कविता – जाने क्यो
ना जाने क्यो
मन अनमना सा है
उतर रहा है
भीतर तक सन्नाटा
कुछ मायुसी
बुन रही हुं बेवजह के
ताने-बाने
बे सिर- पैर के
ख्याल
ना जाने कैसी एक
गांठ खोलने मे
उलझी सी मै
ना खुश हुं ना उदास
ना उमंग ना कोई आस
अंजाने ही
बैरागी सी मै
ढुंढ रही हु कोई मकसद
कोई रौशनी
कोई रास्ता
एक ऐसी दुनिया
जहां तुम हो
जहां सुकून हो ।
© साधना सिंह
कविता अच्छी लगी , साधना जी ,साहित्कार भावुक ही तो होते हैं .