ग़ज़ल
यूँ तो सबके जिगर में कोई तो छाला होगा,
मगर मुझसा ना कोई चाहने वाला होगा
भूल गया चाँद मेरा मेरी गली का रस्ता,
मेरी किस्मत में ही शायद ना उजाला होगा
यक-ब-यक साथ मेरा छोड़ के जाने वाले,
सोच किस तरह मैंने खुद को संभाला होगा
इस एहसास से रूह कांप सी उठती है मेरी,
किस तरह तूने मुझे दिल से निकाला होगा
घर से निकला तो हूँ कहने को हाल-ए-दिल उनसे,
सामने उनके पर ज़ुबान पे ताला होगा
आदमी बन गया इंसान किसी रोज़ अगर,
इश्क ही तब यहां मस्जिद-ओ-शिवाला होगा
— भरत मल्होत्रा