जीवन पतंग
जीवन की पतंग
पतंग के मंजे से कटती ऊँगली से
बहते रक्त की धार में
बचपन की निकल आई यादों के साथ
आज हो गए जैसे दो दो हाथ!
बचपन कि जिसे बहुत पीछे छोड़ दिया
जैसे फूलों के पथ से किसी ने काँटों में मोड़ दिया
विगत समय आभास नहीं है उसी सहजता और सरलता का
ऐसा लगता है चंचलता ने कबका नाता तोड़ दिया
मंजा जैसे सुलझा तो और मन उलझा
लगने लगा लौट जाऊं फिर उसी बचपन में
खिलखिलाते मौसम में मुस्कुराते दर्पण में
पर फिर जीवन की पतंग का ध्यान आया
और कदम ठिठक गए,
इसे उड़ना होगा, बढ़ना होगा,
डोर जमीन पर और सर अम्बर की और करना होगा!!
सौरभ कुमार दुबे