाया था ,तभी तो उन्होंने ट्यूबवैल लगा लिया था और ट्रैक्टर भी ले लिया था। कुआं अब भी वहीँ था लेकिन इस के साथ वाली कुएं की मशीनरी नहीं थी। ऊपर से बिलकुल खुला था और पानी बिलकुल ऊपर तकरीबन दस बाराह फ़ीट ही नीचे था जिस की तरफ देख कर कुछ भय सा लगता था और यह सेफ बिलकुल नहीं था। यह भय सच्च साबत उस समय हुआ जब इसी कुएं में गिर कर पिता जी यह दुनिआ छोड़ गए थे।

अब हमारा प्लान कुछ घूमने फिरने का था और इस से पहले वापस इंगलैंड जाने की सीट भी बुक करानी थी। इस लिए एक दिन मैं जालंधर एअर अफगान के दफ्तर में गिया और कुलवंत के लिए सीट का पता किया। मेरी टिकट तो रिटर्न थी लेकिन कुलवंत के लिए कोई सीट खाली नहीं थी। बुकिंग क्लर्क कहने लगा कि सिर्फ फर्स्ट क्लास की सीटें ही थीं। मैंने उसे कहा कि दो सीटें फर्स्ट क्लास की बुक कर दे। मुझे काफी पैसे और देने पड़े थे लेकिन हमारी सीटें ओके हो गईं। टिकटें ले कर मैं वापस आ गिया और दूसरे दिन चंडीगढ़ जाने का प्रोग्राम बना लिया। चंडीगढ़ मेरे बहनोई के दोस्त नागी साहब रहते थे जो स्टेट ऑफिस में काम करते थे। बहनोई साहब ने उन के लिए एक गिफ्ट भी मुझे दिया हुआ था जो मैंने उन को सौंपना था।

सुबह सुबह टाँगे में बैठ कर हम पहले फगवाड़े को चल पड़े। अभी तक ना तो फगवाड़े को कोई बस जाती थी ,ना ही कोई टैम्पू। फगवाड़े पहुँच कर हम ने चंडी गढ़ के लिए बस ली और कुछ ही घंटों में हम चंडी गढ़ पहुँच गए। थ्री वीलर ऑटो ले कर हम नागी साहब के घर पहुँच गए। नागी साहब कोई तीस पैंतीस वर्ष के नौजवान थे और उन की पत्नी बहुत सुन्दर और हंसमुख थी. नागी की पत्नी और कुलवंत ने मिल कर खाना बनाया। यह खाना हमें हमेशा याद रहेगा किओंकि इस में दाल सब्जीआं बहुत थीं और बहुत ही छोटी छोटी कौलिओं में सर्व की गई थीं। खाना बहुत ही स्वादिष्ट था।

शाम को नागी और उस की पत्नी हमें शॉपिंग सेंटर ले गए ,कौन सा सैक्टर था हमें याद नहीं लेकिन चंडीगढ़ हमें बहुत अच्छा लगा। खुली सड़कें ,बड़ी बड़ी कोठीआं और सफाई इतनी कि लगता नहीं था कि हम इंडिया में ही थे। यह शायद 1957 ,58 ही होगा जब मेरे दादा जी किसी ज़मीन के केस में चंडीगढ़ कोर्ट में जाया करते थे। तब चंडीगढ़ अभी बन ही रहा था और दादा जी हमें बताया करते थे कि यह बहुत ही सुन्दर शहर बन रहा था । आज हम चंडीगढ़ में ही थे और देख देख कर हैरान होते थे। देर रात तक हम बाहर रहे और बाहर ही खाया पिया।

सुबह नागी तो काम पर चले गिया और हम ने सारे दिन के लिए एक औटो ले लिया जिन में हमें चंडीगढ़ के बहुत से सैक्टर दिखाए गए। अब ज़्यादा तो याद नहीं है लेकिन इस के बाद जैसा नागी ने हमें बताया था हम पिंजौर गार्डन चले गए। नागी ने पिंजौर गार्डन के बारे में कुछ कुछ मुझे रात को ही बता दिया था कि यह गार्डन पहले औरंगजेब के सौतेले भाई फिदाई खान ने बनाया था .लोकल राजाओं ने उसे चैन से रहने नहीं दिया था .एक बात और भी थी कि वहां एक बीमारी भी शुरू हो गई जिस से गर्दन सूज जाती थी। इस्त्रीओं को यह ज़्यादा होती थी और फिदाई खान की बेगमों को भी यह बीमारी लगने लगी थी ,जिस से डर कर फिदाई खान यहां से चला गिया था और कभी वापस नहीं आया था ,इस लिए यह गार्डन सदिओं तक वैसे ही खराब और जंगल बना रहा। पटिआले के महाराजा यादविंदर सिंह ने इस को फिर से रहने योगय बनाया। यह गार्डन चंडीगढ़ से अठरा बीस मील दूर ही होगा।

जब हम वहां पुहंचे तो दुपहर का वक्त था और ज़्यादा लोग नहीं थे। कहने की बात नहीं कि यह गार्डन हमें बहुत अच्छा लगा। ज़्यादा तो याद नहीं लेकिन यहां पानी के फुहारे चल रहे थे ,हमें बहुत अच्छा लगा। आमों के बृक्ष बहुत थे और हम ने रौलीफ्लैक्स कैमरे को स्टैंड पर फिक्स करके और उस को ऑटोमैटिक पर सैट करके अपनी दोनों की फोटो खींची थी ,वोह हमारी पिंजौर गार्डन की यादगार है। हम तकरीबन एक घंटा यहां रहे थे। इस जगह से एक छोटी सी याद कभी कभी ताज़ा हो जाती है। कुलवंत के चूड़ा पहनने से ज़ाहर होता ही था कि हमारी नई नई शादी हुई थी ,कुछ लड़के कुछ दूर घूम रहे थे और शायद हमारे बारे में बातें कर रहे होंगे ,एक ने ऊंची बोला ,”ओए इंद्रा बिल्ली ! “. हम मुस्करा दिए थे। इंद्रा बिल्ली उस समय एक प्रसिद्ध ऐक्ट्रैस हुआ करती थी जो अक्सर पंजाबी फिल्मों में सुन्दर के साथ हीरोइन होती थी।

कौन सा होटल था यहां हम ने खाना खाया याद नहीं लेकिन इस के बाद हम वापस चंडीगढ़ आ गए और झील पर चले गए ,इस झील का नाम मुझे याद नहीं लेकिन यह जगह हमें बहुत अच्छी लगी और यहां बोटिंग भी की और कुछ फोटो भी लिए जो शायद किसी एल्बम में पड़े हों ,कुछ याद नहीं। सारा दिन घूम घूम कर हम थक गए थे और घर आ गए ,नागी भी काम से आ गिया था और उस ने मुझे ठंडी ठंडी बीयर पिलाई ,खाना खाया और देर रात तक बातें करते रहे। सुबह को नागी और उस की पत्नी हमें बस स्टेशन ले गए और बस चढ़ा कर सत सिरी अकाल बोल कर चले गए और हमारा सफर राणी पुर की ओर शुरू हो गिया।

चलता . . . . . . . . .

 

5 thoughts on “मेरी कहानी 89

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह ही। विवाह एवं उसके बाद चंडीगढ़ भ्रमण के रोचक समाचारों का आनंद लिया। आप भाग्यशाली हैं कि आपकी श्रीमती जी ने विवाह के कुछ ही समय बाद घर के सभी सदस्यों के साद प्रेम वा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बना लिए। वेदो में भी पत्नी को ऐसी ही शिक्षा दी गई है। आज कल माहौल बदल गया है या बदल रहा है। पिताजी कुवें में गिरकर परलोकगामी हुवे यह पढ़कर पीड़ा हुई। यदि इस कुवें को समय पर बंद कर दिया जाता तो अच्छा होता, तब शायद यह घटना न होती। पूरी जानकारी पठनीय एवं रोचक है। हार्दिक धन्यवाद।

    • धन्यवाद ,मनमोहन भाई .

    • धन्यवाद ,मनमोहन भाई .

  • विजय भाई , हमारी शादी बेछक सादी थी लेकिन इस में आनंद था किओंकि घर के लोग ही होने के कारण सारे मिल जुल कर बैठे बातें कर रहे थे और बहुत अच्छा लग रहा था और उसी सभी अपने अपने घरों को चले गए थे और जल्दी ही सब शांत हो गिया ,ऐसे लगता था जैसे कुछ हुआ ही ना हो .
    चंडीगढ़ तो अब बहुत बडीया होगा किओंकि हम को तो गए ४८ साल हो गए हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाईसाहब, आपकी शादी का हाल पढकर मज़ा आ गया। मैंने भी बहुत सादगी से शादी की थी, कोई बैंडबाजा नहीं था और लेन-देन भी नहीं किया था।
    चंडीगढ़ वास्तव में खूबसूरत शहर है। हम उससे सटे हुए पंचकूला में ५ साल रह चुके हैं। वह भी बहुत साफ सुथरा और सुंदर है।
    चंडीगढ़ की उस झील का नाम सुखना झील है। हम वहाँ बहुत बार गये थे।
    पिंजौर गार्डन भी बहुत अच्छा बना है। पर पानी की कमी के कारण फ़व्वारे अब बहुत कम चलते हैं।

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