यात्रा भानगढ़ किले की
‘ हैलो’ मैनें फोन उठाते हुए कहा , दूसरी तरफ मेरे लेखक मित्र कमल कुमार सिंह जी थे ।
कमल भाई ने बताया की खुजराहो जाने प्लान बन गया है और मुझे चलना है । यात्रा बाय कार थी और उनका एक मित्र मनु त्यागी जी की कार है उससे ही प्रोग्राम है चलने का ,चार दिन का टूर है ।
यूँ अचानक खुजराहो का जाने को मैं थोडा तैयार नहीं था , क्यों की उसके दो कारण थे पहला काम का सीजन तो दूसरा नव वर्ष पर घर से दूर ।
पर मैं खुजराहो जाने के मौके को गंवाना नहीं चाहता था अत: तैयार हो गया ।
अगले दिन कमल भाई का फिर फोन आया , उन्होंने कहा की खुजराहो जाने का प्रोग्राम कैंसिल हो गया है और अब राजिस्थान का टूर बन गया है । सिरिस्का अभ्यारण्य ,सिलीसेढ़ लेक , भानगढ़ किला आदि आस पास ही घूमेंगे । खुजराहो न जाने का दुःख तो बहुत हुआ , क्यों की यदि आपका माइंड किसी जगह जाने का सैट हो जाए और और आपने सारी तैयारी कर ली हो फिर अचानक वह कैंसिल हो जाए तो दुःख तो होता ही है ।
खैर , भानगढ़ किले का नाम सुन मैं तैयार हो गया क्यों की सुना था की वह भुतहा किला है और रात में वंहा भूत विचरण करते हैं । मैंने सोचा की चलो खुजराहो न सही भूतो से ही मिला जाए और देखें की सच्चाई क्या है ?यह सोच मैने हाँ कर दिया ।मैंने कमल भाई से कहा की इसी शर्त पर वंहा जा सकता हूँ की मैं भानगढ़ किले में रात बिताऊंगा । उन्होंने हाँ कह दिया और साथ में कम्बल रखने के लिए कहा ताकि रात किले में बिताई जाए ।
30 तारीख की 11 बजे रात मनु त्यागी जी जो की मुरादनगर से आ रहें थे उन्होंने मुझे पिक किया और हम दोनों कमल भाई के पास चल दिए । चुकी कमल भाई का कार्यस्थल गुड़गांव है अत: हमें उन्हें वंही से पिक करना था । कमल भाई को फोन किया तो पता चला की आज वे ऑफिस की एक पार्टी में व्यस्त हैं और थोडा लेट हो जायेंगे यानि लगभग 12:30 तक वे हमसे मिलेंगे । हम गुड़गांव 40 मिनट में पहुँच गए और कमल भाई के बताये उस पते पर भी जंहा उन्हें आपसे मिलना था। वंहा डेढ़ घंटा इन्तेजार करने के बाद कमल भाई के दर्शन हुए वह भी मिर्जा ग़ालिब के अंदाज में । उनके ऑफिस में बॉस की विदाई के उपलक्ष्य में ‘ इमोशनल पार्टी’ थी , और अपने कमल भाई एक नंबर के ‘ इमोशनल ‘ ठहरें बस आ गया भरे पैमानों पर इनोशन और बन गए मिर्जा ग़ालिब।
खैर, कमल भाई को कार की बैक सीट पर बिठा हम सब चल दिए अपनी मंजिल की तरफ ।
शाहपुर से हम जब सिरिस्का के मुड़े तो रात के होने बाद भी रास्ता बेहद खूबसूरत और साफ सुथरा लग रहा था । सड़क के किनारे दोनों तरफ जंगल था और यदा कदा इधर उधर भागते छोटे जंगली जानवर इसे और रोमांचित बना देते ।31 की सुबह 6 बजे के करीब हम सिरिस्का अभ्यारण्य में पहुंचे , गाडी पार्किंग में लगाने के बाद हमने कमल भाई को जगाया और रात में उनके मिर्जा ग़ालिब बनने की बात बताई तो उन्हें यकीं नहीं हुआ ।
हमने सिरिस्का में सफारी का मजा लेने के लिए और बाघो से रूबरू होने के लिए टिकट लिया और केंटर में जा बैठे ।
गाइड ने बताया सिरिस्का वन लगभग 2800 वर्ग स्क्वायर किलो मीटर में फैला हुआ है और इसमें 12 -13 बाघ हैं और तीन शावक हैं। लगभग दो घंटे पुरे अभ्यारण्य में घूमने के बाद भी बाघ राजा के दर्शन नहीं हुये । हाँ एक जगह जमीन पर बने उनके पंजो के निशान जरूर देखने को मिले , हमें बाघ राजा के पंजो के निशान से उनके होने का वैसा ही प्रत्यक्ष आभास करके परम संतोष करना पड़ा जैसे की राम जी के खड़ाऊ को राज सिंघासन पर रखा देख अयोध्यावासियों को राम जी के होने का आभास कर परम संतोष होता था ।
बाघ राजा से न मिलने का दुःख लिए हम पहुंचे अलवर जिले से लगभग 20 किलोमीटर दूर सिलीसेढ़ लेक पर । पहाड़ियों से घिरा यह लेक बहुत बड़ा और सुंदर है । काफी देर तक इसका नज़ारा लेने के बाद और नास्ता पानी करने के साथ दो बीयर पीने के उपरान्त वंहा से विदा हो लिए …. एक नई जगह देखने के लिए ।
नई जगह पहुंचे बाला का किला , यह किला पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित है और लगभग 927 ईसा का निर्माण काल बताया जाता है । किले के तीन तरफ ऊँची पहाड़ियां और सामने विस्तृत अलवर जिला है । किला वाकई खबसूरत था , अपने ज़माने में यह एक शानदार किला रहा होगा । जैसा की भारत में अधिकतर ऐतिहासिक ईमारत धरोहरो के साथ होता है , वे मोबाइल के युग में भी दो प्रेमियो के प्यार के इज़हार की कहानी बन जाती है … नहीं समझे ?… अरे वही…. ‘राहुल लव्ज़ पायल ‘ , तीर से घायल दिलो की दास्तान पुरे किले की अंदरुनी दीवारो पर लिखी हुई थी ।
खैर , आधुनिक लैला मजनुओ द्वारा दीवारो पर लिखी प्रेम कहानियां न पढ़ के मेरा मस्तिष्क यह सोचने लगा की इतनी ऊंचाई पर इतना अच्छा किला बनाया कैसे होगा ? इस किले की दीवारे बहुत दूर तक और दूसरी पहाड़ियो तक फैली हुईं है । इनका मटेरियल कैसे हजारो फिट ऊपर पहाड़ की चोटी तक कैसे पहुंचा होगा?
फिर समझ आया की कौन सा राजा को खुद चढ़ाना होगा? उसने तो आज्ञा दी होगी , आज्ञा का पालन हुआ … पर मजदूर कँहा से और कौन होंगे ? क्या उन मजदूरो को उनकी मजदूरी मिली होगी? क्यों की भारत में मजदूर यानि सेवक यानि दास अवेतनिक होते थे यानि जन्मजात गुलाम होते थे । बिलकुल ठीक समझे , चतुर्यवर्णीय वयवस्था के कारण । कितने मजदूर मरे होंगे इस ऊँची पहाड़ी पर किला बनाते समय ? कोई लेखा जोखा नहीं … मेरी आँखों के सामने फ़िल्म की तरह बाते चलने लगी और मैं अतीत में खो गया ।
किसी तरह से अपनी कल्पनाओ पर अंकुश लगा मैं फिर वर्तमान में आ गया , पूरा किला देखा और वापस ।
शाम हो चुकी थी और सूर्य लगभग अपनी ड्यूटी पूरी कर जाने ही वाला था ।
अबके हमारा लक्ष्य था भानगढ़ किला , हमने सोचा की वंहा पहुँचते पहुँचते रात हो जानी है और हमें तो रात ही बितानी है उस किले में ताकि भूतो का भी इंटरव्यू लिया जा सके … मैं भी अपने भूत भाइयो से मिल के उनकी वर्तमान स्थिति जानने के लिए मरा जा रहा था ।
तो, अब गाड़ी घूमी भानगढ़ के लिए .. मैने कम्बल वाले बैग पर हाथ मारा की अब उसका नंबर आ गया …सामने सूरज छुप चुका था और रात बढ़ रही थी ।
शेष अगले अंक में –
अगले भाग में पढ़िए की क्या हुआ भानगढ़ के किले में और राजिस्थान का एक ऐसा गाँव और उसकी प्रथा जिसे जान के आप का एक समय के लिए चौंके बिना नहीं रह सकते ।
– केशव
इंतज़ार रहेगा भूतों को देखने के लिए किओंकि मैं भी भूतों से दोस्ती रखता हूँ .