मेरी कहानी 90
चंडीगढ़ का सफ़र बहुत अच्छा रहा था । घर आ कर एक दो दिन घर में ही रहे। मुहल्ले की कुछ औरतें आ जाया करती थीं और हमारे आँगन में बैठ कर गप्पें मारती रहती थीं। बचनो और गेजो भाबी से मेरा मज़ाक इंगलैंड जाने से पहले भी चलता रहता था और अब भी वोह रोज़ ही आ जाती थीं। बचनो भाबी मेरे ताऊ रतन सिंह की बहु थी ,जो मेरी शादी पे तो नहीं आई थी लेकिन अब रोज़ ही आ जाती थी। यह बचनों भाबी वोही ही थी जिस के पास बचपन में मैं सोया करता था और इस की ही बड़ी बेटी गुड्डी का हाथ चारे की मशीन में आया था। गुड्डी अब बड़ी हो गई थी और अब भी उस का लगाव मेरे साथ वोही था। कुछ ही दिनों में कुलवंत बहुत सी औरतों को जानने लगी थी।
कई दफा मैं बाहर पीपलों की तरफ चला जाता और मास्टर बाबू राम के लड़के राम सरूप जिस को नप्पल भी बोलते थे, से बातें करता रहता। कभी कभी राम सरूप का बड़ा भाई लुभाया राम भी आ जाता जिस के हाथ में हमेशा सिगरेट ही होती थी। जब बचपन में हम राम सरूप के घर उन के पिता मास्टर बाबू राम से पढ़ा करते थे तो उस समय लुभाया राम की नई नई शादी हुई थी और हमारे एक साथी हरभजन ने लुभाया राम की पत्नी के बारे में कुछ शब्द बोले थे और इस पर मास्टर बाबू राम ने उस को बहुत पीटा था और हमें भी इन का घर छोड़ना पड़ा था। नप्पल यानी राम सरूप इस बात को याद करके हँसता रहता था और बताता था कि हरभजन तो अब बहुत ही गलत रास्ते पर चला गिया था। गियान चंद की दूकान तीस चालिस गज की दूरी पर ही थी ,इस लिए मैं उधर भी चला जाता और उस के साथ गप्पें हांकता रहता।
कुछ दिन बाद हम ने सुन्दर नगर जाने का प्रोग्राम बना लिया , वहां मेरे मामा जी के लड़के संतोख सिंह की पोस्टिंग हो गई थी। इस से पहले वोह भाखड़ा डैम पर काम करते थे और इंगलैंड जाने से पहले मैं उन को मिलने के लिए गिया था . सुन्दर नगर पहुँचने में कितने घंटे बस में लगे याद नहीं लेकिन रास्ते में पहाडी इलाके के सीन याद हैं और इन रास्तों में बस कैसे चल रही थी और कितने खतरनाक रास्ते थे सब याद है . जब सुन्दर नगर हम पहुंचे तो संतोख बस स्टैंड पर हमें लेने आया हुआ था। जल्दी ही हम घर पहुँच गए। हमारी भाबी पहले ही खाना तैयार कर रही थी। भाबी बहुत हंसमुख है और अब दोनों मिआं बीवी हुशिआर पुर में रहते हैं यहां संतोख ने बहुत अच्छा मकान बना लिया था और अब वोह बहुत बूढ़े हो चुक्के हैं लेकिन भगवान ने उन्हें कोई बच्चा नहीं दिया। संतोख की बहन की लड़की और उस का पति कभी कभी आ कर उन को देख जाते हैं।
संतोख को एलज़ाइमर है और उस की यादाशत बिलकुल खत्म हो गई है. संतोख जब फगवाड़े में सिविल इंजनियरिंग कर रहा था तो राणी पर हमारे घर ही रहा करता था ,इसी लिए उस से हमारा लगाव बहुत था। वैसे भी संतोख बहुत ही हंसमुख होता था और उस का चेहरा बिलकुल मेरे चेहरे से मिलता था। जब कभी मैं मामा मामी को मिलने डींगरीआं अपने ननिहाल जाया करता था तो कई लोग मुझे देख कर संतोख ही समझ लेते थे और मुझ से बातें करने लगते थे लेकिन मैं बोलता कम था और संतोख बहुत बोलता था ,जिस से उन लोगों को समझ आ जाती थी कि मैं संतोख नहीं हूँ और वोह उठ कर चले जाते थे। संतोख सिंह का एक छोटा भाई निरवंत सिंह भी है लेकिन उस के साथ मेरा कोई कौन्टैक्ट नहीं हो सका और उसे देखे भी पचास साठ वर्ष हो चुक्के हैं।
जब हम घर पहुंचे तो भाबी ने उठ कर कुलवंत को अपनी बाहों में ले लिया और फिर मुझे पकड़ लिया कि मैंने उन को कभी खत नहीं डाला था। मैं भी हीं हीं करता जवाब देता रहा। यह घर उन को गवर्नमेंट की और से मिला हुआ था और छोटा सा था लेकिन बहुत साफ़ सुथरा था। भाबी खाने बहुत अच्छे बनाती थी और हमें भी भूख लगी हुई थी। खाना खा कर मज़ा आ गिया। कुछ देर आराम करने के बाद संतोख मुझे अपने काम की साइट पे ले गिया। काम देख कर मैं हैरान हो गिया। संतोख ने ऑफिस में जा कर दूसरे इन्ज्नीरों को कुछ इंस्ट्रक्शंज़ दिए और हम चल पड़े काम देखने।
पहाड़ को काट कर एक टनल बन रही थी। कुछ लोग कुआंगोज़ से पत्थरों को काट रहे थे। यह कुआंगो एक मशीन से चलते थ, जिसके आगे एक चिज़ल होती थी और जब यह चलती थी तो चिज़ल का हैमर ऐक्शन होता था जैसे हथौड़ा एक मिनट में हज़ार दफा पत्थर से टकरा रहा हो. चिज़ल आगे से तीखी होती थी और पत्थरों को काटती थी। यह टनल हर तरफ तकरीबन बीस फ़ीट चौड़ी होगी। जब मैंने देखि थी तो तब डेढ़ दो सौ गज़ ही बनी थी। पहाड़ के बीच यह बन रही टनल बहुत अच्छी लगी। संतोख ने मुझे बताया था कि यह टनल बनने से रास्ता बहुत कम हो जाएगा। अब तो यह टनल काफी बिज़ी होगी, मुझे इस के बारे में कोई पता नहीं है कि यह है भी या नहीं।
हम साइट से वापस आने लगे ,कुछ ट्रकक काटे हुए पत्थर के टुकड़ों को कहीं ले जा रहे थे। हम घर आ गए और फिर शाम को संतोख मुझे अपने दोस्तों के पास ले गिया जो वॉलीबाल खेल रहे थे। हम भी उन के साथ खेलने लगे। काफी शोर मच रहा था, ख़ास कर जब कोई नैट के नज़दीक आ कर जोर से वौली मारता और पुआएंट हो जाता। जब अँधेरा होने लगा तो हम घर आ गए। दूसरे दिन हम मंडी में शॉपिंग करने चल पड़े। क्योंकि संतोख को काम की और से जीप मिली हुई थी ,इस लिए उन्होंने घर का कुछ राशन खरीदा और हम ने भी दो गर्म कार्डिगन खरीदे। पास ही एक नदी थी जिस पर पुल बना हुआ था।
हम पुल पर जा रहे थे कि एक पहाड़न हमारे पास से गुज़री तो शायद वोह ठीक नहीं थी ,इस लिए उस ने उलटी कर दी जिस के कुछ छींटे भाबी के कपड़ों पर पड़ गए। भाबी तो गुस्से में तिलमिला उठी और बोली ,” एह पहाड़िये भी बाँदर ही हुंदे आ “. संतोख ने कहा ,”चल छोड़ भी ” लेकिन भाबी बोले जा रही थी। मुझे भाबी के सुभाव का पता था ,इस लिए हम तो चुप ही रहे लेकिन मेरे दिल में उस पहाड़न के लिए हमदर्दी थी। कुछ देर बाद मैं और संतोख नदी जो उस जगह बहुत नीची थी के नीचे चले गए और ट्राऊज़र्ज़ को ऊपर की तरफ फोल्ड करके और जूते उतार कर ठंडे पानी का नज़ारा लेने लगे . कुछ और इर्द गिर्द घूम कर हम वापस आ गए। शाम को हम ने प्रोग्राम मनाली जाने का बनाया। सुबह जब उठे तो मेरी अर्धांगिनी की तबीयत खराब हो गई और तेज बुखार हो गिया। मनाली का प्रोग्राम कैंसल हो गिया और दूसरे दिन हम वापस राणी पुर आ गए।
अब सब कुछ हो गिया था ,सिर्फ एक छोटा सा काम था, सोचा वोह भी करता चलूँ। शायद दो हज़ार रूपए का होगा एक मेरा अकाउंट सैंट्रल बैंक फगवाड़े में, जो रेलवे रोड पर होता था। एक दफा जब कुछ पैसे लेने के लिए मैं गिया तो वोह कहने लगे कि यह नौनं रैज़ीडैंट अकाउंट है ,इस लिए पहले जालंधर हैड ऑफिस से मंजूरी लेनी होगी। यह सुन कर मैं अपसैट हो गिया था । मैंने फैसला किया कि अकाउंट बंद ही करवा दूंगा। इस छोटे से काम को करने के लिए मेरे बहुत दिन लगे जिन को लिखने के लिए भी वक्त लगेगा। आख़री दिन मैं जालंधर हैड ऑफिस के मैनेजर को मिला और उस से बातें कीं।
अपनी रंजिश उस को बताई तो वोह बोला ,” इतने पुआड़े में क्यों पड़ना था , अपने किसी दोस्त को हमारे ऑफिस से फ़ार्म लेने के लिए कह देते ,जो तुम्हें इंगलैंड भेज देता और तुम उस पर दस्तखत करके इंडिया भेज देते और फिर वोह दोस्त तुम्हारे लिए अकाउंट खुलवा देता और तुम ब्लैक मणि जितनी मर्ज़ी जमा करवाते रहते और कभी भी आ कर दो मिनट में पैसे ले लेते” मैंने कहा ,” सोचूंगा ,फिल हाल इन पैसों की मंजूरी सैंक्शन कर दो “, वोह फ़ार्म ले कर मैंने बस पकड़ी और फगवाड़े आ गिया ,सीधा बैंक गिया और विदड्रावल फ़ार्म भर दिया और अकाउंट क्लोज़ करने के लिए कह दिया। बैंक से बाहर आ कर मैंने गुस्से में बैंक बुक फाड़ कर फैंक दी। घर आ कर हम ने वापस जाने की तैयारी शुरू कर दी। सीट तो पहले ही बुक हो चुक्की थी लेकिन मुझे याद नहीं ,किस तारीख को हम ने जहाज़ लेना था। हम ने पैकिंग कर ली थी।
गाँव का ही दारी नाम का एक लड़का था जो राणी पुर से फगवाड़े को तांगा चलाता था. उस ने ही हमारा सामान और हमें धैनोवाली छोड़ देना था और धैनोवाली से हम ने टैक्सी में अमृतसर एअरपोर्ट पर जाना था। नियत दिन घर के सभी सदस्यों को मिल कर हम धैनोवाली की तरफ चल पड़े। रात हम धैनोवाली रहे और सुबह को टैक्सी आ गई जिस का इंतजाम कुलवंत के डैडी ने किया हुआ था और हमारे साथ ही एअरपोर्ट जाना था। सुबह को हम चल पड़े और कुछ ही घंटों में अमृतसर राजा सांसी एअरपोर्ट पर जा पहुंचे। हम वक्त से काफी पहले पहुँच गए थे ,इस लिए हम एक चाय के खोखे जो एअरपोर्ट बिल्डिंग के सामने था के पास कुर्सीओं पे बैठ गए और चाय का आर्डर दे दिया। इर्द गिर्द कोई सफाई नहीं थी और चाय वाले खोखे के सामने वैसे ही गंद था जैसे आम सस्ती दुकानों के सामने होता है (अब तो काफी शानदार बड़ी बिल्डिंग है ).
वक्त से तीन घंटे पहले एअरपोर्ट बिल्डिंग के दरवाज़े खोल दिए गए और तब तक काफी लोग आ गए थे। एक बात मैं भूला नहीं, उस समय लोग अभी भी ऐसे थे जैसे इंडिया में बस पकड़ने के लिए धक्म्धक्का करते हैं। लोगों के पास खादी की चादरों में लिपटी हुई रजाईआं जो मोटे मोटे रस्सों के साथ बाँधी हुई थीं ,कुछ लोगों ने गन्ने बांधे हुए थे और कई लोगों के पास आम के आचार के मरतवान् थे। जब हम सभी भीतर चैक इन काउंटर पर गए तो वोह नज़ारा कभी भूलता नहीं। हर कोई अपना अपना सामान एक दूसरे के आगे हो कर रख रहा था और हम दोनों एक दीवार के साथ खड़े चुप चाप यह सब देख रहे थे। कई तो लड़ रहे थे जैसे उन का जहाज़ छूट जाएगा और वोह पीछे रह जाएंगे।
कुलवंत के डैडी भी जहाज़ चढ़ाने आये लोगों में खड़े थे और मुझे घूर घूर कर इशारा कर रहे थे कि हम भी अपना सामान आगे रखें लेकिन मैंने हाथ से इशारा किया कि वोह फ़िक्र ना करें। इसी जहाज़ में दो गोरे भी थे जिन के एक्सेंट से पता चलता था कि वोह अमेरिकन थे। एक बोला ,” eh ! whats going on in here ,never seen like it before !”. चैक इन पे यूनिफार्म में दो सिंह थे। एक ने गुस्से में एक की रजाई और सूटकेस उठा कर दूर फैंक दिया और मुझे बोला ,” आप आइये सरदार जी “. हम ने अपना सामान रखा और दो मिनट में हम वहां से फारग हो गए और इमिग्रेशंन की तरफ बड़ गए। यहां से कुछ मिनटों बाद हम हाल में आ गए और रिलैक्स हो कर बैठ गए और जहाज़ की इंतज़ार करने लगे।
धीरे धीरे लोग आ रहे थे और सब चैन से बैठ रहे थे। मैं सोच रहा था कि कैसे लोग थे हम ! सभी की सीटें इसी जहाज़ की थीं ,फिर चैक इन पर इतनी घबराहट क्यों थी। कुलवंत थकी हुई लग रही थी और वैसे भी घर वालों को छोड़ कर पहली दफा इतनी दूर जाना उस के लिए असहनीय हो रहा था ,वोह चुप चुप थी ,उस का वोह चेहरा अभी तक याद है और वैसे भी कुलवंत जस्मानी तौर पर बहुत हलकी थी। खाने पीने के लिए वहां हाल में कुछ नहीं था। रनवे हमारे सामने ही था और हम शीशे की दीवार से बाहर देख रहे थे। तभी एक जहाज़ लैंड हो गिया और पंजाबी उस में से हाथों में बैग पकडे हुए एअरपोर्ट बिल्डिंग की तरफ आने लगे और कस्टम वाली बिल्डिंग के दरवाज़े से अंदर जाने लगे।
कुछ देर बाद हमें भी जहाज़ की तरफ जाने को कहा गिया। दो अधिकारी दरवाज़े पर खड़े ,जिन के हाथों में पैसेंजर लिस्ट थी ,देख देख कर हमें जाने दे रहे थे। जहाज़ के नज़दीक पहुँच कर हम जहाज़ की सीढ़ी से चढ़ने लगे। जहाज़ के दरवाज़े पर खड़ी दो अफगानी लड़किआं हमारा सवागत कर रही थी। बोर्डिंग कार्डों पे सीटों के नंबर देख कर हम जल्दी अपनी सीटों पर आ गए ,बैग ऊपर कम्पार्टमेंट में रखा और रिलैक्स हो कर बैठ गए। अफगानी लड़किआं लोगों की मदद कर रही थीं। धीरे धीरे सभी यात्री आ गए और जहाज़ का दरवाज़ा बंद कर दिया गिया।
कुछ देर बाद माइक में किसी लड़की ने इंग्लिश में अनाउंसमेंट की, जो याद नहीं लेकिन सभी अपनी अपनी सीट बैल्ट बाँधने लगे। इंजिन स्टार्ट हुआ ,और कुछ देर बाद स्पीड बड़ गई और जहाज़ धीरे धीरे चलने लगा। जहाज़ रनवे पर काफी दूर चला गिया और खड़ा हो गिया। कुछ मिनट बाद इंजिन फुल स्पीड पर हो गिया और एक दम तेज दौड़ने लगा और ऊपर उठ गिया। कुलवंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और विंडो के बाहर देखने लगी। अमृतसर शहर के ऊपर हम उड़ रहे थे। मैं ने कुलवंत को नीचे हरमंदर साहब देखने को कहा। जहाज़ ऊंचा और ऊंचा हुए जा रहा था और कुछ ही मिनटों में हम बादलों के ऊपर थे। कुलवंत के मन में किया होगा ,यह तो वोह जाने लेकिन हम एक नई दुनिआ बसाने चल पड़े थे जो अब लिखते समय सोच रहा हूँ कि क्या से क्या हो गिया। अपनी धरती माँ को छोड़ कर सौतेली माँ की गोद में ज़िंदगी गुज़ार दी।
चलता. . . . . . . . .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरी क़िस्त का आनंद लिया। इस क़िस्त में आपके अंतिम शब्दों ने आकर्षित किया कि पूरी जिंदगी सौतेली माँ की गोद में गुजार दी। इस पर मुझे रामायण में महर्षि वाल्मीकि जी के शब्द याद आ गए “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” अर्थात माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। यह बात रामायण काल में तो सर्वथा सत्य रही होगी परन्तु आजकल अवश्य परिवर्तन आ गया है। आजकल विदेश मुख्यतः यूरोप में बहुत सी बातें अच्छी हैं जो भारत में नहीं हैं। सादर।
मनमोहन भाई , धन्यवाद . इंसान की शायेद यही विडंबना है कि उस को कभी पता नहीं होता कि उस की आने वाली जिंदगी में आगे किया होने वाला है . आज मैं सोचता हूँ कि हमारे गाँव से पहले पहल कुछ लोग अफ्रीका जाने लगे थे ,जिन में मेरे पिता जी भी थे .मेरे पिता जी को छोड़ कर और कोई वापस गाँव नहीं आया .इस का कारण तो सदाह्र्ण है कि बच्चे हो जाते हैं और उसी देश में पड़ने लगते हैं ,फिर शादीआं हो जाती हैं और जो इंसान गाँव से उठ कर आया था ,वोह अपनी जनम भूमि को मन में रखते हुए ही सौतेली माँ की गोद में प्राण दे देता है .
धन्यवाद आदरणीय महोदय। आपके उत्तर से सहमत हूँ।