कविता : ये कैसी चली लड़ाई है
आतंकवाद के नाम पर, ये कैसी चली लड़ाई है
जुर्रत-ए-जंग में कहीं न कहीं खुदगर्जी समाई है।
हथियारों के होड़ में केवल बर्चस्व की लड़ाई है
एक ओर इस्लाम खड़ा है छोर दूसरे ईसाई है
दोनों राग अलापें खुद के मैं बडा तो मैं बडा
आतंकवाद के समर क्षेत्र में मानवता शरमाई है।
धर्म नहीं ईमान नहीं इंसानियत भी नहीं कहीं से
सब कुछ लुटा होता शुरु बहशीपना भी यहीं से
आँखें फाड़ – फाड़ रोते रहे जंगली जानवर भी
इंसानियत अब आदमी में है नहीं आज कहीं से।
हैवानियत की अब और कबतक बजेगी शहनाई
आतंकवाद के नाम पे देखो कैसी चली लड़ाई है।
— श्याम स्नेही