ग़ज़ल
वक़्त मुझसे लगे खफ़ा सा है.
ज़िस्म से जैसे जी जुदा सा है.
यूँ तो अरसा हुआ उसे बिछड़े
पर वो दिल में कहीं छुपा सा है.
मेरे दिन रात महकते हैं यूँ
वो तो ख़ुशबू भरी हवा सा है.
क्या बताऊँ है पाक वो कितना
लब से निकली हुई दुआ सा है.
आज फिर ख़ाक हो गए अरमाँ
आसमाँ में घिरा धुँआ सा है.
— अनिता मण्डा
वाह वाह ! बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !