कविता : झूठ बेनकाब हो
दामन में मुँह छुपाये बैठे है
अजब निराले कौतूक करके बैठे है
पाक साफ बनते है
सरेआम शोषण करते है
जनता के बीच
सिर उठा चलते है
अपने को बड़ा कहते है
बड़े मिलों के मालिक
फले फूले है
मजदूरों के शोषण पर
महल बनाये हुए है
इनकी हड्डियों पर
सुबह से शाम लगे रहते है
धूँप ताप में सड़ते रहते है
इनके सुरों को कोन सुनेगा ?
धनी तो ओर धनी
निर्धन ओर निर्धन बनेगा
पूँजीवाद फिर से फलेगा
लाला तो ओर लाला बनेगा
साम्यवाद,समता,समाजवाद शब्द
थोथे प्रतीत होते है
इनकी आड़ में
मिलों के मालिक समृद्ध होते है
मंहगाई की मार
बेबस मजदूरों पर ही ज्यादा है
रूखी सूखी का ही सकून है
कितना अच्छा हो
झूठ बेनकाव हो जाए
सबको मेहनत का पर्याप्त मिले
कोई भी गरीबी में
फाँसी के फन्दे को न खेले
न हो बोझ कन्यायें
ऐसा हो सकता है
इन्कलाब आ सकता है
सभी को रोजी रोटी मिलनी चाहिए
मालिकों को हैवान नही होना चाहिए
लड़कों की बोली लगना
बन्द होना चाहिए
लडकियों को ही आगे आना चाहिए
हास्यास्पद लगती है
किताबों की सी बातें लगती है
परिवर्तन होना मुश्किल है
अगर सत्ताधारी बटोरते रहे
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए
फिर कैसे सोचा जाए
कि होगी गरीबी दूर
निजात मिलेगीं मजदूरों को
शोषण से
— डॉ मधु त्रिवेदी