कोरा-सा प्रेम और कैक्टस होता शहर
भागते-बौखलाते शहर में
घन-घनाते फोन कॉल्स के बीच भी
मार्बल से आच्छादित फर्श से बची मिट्टी में
ओस की नमी से सींच कर
कोरा-सा प्रेम उग आता है ।
जंगली घास-सा बेतरतीब-बेपरवाह
प्लास्टिक हो चुके संवेदनाओं को
मुहँ चिढ़ाता
खुली हवा में सांस लेता
तेज-भागता शहर
कहाँ उसे देख पाता है।
हाँ
सीढ़ीयों पर करीने से सजे कैक्टस को
जरुर निहारता है ।
— महिमा श्री