वेदों और आर्यसमाज का प्रचार और प्रभाव
ओ३म्
स्वाध्याय करते समय आज मन में विचार आया कि महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी की आज्ञा से अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन-मण्डन और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया था। क्या कारण है कि इसका वह प्रभाव नहीं हुआ जो वह चाहते थे व होना चाहिये था? क्या महर्षि दयानन्द की वेदों पर आधारित मान्यतायें व सिद्धान्त दोषयुक्त वा अपूर्ण थे अथवा इसका कारण कुछ और था? इसी क्रम में यह भी बता दें कि उनके समय (1825-1883) व आज संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं, उन सबकी परीक्षा करने पर वह सभी मान्यतायें तर्क, युक्ति व वैदिक सिद्धान्तों पर सत्य सिद्ध नहीं होती। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रोक्त वैदिक मत को सभी मत-पन्थों को साथ बैठा कर भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है और ऐसा महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में बैठक, गोष्ठी, विचार-विमर्श व शास्त्रार्थ सहित अपने ग्रन्थों के लेखन आदि द्वारा किया भी है। ऐसे मत जिनमें अज्ञान, अन्धविश्वास व मानव हित के विपरीत कथन आदि हैं, इनके आचार्य और अनुयायी अपने-अपने मतों के सत्यासत्य की युक्ति व तर्क के द्वारा कभी परीक्षा ही नहीं करते जिससे उनकी सत्यता स्वतः संदिग्ध है। महर्षि दयानन्द की मान्यतायें उनके ब्रह्मचर्यादियुक्त अपूर्व पुरुषार्थ व तप सहित वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन व सहस्रों विद्वानों व योगियों की संगति से जानकर विवेकपूर्वक निश्चित की गईं हैं, असत्य व अपूर्ण होने की सम्भावना नहीं है। वर्तमान के हम सभी आर्यों से पूर्व महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनेक असाधारण विद्वान हुए हैं जिन्होंने महर्षि दयानन्द की मान्यताओं का अध्ययन व परीक्षा की और उन्हें पूर्ण सत्य पाया। उन्होंने उनमें किसी संशोधन व परिमार्जन की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। अब भविष्य में इस कोटि के विद्वानों के होने में भी आशंका प्रतीत होती है। अतः धर्म संबंधी विषयों में उनकी मान्यतायें व सिद्धान्त ही सत्य मानने होंगे। महर्षि दयानन्द के बाद हुए वरिष्ठ विद्वानों में पं. गुरुदत्त विद्याथी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. आयुमुनि, पं. तुलसीराम, पं. शिवशंकरशर्मा काव्यतीर्थ, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. देव प्रकाश, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि के नाम ले सकते हैं। अतः महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की वैदिक धर्म की विचारधारा का प्रचार और संसार के वेदेतर मतों के लोगों द्वारा उसको स्वीकार न करने के पीछे वेदों की विचारधारा व उसके सिद्धान्तों की असत्यता, न्यूवतायें व अज्ञानयुक्तता नहीं है अपितु जिन लोगों में प्रचार किया जाता है उन लोगों का अज्ञान वा मिथ्याज्ञान, अपने-अपने हित, अपात्रता, रूढि़वादिता, मत-मतान्तरों के आचार्यों वा धर्मगुरुओं का अपने अनुयायियों को आंखें बन्द कर व बिना विचार किए उनकी धर्मपुस्तकों, विचारों व मान्यताओं का पालन करने की धारणा का प्रचार है। यह तो हम सभी जानते हैं कि यदि हमारे मत पर कोई आक्षेप करता है तो हमारा सीमित ज्ञान व अध्ययन होने के कारण हम अपने विद्वानों को उनका प्रतिवाद करने के लिए कहते हैं। ऐसा ही अन्य मतों में भी होता है। वहां इतना हमसे पृथक होता है कि उन मतों के आचार्य अपनी अयोग्यता वा अपने मत की मान्यताओं की असत्यता को जानकर मौन रहते हैं और कह देते हैं कि आक्षेपकत्र्ता अनावश्यक व अन्य कारणों से आक्षेप कर रहा है व ऐसे अन्य बहाने बनाते हैं।
महर्षि दयानन्द ने जब सत्य ज्ञान का अर्जन कर सन् 1863 से वेद प्रचार व असत्य मतों का खण्डन मण्डन आरम्भ किया तो अन्य मतों के आचार्यों व लोगों में उनके विचारों व तर्कों को सुनकर खलबली मच गई। उनके आचार्यों के पास उनके तर्क व युक्तियों का सन्तोषप्रद उत्तर नहीं था। वह प्रायः उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ करने में दूर रहते थे। यदि आलोचित मत के आचार्य को कभी किसी कारणवश उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ आदि करना भी पड़ा तो वह अपने मिथ्या मतों की मान्यताओं को तर्क व युक्तिपूर्वक सिद्ध नहीं कर पाते थे और अपने स्वार्थों के कारण उन्हें छोड़ भी नहीं पाते थे। वही स्थिति आज तक बनी हुई है। वर्तमान में मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों ने अपने मत के सत्य व असत्य सिद्धान्तों की परीक्षा छोड़ ही दिया है और प्रायः सभी धन, सम्पत्ति, सुख-सुविधा रूपी भोग व अधिकारों आदि के चक्र में फंसे हुए दीखते हैं। संसार में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति व प्रगति तभी हुई है जब यूरोप के देशों के लोगों ने वहां के धार्मिक संगठनों की मान्यताओं व सिद्धान्तों से स्वयं को पृथक कर सत्य का अनुसंधान, अध्ययन व उसके अनुसार क्रियात्मक प्रयोग किये। यदि वह अपने आप को वहां के मतों से जोड़े हुए रखते तो पश्चिम के देशों में ज्ञान विज्ञान की जो प्रगति हुई है, वह कदापि न होती। जिन देशों में यह प्रगति नहीं हुई या कम हुई है, उसका कारण भी वहां के लोगों का अपने आप को अपने-अपने मतों व धर्म की अविद्या वा अज्ञानजन्य मान्यताओं से जोड़े रखना है तथा इन मतों की अज्ञानयुक्त रूढि़यों व परम्पराओं का उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव होना है। अतः हमें लगता है कि सत्य वैदिक धर्म का जितना प्रचार किया जाये, अच्छा है, परन्तु उसका अपेक्षा के अनुकूल प्रभाव न होकर सीमित प्रभाव ही होगा। हमारे विगत डेढ़ शताब्दी में प्रचार से सभी धार्मिक संगठनों व मनुष्यों द्वारा वैदिक धर्म को सार्वजनिक पूर्णरूपेण स्वीकृति न तो मिली है और न निकट भविष्य में सभव प्रतीत होती है। ‘‘सत्यमेव जयते” वाक्य के अनुसार सत्य में अपनी एक नैसर्गिक शक्ति होती है। यदि असत्य समाज व मनुष्यों में अपना अस्थाई रूप से स्थान बना सकता है तो सत्य भी अवश्य बना सकता है परन्तु असत्य के स्थापित व रूढ़ हो जाने पर उसको हठाने के लिए प्रयत्न व पुरुथार्थ कुछ अधिक करना पड़ता है। यह सत्य मत के प्रचारकों की योग्यता व पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कार्य को पूर्ण योग्यता व अपने ब्रह्मचर्य के अपूर्व बल व सामर्थ्य से किया, अपने प्राण भी इस कार्य के लिए दे दिये, जिसका देश व विदेश के लोगों पर, सीमित ही सही, वरन् आशातीत प्रभाव पड़ा। इस प्रक्रिया को प्रभावशाली रूप से जारी रखना आवश्यक है।
अतीत में अनेक मतों के लोगों ने वेदों का अध्ययन किया है और वह इससे आकर्षित हुए हैं। कुछ ने वैदिक मत को इसकी श्रेष्ठता के कारण अपनाया भी है। वेदों व वैदिक साहित्य जिसमें महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, का जो भी मनुष्य शुद्ध हृदय से अध्ययन करता है वह इस परिणाम पर पहुंचता है कि संसार में धार्मिक जगत में आर्यसमाज द्वारा स्वीकार्य व प्रचारित वैदिक सिद्धान्त ही पूर्णतया सत्य हैं। वेद के विपरीत प्रचलित मान्यतायें लोगों को भ्रमित करती हैं और उन्हें जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से दूर करती हैं। हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित सत्य वेद मत के संसार में प्रसारित होने में आईं बाधाओं का संकेत कर यह बताने का प्रयास किया है कि सामान्य मनुष्यों का ज्ञान इस स्तर का नहीं होता कि वह धर्म के सभी सिद्धान्तों को पूर्णरूपेण जान व समझ सके वा जानने-समझने पर स्वीकार कर ले। इसके लिए श्रोता का स्तर वक्ता के समान व उससे कुछ कम तथा अध्येता का स्तर ग्रन्थकार के स्तर के कुछ-कुछ अनुरूप होना चाहिये। स्कूल के अध्यापक का उदाहरण भी यहां लिया जा सकता है। हम जानते हैं कि स्कूल के अध्यापक के ज्ञान का स्तर विद्यार्थियों से अधिक ही होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि शिक्षक अविद्यायुक्त, स्वार्थी, हठी व प्रमादी नहीं होता। शिक्षक व पुस्तकों की बातें सत्य ही हुआ करती हैं जिसको विद्यार्थी पक्षपात रहित होकर समर्पित भाव से पढ़ता है और ऐसा करने से उसकी बौद्धिक उन्नति होती है। यदि प्राचीन काल से हमारे सभी धर्म प्रचारक व धर्मों के आचार्य शिक्षकां की तरह से ज्ञानी, निष्पक्ष, सत्य के आग्रही व विवेकशील होते तो आज संसार में इतने मत, मतान्तर वा धर्म आदि न होते जितने की आज हो गये हैं। प्राचीनकाल से अच्छे शिक्षकों व प्रचारकों की कमी का परिणाम ही वर्तमान के अविद्यायुक्त मत-मतान्तर हैं।
महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के विद्वान और अनुयायी यह जानते हैं कि उनका मत ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित है और पूर्ण सत्य है। हमें अपने जीवनों को भी वैदिक मान्यताओं के अनुसार बनाना चाहिये। हमें भी आत्म चिन्तन कर अपने जीवन की कमियों को दूर करना चाहिये और अपने आचरण व व्यवहार पर ध्यान देना चाहिये। यदि हमारे गुण-कर्म-स्वभाव, आचरण व व्यवहार वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों पर आधारित होंगे तो उनका हमारे परिवार व समाज पर भी अच्छा प्रभाव होगा। इस लेख में हमने यह विचार किया कि सत्य व ज्ञान से पूर्ण होने पर भी महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वेदमत का देश व विश्व पर अपेक्षानुरुप प्रभाव क्यों नहीं हुआ? आर्यसमाज के अन्य विद्वान भी इस विषय पर विचार कर लेखों के द्वारा आर्यजनता का मार्गदर्शन कर सकते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य