कविता

कोरा-सा प्रेम और कैक्टस होता शहर

भागते-बौखलाते शहर में
घन-घनाते फोन कॉल्स के बीच भी
मार्बल से आच्छादित फर्श से बची मिट्टी में
ओस की नमी से सींच कर
कोरा-सा प्रेम उग आता है ।

जंगली घास-सा बेतरतीब-बेपरवाह
प्लास्टिक हो चुके संवेदनाओं को
मुहँ चिढ़ाता
खुली हवा में सांस लेता
तेज-भागता शहर
कहाँ उसे देख पाता है।
हाँ
सीढ़ीयों पर करीने से सजे कैक्टस को
जरुर निहारता है ।

महिमा श्री

महिमा श्री

नाम :-महिमाश्री शिक्षा :- एम.सी.ए , पटना, बिहार लेखन विधाएँ :- अतुकांत कविताएँ, ग़ज़ल, दोहें, कहानी, यात्रा- वृतांत, सामाजिक विषयों पर आलेख , समीक्षा साहित्यिक गतिविघियाँ- एकल काव्य संग्रह- “अकुलाहटें मेरे मन की” साझा काव्य संकलन “त्रिसुन्गंधी” , “परों को खोलते हुए-१”, “ सारांश समय का” , “काव्य सुगंध -2”, देश के विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, मासिक ई- पत्रिका शब्द व्यंजना में संपादन तथा अंतर्जाल और गोष्ठीयों में साहित्य सक्रियता। सम्प्रति :पब्लिक सेक्टर में सात साल काम करने के बाद (मार्च २००७-अगस्त २०१४) वर्तमान में स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता , नई दिल्ली मोबाइल :- 9910225441 ईमेल:- [email protected] Blogs:www.mahimashree.blogspots.com