कहानी

कहानी : शादी

कोच नं एस 8 मेरे सामने ही आकर रुकी। दस बरस के अनुभव से पहले ही अनुमान हो गया था कि कौन सी कोच कहाँ खडी होगी। बहुत से स्टेशनों पर तो अब इंडिकेटर भी लगा दिए गए हैं। पर यहाँ……। मैंने अपना सूटकेस और बैग उठाया और ट्रेन में चढ़ गई। बिना किसी दिक्कत के सीट तक पँहुची। ज़्यादा दिक्कत नहीं हुई बस अपनी सीट तक पँहुचने में इस भीड़ ने इतने धक्के दिए, इतने धक्के दिए कि मेरे बैग की स्ट्रीप टूट गई और कुहनी में ज़रा सी चोट आ गई। ज़्यादा चोट नहीं आई बस थोडा सा, थोड़ा सा ही खून निकला, बाद में रुमाल से बाँध देने पर खून रुक भी गया। खैर अपने सीट तक पँहुची तो देखा कुछ भले मानस मेरी ही सीट पर बैठे हैं। कुछ मीठे शब्दों के आदान-प्रदान पर वे तमतमा उठे। पता लगा की उनके पास भी उसी सीट का टिकट था जो मेरे पास था। अगल-बगल वालों ने मामला सुलझाया और टी. टी के आने तक हमें शांत रखने का प्रयास रखा। काफी हद तक सफल भी हुए पर बीच-बीच में आँखों से झर रहे फूलों की वज़ह से माहौल में गर्मी आ ही जाती। अकेली महिला को देख लोगों ने खिड़की वाली सीट मुझे थोड़ी देर के लिए दिलवा दी। मैं अपना सूटकेस नीचे सरका कर आराम से बैठ गई। गाड़ी छूटने में अभी आधे घंटे की देर थी। अभी केवल पाँच ही मिनट बीते थे कि सामने देखा तो मेरे विश्ववविद्यालय के उप कुलपति स्टेशन पर यहाँ से वहाँ दौड़े चले जा रहे थे। मैं पहले तो कुछ समझ नहीं पाई। पर फिर लगा कहीं मुझे तो नहीं ढूँढ रहे। मैंने छिपने की बहुत कोशिश की पर उनके साथ आए मेरे ही विभाग के सह-कार्यकर्ता ने मुझे देख ही लिया।
अरे, मैं तो आपको अपना परिचय देना भूल ही गई। इस के लिए मैं अपने पाठकों से क्षमा चाहती हूँ। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में कार्यरत हूँ। दस वर्ष से इस विभाग में प्रोफेसर प्रिया राव के नाम से मुझे पुकारा जाता है। खैर अब आगे की कथा सुनिए। उप-कुलपति मुझ तक आए और बोले “मैडम बीस तारीख को एक बहुत ही इम्पार्टेंट सेमीनार है। आप चली जाएंगी तो यह कैसे होगा? ओक्सफोर्ड प्रेस से भी लोग आ रहे हैं। आपकी कहानियों का अंग्रेजी संस्करण छपने जा रहा है। आपके बिना यह कैसे संभव है?”
“पर यह मेरे लिए कैसे संभव है? मेरे भतीजे की शादी है। मैंने आपको पहले ही बताया था। आपसे पूछकर ही मैंने अपने अपने भाई को यह तारीख रखने को कहा था। अब तो शादी रोकी नहीं जा सकती।” “मैं क्या करता मैडम? प्रेस वाले तैयार ही नहीं हुए। उनके पास और कोई तारीख नहीं थी, इसलिए मैंने भी झट से हाँ कह दिया। सब इतनी जल्दी-जल्दी में तय हुआ की मैं कुछ कर भी न सका। फिर गरज भी तो हमारी थी, उनकी नहीं। जो डेट मिल गई, वह हमारी खुशनसीबी है।”
“ठीक है मैं कोशिश करूँगी की पन्द्रह को शादी खत्म होने के बाद अठारह-उन्नीस तक वापस आ जाऊँ। वरना मेरा इरादा शादी के बाद दस-पन्द्रह दिन वहीं बिताने का था। आप तो जानते ही हैं शादी में कितना काम होता है और शादी के बाद भी तुरंत काम खत्म नहीं हो जाता। आखिर आपने भी तो पिछले साल अपनी लडकी की शादी की थी। भला आप से बेहतर इस बात को कौन जान सकता है।” “मैं समझता हूँ मैडम। मैं भी क्या कर सकता था।”
“और फिर ऎसा भी तो नहीं की शादी किसी दूर के रिश्तेदार की है। मेरे खास भतीजे की शादी है। सब देख-रेख में मेरा हाथ न होगा तो किसका होगा।”
“हाँ मैडम। मगर मैं कर भी क्या सकता था।”
” आखिर दूल्हे की बुआ हूँ, मुझ पर भी कई ज़िम्मेदारियाँ हैं। और उस पगले ने तो अब तक अपने कपडे भी नहीं बनवाए। कहता है मेरी पंसद के कपडे ही खरीदे जाऎंगें?” “मैं समझता हूँ आपकी मुश्किल। पर मैं क्या कर सकता हूँ मैडम। मेरे सर पर भी इस विशाल महाविद्यालय की जिम्मेदरियाँ हैं।” शायद ट्रेन भी उपकुलपति का वाक्य “मैं क्या कर सकता हूँ – मैं क्या कर सकता हूँ” सुन कर ऊब गई थी इसलिए गार्ड ने सीटी बजाई। मैं भी अलविदा कह कर कुलपति जी से रुख़सत हो ली। गुस्सा तो बहुत आ रहा था कि बडी मुश्किल से तो चंद दिन की छुट्टियाँ, मिलती हैं उस पर यों काट ली जाती हैं। कुलपति जी को भी कोई और दिन नहीं मिला था। अब मैं शादी में जाऊँ और भागी-भागी वापस आऊँ! शादी क्या खाक देखूँगीं? अभी तो दिल्ली से ठीक से निकली भी नहीं कि विघ्न पड़ गया। श्री गणेश का नाम लिया और ट्रेन छूटने लगी। काफी देर बाद ट्रेन शहर से बाहर हुई और जब तक शहर छूटा नहीं तब तक सेमिनार का ख्याल भी नहीं छूटा। लेकिन शहर के साथ ही मेरी चिंता भी छूट गई। हाँलाकि इस में करीब डेढ़ घंटे का समय लगा। सूरज लाल से पीला हो चुका था। बड़ी-छोटी हर तरह की इमारतें पीछे छूट गई और बड़ी मुश्किल से कहीं पेड़ और खेत देखने को मिले। खेतों के ऊपर सूरज ने चमचमाना शुरू कर दिया। अब मैं कुछ और ही सोच रही थी।
मेरे भतीजे की शादी थी। मैं उसी बारे में सोच रही थी। अभी कुछ साल पहले ही तो मैं गाँव गई थी तो बच्चा था। मुझे सताता था तो गुस्सा आता था और प्यारी सूरत देख पिघल भी जाती थी। सच कहूँ, तो उसका सताना मुझे अच्छा भी लगता था। पिछले साल गई थी, तभी मैंने कहा था कि “घबरा मत बच्चू तेरे पैरों में जब शादी की बेडियाँ पडेगीं तो सारी हँसी निकल जाएगी।” इतने में टी. टी जी हमारी बोगी में पधारे। फिर शांत हुई आग में से धुँआ निकला और आग भड़की। काफी जिरह के बाद मामला ठंडा हुआ वे जनाब अगले महीने की टिकट लेकर चढ. गए थे। सुबह का समय था। काफी सीटें खाली थीं। टी.टी ने कुछ दण्ड वगैरह भरवाकर उन्हें नई टिकट तो बना दी। मगर मेरी विजयी और कुछ-कुछ तिरस्कृत मुस्कान उन भले मानसों से झेली नहीं जा रही थी। वे भले मानस कई थे, उन्हें अन्यत्र ले जाना टी.टी के लिए संभव न था। टी.टी ने मुझ से विनती की कि मैं आगे की सीट ले लूँ। मैंने भी भद्रता दिखाई और टी.टी की बताई सीट पर जाकर बैठ गई। वैसे भी कौन इन भले मानसों के पास बैठना पंसद करेगा।
वहाँ भी बैठी तो ख्यालों की कई ट्रेनें एक-एक कर मेरे स्मृतिपटल के प्लेटफार्म से गुज़रने लगीं।
मेरा भतीजा काफी हृष्ट-पृष्ट और शालीन है। देखने में सुंदर और बोल-चाल में निपुण है, इसीलिए तो मैंने अपनी भाभी से कहा था- “देखना इसके ब्याह में चालीस-पचास लाख से कम दहेज न मिलेगा। अगर कम हो तो शादी तय ही मत करना। ऎसा हीरा कहीं मिलेगा क्या?”
“अरे काहें का हीरा….” आगे बोलने के लिए भाभी ढूँढती रह गई पर कोई नुस्ख न निकाल पाई। ऎसे भतीजे पर तो मुझे भी गर्व था।
इस वर्ष मेरे विभाग में इतना काम था कि बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिली और जो मिली उसका हाल भी आप देख चुकें हैं। इसी वज़ह से उसके तिलक में भी न जा पाई।
ट्रेन जब बनारस पहुँची तो सुबह का सूरज शाम को घर लौट रहा था। भतीजे को आना मना था इसलिए इस बार भइया लेने आए थे। सामान गाडी में लादा और घंटे भर बाद, छोटी-बड़ी गलियों से गुज़रते हुए अपने घर पँहुची।
घर देखकर लग रहा था कि मेला लगा है, सब रिश्तेदार पँहुच गए हैं केवल मैं ही बाकी थी। कई रिश्तेदारों से मिली। ज़्यादातर वाक्य जो मैंने कहे वो ये थे-:
“अरे छुटकु तू तो इतना बडा हो गया। पिछली बार मिला था तो बच्चा था। लगता है अब अगली बारात तेरी निकलेगी।”
“मौसी! कितने साल गुज़र गए आपसे मिले हुए।”
“पिंकी! मैं इतने बार आई यहाँ पर तू मुझे कभी दिखाई नहीं दी। बच्चे कैसे हैं? ………. क्या!!! इतने बड़े हो गए?”
ये तो थी मेरी टिप्पणियाँ। अब ज़रा यह भी जान लीजिए कि मुझे क्या-क्या सुना पड़ा।
“प्रिया! कहाँ हो? कई साल हो गए तुम्हें देखे हुए।“
“प्रिया! तुझे तो मैंने शादी में ही देखा था। कितनी मोटी हो गई है! पहचान में ही नहीं आती।“
“प्रिया बुआ, प्रोफोसर हो गई हैं तो हम सब को भूल गई हैं।“
इतने में मेरा भतीजा आया। उसके शरीर पर हल्दी का पीलापन मुझे साफ़ दिखाई दे रहा था। उसे देखते ही मैं गदगद हो उठी और मेरी सारी थकान दूर हो गई। आते ही उसने मेरे पैर छुए।
“भगवान करे सबसे सुंदर और पैसे वाली बीवी पाओ।“
“कैसी हो बुआ?”
“मैं ठीक हूँ तू अपनी सुना। मन में लड्डू-वड्डू फूट रहे हैं कि नहीं।“
“गुस्सा मत दिलाओ बुआ। एक तो सबसे बाद में आती हो और अपनी गलती छुपाने के लिए दूल्हे से ही दिल्लगी करती हो।……….सच कहता हूँ बुआ अगर नहीं आती तो शादी नहीं करता।”
“अरे जा रे जा! मुझे पता नहीं है क्या। सारी तैयारी तो कर ली है; रह क्या गया है जो तू शादी नहीं करता।”
“अभी मंडप में थोड़े न बैठा हूँ।”
“अच्छा तो मेरे लिए तू शादी नहीं करेगा। चल झूठा कहीं का।“
“तो!! आपने क्या समझ रखा है। किसी बालीवुड हीरो से कम हूँ क्या?”
मैंने अविश्वास से उसे देखा।
“मत मानो। मैं जाता हूँ।“
वो जाने को हुआ तो मैंने हाथ पकड़ कर खींच लिया और पलंग पर बिठा दिया।
“बुरा मान गया क्या? बुआ से ऎसे रूठते हैं क्या? अभी से इतने नखरे। शादी के बाद तो बुआ याद भी नहीं आएगी।“
“याद तो आप नहीं करती वरना इतनी जल्दी आती क्या? सब आ गए हैं बस देवी जी न प्रसन्न हो रही थीं न दर्शन ही दे रही थीं।“
इतने में माँ ने आवाज़ दी- “पिया ओ पिया! पानी गर्म कर दिया है हाथ-मुँह धो ले।“
हाथ-मुँह धोकर रसोईघर में गई। वहाँ माँ और दीदी के साथ काम में हाथ बँटाया। रसोई का काम खत्म करने के बाद और सबको खाना खिलाने के बाद मैं, माँ और दीदी के साथ खाने बैठी। हमारी बातें जो खाने से शुरु हुई तो आधी रात तक चलीं। घर का हाल-चाल पता चला।
पता चला दीदी लड़की देखने गई थी। लड़की देखने में सुंदर है और दहेज भी भारी-भरकम दे रहे हैं। मैंने दीदी को कहा – “तुम बहुत भोली हो दीदी उन्होंने कहीं ठग तो नहीं लिया।“ सभी ठहाका मार के हँस दिए और बात आई-गई हो गई।
एक अचरज की बात यह हुई कि जब मैंने लडकी का फोटो माँगा तो किसी के पास नहीं मिला। लड़की वालों ने लड़की की न कोई फोटो खींचने दी न कोई फोटो ही दी।
नकुल सीढियों पर बैठा था और मैं उसके बगल में जा कर बैठ गई। कुछ छेड़ने का मन हुआ। मैंने पूछा – “क्यों रे सुना है भूतनी से शादी कर रहा।“
“क्यों ऐसा क्यों कह रही हो?”
“अरे कोई फोटो तक नहीं है उसका। मैंने सोचा था कम से कम तेरे तकिए के नीचे तो मिलेगा ही।“
“फोटो लेकर क्या करोगी। दो दिन बाद घर ही आ जाएगी उसे ही रख लेना।“
“मैं रख लूँगी तो तू क्या करेगा।“
“मैं दूसरी ले आऊँगा।“
यह सुनते ही मैं हँस पड़ी। पीछे से भी हँसी की आवाज़ आई। देखा तो भईया भी खड़े हँस रहे थे। नकुल झेंप कर वहाँ से चला गया।
दस वर्ष बाद घर में यह शादी थी इसलिए काफी धूम थी। बड़े ही शानदार ढंग से शादी हुई। मैं तो भइया को कंजूस समझती थी, पर भइया ने भी दिलदारी दिखाई, खूब पैसा पानी की तरह बहाया।
बारात जब वापस आई तो सबके सब्र का बाँध टूटने लगा। भाभी के तो रंग ही निराले थे। ऎसा लगता था कोई ऊँचा ओहदा मिलने जा रहा है। आखिर था भी, सभी भाभियों में, सगी और दूर की, सबसे पहले वे ही सास बनने जा रही थी। सास का ओहदा कोई कम थोड़े न होता है, सभी अफसरों से ज़्यादा हुक़्म चलाने को मिलता है और वो भी पाँच या छह घंटे के लिए नहीं बल्कि ज़िन्दगी भर। लेकिन मेरी भाभी ऎसी थी नहीं। वह तो बहुत कोमल स्वाभाव की थी। सास की कड़क उपाधि उन्हें शोभा नहीं देती। फिर भी सबसे पहले वही सास बनी। अक्सर ऎसा ही होता है। लगता है, भगवान ने संसार को अपूर्ण रखने का निश्चय कर रखा है। जिसको चाहिए उसे कभी नहीं देते और जहाँ आवश्यकता न हो वहाँ भारी मात्रा में मिल जाता है। समंदर में वर्षा करते हैं और रेगिस्तान में मृगतृष्णा ही देखने को मिलती है।
भाभी पूजा की थाल लेकर चौखट पर गई। नकुल दुल्हन को लेकर दरवाज़े पर पँहुचा तो उसकी शैतान बहनों ने रास्ता छेंक लिया। काफी देर तक ज़ेब टटोलने का अभिनय करता रहा। बहनों ने कहा – “कर लो जितना नाटक करना है। बिना पैसे के भाभी तो अंदर नहीं आऎंगी। चाहें इसके लिए तुम्हें अपने आपको बेचना पड़े।” नकुल भी जानता था ये हटने वाली नहीं हैं, सो आखिरकार नोटों से बहनों का मुँह बंद किया और आगे बढ़ा।
आज दुल्हन तो घर आ गई मगर मुझे शादी के झंझटों में समय ही नहीं मिला की उसका मुँह तक देख पाऊँ। आज ही दिल्ली जाना है, सो सामान तैयार कर लिया। मुँह दिखाई के लिए जो हार लाई थी वह लिए मैं दुल्हन के कमरे की तरफ जा रही थी कि बड़ी दीदी की लड़कियों ने रोक लिया।
“मौसी-मौसी दुल्हन न पागल है।“
“क्या बक रही हो, तुम सब।“
“हाँ सच कह रहे हैं हम। कल जब हम उसे लेकर आ रहे थे तो उसने लोटा उठाकर पागलों की तरह आधा पानी गट-ग़ट पिया और आधा गिराया।“
“अरे ऎसा नहीं कहते। उसे प्यास लगी होगी तो पी लिया होगा। इसके लिए कोई पागल नहीं हो जाता। ख़बरदार जो दुबारा ऎसा कुछ कह के चारो तरफ फैलाया।“
बच्चों को डाँट के भगा दिया। मैं कमरे में गई और जाकर पलंग पर बैठ गई। मैंने सोचा “कैसी दुल्हन है पाँव तक नहीं छुए।“ मुझे कुछ खटका हुआ। मैंने उससे पूछा-“कहाँ तक पढ़ी हो।“ इतना पूछने की देरी थी कि उसने ऊल-जलूल बकना शूरू कर दिया। वहाँ पलंग पर बैठे-बैठे मेरी रुलाई छूट गई। आँखों से आँसूओं की गंगधार निकल पड़ी। इतना गुणवान मेरा भतीजा और ऎसी ….. बहू। मैंने उसके साथ थोड़ी देर और बात करके पक्का कर लिया कि मुझे यूहीं कोई भ्रम तो नहीं हो रहा है।
बात पक्की हो गई। मैंने फटाफट जाकर भइया को बताया।
पूरे घर में कोलाहल मच गया। दोपहर हो गई किसी ने भोजन तक नहीं किया। सभी यही सोच रहे थे कि क्या किया जाए। मुझे तो भाभी की हालत देख-देख कर रोना आ रहा था। “कैसा बेटा और कैसी बहू”। आख़िर कोई एक दो दिन का सवाल न था; सारी जिन्दगी बितानी थी उसके साथ। कुछ लोगों ने कहा-“पागलखाने छोड़ आते हैं”। कुछ का विचार था उसे घर में पड़े रहने देते हैं और नकुल की दूसरी शादी करा देते हैं। कुछ की तो कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी, जैसे मेरी भाभी। कुछ लोग बड़ी बहन को कोस रहे थे कि क्या दुल्हन देखने गई थी जो कुछ पता नहीं चला कि क्या है। पर यह समय एक दूसरे दोष देने का नहीं था बल्कि एक सही निर्णय पर पँहुचने का था।
आख़िर भइया एक ठोस निर्णय के साथ आगे आए और तय किया की कुछ ऊँच-नीच होने से पहले ही उसे वापस छोड़ आते हैं। भइया बोले “छोटी! जल्दी से तैयार हो जा उसे उसके घर छोड़ आते हैं।“
मैं सकपका गई इस रोगी के साथ मैं कैसे जाऊँ कहीं कुछ हो गया तो, मान लो मुझे ही कुछ कर दे तो। पर किसी न किसी को तो जाना पड़ेगा।
मैंने लड़कियों से उसे तैयार रहने के लिए कहा और अपनी साड़ी इधर की उधर खोंस ली। बालों पर यूंहीं कंघी फेरी और फटाफट तैयार हुई। बहन की लड़कियों ने उसे तैयार किया और मैं उसे लेकर ऑटो में बैठ गई। बगल में भइया बैठे और उन्होंने आटो ड्राइवर को तेज़ी से गाड़ी भगाने को कहा। आटो ड्राइवर हँसा और बोला – “सबको ऑटो में बैठने के बाद, ऑटो ऎरोप्लेन क्यों लगने लगती है।” उसने ऑटो स्टार्ट की और गाड़ी दनादन उसके घर की ओर चल दी।
रास्ते में उसने पूछा कि हम उसे कहाँ लिए जा रहे हैं। मैंने उसे यूँही कह दिया कि गंगा किनारे कुछ आवश्यक रीतियों के पालन के लिए ले जा रहे हैं। हम जब अगुआ (जो शादी में दोनों घरों के बीच की कड़ी होता है) के घर के पास पँहुचे तो ऑटो रूकवा दिया। सामने देखा तो अगुआ के घर का कोई सदस्य आ रहा था। मैंने उसे ऑटो से उतरने को कहा। वह उतरने लगी तो देखा पैरों में कुछ भी नहीं है। मैंने पूछा “तुम्हारी सैंडल कहाँ है?” “आप ही तो झटपट-झटपट कर रही थीं। तो…छूट गई।“ “अच्छा ठीक है ले मेरी सैंडल पहन ले। थोड़ी देर यहीं रूकना पड़ेगा हम कुछ सामान लेकर आ जाऎंगें।“
इतना कह मेरा मन रुँआसा सा हो उठा। वो भी तो आख़िर किसी की बेटी है। बीमार है तो क्या हुआ, इसमें इसका तो कोई कसूर नहीं। हमारा समाज हर तरह के रोगियों से अटा पड़ा है; सभी को झेल लेते हैं, पर उसे क्यों नहीं? मगर मेरे भतीजे का मोह मुझ पर काफी भारी था और उसके भी तो कुछ अरमान रहे होंगे? क्या उसने और उसके माता-पिता ने एक अच्छी बहू की कामना न की होगी। लड़कियों की वांछनीय शादी ने आज समाज को यहाँ लाकर खड़ा कर दिया है कि एक मानसिक रूप से असंतुलित कन्या को भी घर में नहीं बिठाया जा सकता। वह लड़की न होकर लड़का होती तो शायद उसे इस तरह से माँ-बाप घर से नहीं निकालते और न ही वह मेरे घर से ही निकाली जाती। छल से ही सही, उसकी शादी करानी आवश्यकता हो गई थी।
इतने में अगुआ के घर का सदस्य आ पँहुचा। उसे हमने कहा कि हम थोड़ी देर में आते हैं ज़रा लड़की को घर में रख लो। वह भी पूछने लगा कि क्या बात है तो हमने कह दिया की गंगा किनारे पानी थोड़ी देर में घट जाएगा तो कुलपूजन के लिए उसे ले जाऎंगे।
वह थोड़ी देर नाकनुकुर करने के बाद मान गया। खटका तो उसे भी हुआ पर वह क्या करता? उसे क्या पता की उसके घर के एक सदस्य ने किस प्रकार शादी में अगुआ बनकर हमारे साथ छल किया है।
वापस आकर मैंने अपना सूटकेस उठाया और ऑटो में रखा। सूटकेस मन के बोझ के समान भारी लग रहा था। दिल तो चाहता था कि ऎसी घड़ी में परिवार के साथ रहूँ पर मुझे वापस जाना ही था। भारी मन से सबको अलविदा कह कर चल दी।
मेरा ऑटो बनारस की गलियों से गुज़रता जा रहा था। इस बार मैं अपने घर से बहुत कड़वी यादें लिए वापस जा रही थी।

नीतू सिंह 

*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]