गीत
चाहे जितना भी समझा लो इसे समझ ना आएगा
जब भी मौका मिला फिर वही राग बेसुरा गाएगा
कभी ना सुधरेगा ये ना ही अपनी हरकत छोड़ेगा
हड्डी देखेगा जब कुत्ता पूँछ उठा कर दौड़ेगा
प्यार बाँटना चाहें हम लेकिन ये नफरत बाँटता है
जितना गले लगाते हैं ये उतना हमको काटता है
मुँह की खाई थी पहले भी जब इसने ललकारा था
याद नहीं पैंसठ में कैसे घर में घुसकर मारा था
हरेक सैनिक इसका तब बकरी सा मिमियाया था
इसकी छाती पर चढ़कर जब बंग्लादेश बनाया था
भूल गया है अगर तो फिर दोबारा पाठ पढ़ा देंगे
अबकी इस दुनिया से इसका नामोनिशां मिटा देंगे
माना राजनीति में शिष्टाचार निभाने पड़ते हैं
मन में गुस्सा भरा हो तो भी दांत दिखाने पड़ते हैं
लेकिन इसे नसीहत दे दो अपनी हद में रहने की
कह दो सीमा होती है हर एक बात को सहने की
आस्तीन के सांपों को बहुतेरा दूध पिलाया है
भूल के सारी बातें कितनी बार ये हाथ मिलाया है
ये ना सोचना फिर दोबारा इसको माफ करेंगे हम
बंदूकों से अब पड़ोस का कचरा साफ करेंगे हम
— भरत मल्होत्रा